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१२० विचारमाला. वि. ६. दोहा-रज्जु देखि प्राणी घने,कल्पें बहुत प्रकार ॥ को तरुजर को सरप कहि को कहि पुहमिदरार ॥ ११॥ शुक्ति निरखि बहु भेदलहि, प्राणी कल्पे ताहि ॥ को भोड़र को रजत कहि, को कहि कागद. आहि॥ १२॥
दो दोहोंकी एकठी टीकाः हे शिष्य ! जैसे रज्जुका सामान्यरूप इदंताको देखके बहुत पुरुष बहुत अनिर्व, चनीय पदार्थोकी कल्पना करे हैं। कोई कहै है यह वृक्षकी जड़ है, कोई सर्प कहे है, काहूको पृथिवीकी रेखा प्रतीत होवै हे । शुक्तिके सामान्य इदम् अंशको देखके स्वस्वसंस्कारके अनुसार अनेक पदार्थोंकी कल्पना करे हैं: कोई अवरक कल्पे है, कोई रजत, कोई कागदकी कल्पना करे है। यह सर्प रजतादि समग्र पदार्थ अनिर्वचनीय उत्पन्न होवे हैं । अनिर्वचनीय ख्यातिका संक्षेपते यह प्रकार है:-सर्प संस्कार सहित पुरुषके दोषसहित नेत्रका रज्जुसे संबंध होवै है औ