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वि० ५. जगदात्मावर्णन रज्जुमें सप्ता, ठूठ चोरके भाय ॥रजत विचाो शुक्तिमें, आयो. मन ललचाय ॥ १७॥ भयो बघूरा वायुमें, अग्नि चिनग बहु अंग ॥ बीजाहिम, तरुवर यथा, जलनिधि मध्य तरंग॥ १८॥ मिश्रीकी तूंबी रची, रंगरूप ता माहि ॥ . खान लग्यो जब भर्म तजि, सो तब कखी नाहि ॥ १९॥ पावकमें दीपक घने, नभमघट मठ नाम॥नीरमांझओराभयो,यों जग आत्माराम ॥२०॥
टीका:-पांच दोहोंका अर्थ स्पष्ट भाव यह है:जैसे घटादि मृदादिकोंका विवर्त होनेते मृदादिरूप हैं, तैसे सर्व जगत् ब्रह्मका विवर्त होनेते ब्रह्मरूप है१६-२० दोहा-सत्य कहों तो है नहीं, मिथ्या कहाँ तु आहि ॥ कह अनाथ आश्चर्य महा, अकह कह कहिय काहि ॥२१॥