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विचारमाला. वि० ४. होवै हैं, सो पुरुष काक कहिये कौवा जैसे पक्षियोंमें नीच है तैसे अधम हैं. भाव यह है: अज्ञानीको जो वैराग्य होवै है सो विषयोंमें दोषदृष्टिसे होवै है, सो कालांतस्में पुनः विषयों में सम्यक् बुद्धिसे दूर होवै है । जैसे मैथुनके अंतमें सर्वपुरुषोंको स्त्रीमें ग्लानि होवै है औ कालांतस्में शोभन बुद्धि हो है, याते अज्ञानीका वैराग्य मंद है औ ज्ञानवानको जो वैराग्य होवै है सो विषयों में दोषदृष्टि औ मिथ्यात्व निश्चयपूर्वक होवै है, याते त्यक्त विषयोंको पुनः ग्रहण करे नहीं । जैसे अपने वमनको) फिर पुरुष ग्रहण नहीं करता तैसे। याते ज्ञानीका वैराग्य दृढ़ है ॥ २५ ॥ __(५४ ) इस रीतिसे दोषदृष्टिरूप वैराग्यका हेतु
औ त्यागरूप वैराग्यका स्वरूप कहा, अब वैराग्यका फल कहे हैं:दोहा-जगडंबरसों जग जहां,उपजै निज निरवेद ॥ पाक कांचरी सर्प ज्यों, छुटे सहज जग खेद ॥ २७॥