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(२२) पुनः शिष्य कहै है:- ब्रह्म आत्मा के अभेअर्थ बहु विद्याका अध्ययन कर्तव्य है ? या शंका के होयां कहे हैं:
संतमहिमा..
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दोहा - वेदादिक विद्या सबै, पावे पढ़े जु कोय ॥ सत्संगति छिन एकमैं, होयसु अनुभव लोय ॥ २१ ॥
टीका:--ऋग् यजुर साम अथर्वणरूप जो वेद हैं तिनसें आदि लेकर आयुर आदिक चार उपवेद षट् व्याकरणादि वेदके अंग, ब्रह्मादि अष्टादश पुराण, न्याय मीमांसा और धर्मशास्त्र इन संपूर्णों के अवलोकन कीयेंतें जो ब्रह्म आत्माका अभेद निश्चयरूप फल होवै है; सो सत्संगकर एक छिनमै पुरुष अनुभव करे है । सोई कहा है: - श्लोक " श्लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थको - टिभिः || ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव केवलम् " पुनः यही अर्थ जनक औ अष्टावक्र के संवादकर स्पष्ट कहा है । या श्लोकका अर्थ यह है: - " कोटि ग्रंथोंकर जो ब्रह्मात्माका अभेदरूप अर्थ कहा है सो अर्ध श्लो