SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० ५० जगदात्मवर्णन. १११ न्याई विनाशी कहा है । जो कहो ब्रह्मकूं सर्वरूप होनेते ब्रह्मादि देवभी ब्रह्मरूपही हैं, याते देवनकी उपासनाका निषेध वने नहीं; तथापि अविद्या तत्कार्यकी निवृत्ति औ आनंदावाप्तिरूप मोक्ष. शुद्धब्रह्मके ज्ञानतेही होवे हैं, यह पंचदशी में लिख्या है । तामें दृष्टांत कला है: - जैसे पुरुषको वृक्षके मूलमें जलका न सिंचन करके, शाखा औ पत्तों में जल सिंचनते फलकी प्राप्ति होवे नहीं ॥ १४ ॥ ( ६८ ) ननु देवादिरूप जगत् ब्रह्ममें स्वाभा - विक प्रतीत होवे है, वा नैमित्तिक है, स्वाभाविक कहो तो, निवृत्त न हुआ चाहिये औ निवृत्त होवे है, याते नैमित्तिक है, यह कहो सो निमित्त कौन है, यह कह्या चाहिये ? तहां सुनो:दोहा - जैसे सांचे में पयो, होत कनक बहुअंग ॥ नानावत यों ब्रह्ममें, लै उपाधिको संग ॥ १५ ॥ टीका:--जैसे सूपेके संबंधसे कटकादिरूप नानात्व
SR No.007743
Book TitleVicharmala Granth Satik Pustak 1 to 8
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnathdas Sadhu, Govinddas Sadhu
PublisherGujarati Chapkhana
Publication Year1832
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy