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वि० २. शिष्यआशंका. पर अपकार कर्तारूप शत्रु औ पुण्यवश इष्ट पदार्थके संबंधकर अंतःकरणके सत्वका परिणाम हर्ष वृत्तिरूप सुख तथा प्रतिकूल पदार्थके संबंधकर अंतःकरणके रजोगुणका परिणाम विक्षिप्तवृत्तिरूप दुःख औ जातियण आयुकर आपणेसै अधिक जो ऊंच तथा जातियण आयुकर आपणेसै नीच, ब्रह्मा औ तृण तथा अमृत औ विष तथा कंचन औ काच कहिये काच विशेष; इत्या. दिक सर्व पदार्थोंमें यद्यपि लौकिक दृष्टिसै विषमता प्रतीत होवै है तथापि वे मनकृत होणेत मिथ्या हैं औ शास्त्रीय दृष्टिसैं सर्व पदार्थोंमे अनात्मत्व तुल्य है औ ज्ञान निवर्त्यत्वभी तुल्यही है ॥५॥ दोहा-समदर्शी शीतलहृदय, गत उद्देग उदार॥सूछम चित्त सुमित्र जग,चिदवपु निरहंकार ॥६॥
टीकाः-या तिनमें महात्मा समदर्शी हैं, इसीत शीतल हृदय हैं, गत कहिये निवृत्त भया है उद्वेग कहिये