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विचारमाला.
वि० ४.
(५८) अब जगत सत है, आत्मा कर्ता भोक्ता है, औ ब्रह्मात्मका भेद सत्य है, इस विपरीत ज्ञानरूप विपर्ययके हुए कर्तव्य कहे हैं:
दोहा - शुद्ध स्वरूप प्रकाश में, कछु प्रवेशता होइ ॥ साधन पाई प्रौढ़ता, निदिध्यासन कहि सोइ ॥ ३२ ॥
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टीका:-- यद्यपि श्रवण मननरूप साधनकी दृढ़तासे प्रमेय औ प्रमाणगत संशय तो संभव नहीं तथापि पूर्व अभ्यस्त वासना के वशते प्रकाशरूप प्रत्ययकूं आत्मामें जाको कर्तृभोक्तृत्वकी प्रतीतिरूप विपर्यय हो सो पुरुष अनात्माकारवृत्तिरूप व्यवधान रहित ब्रह्माकार - वृत्तिकी स्थितिरूप निदिध्यासन करे ॥ ३२ ॥
[ ५९ ] अब निदिध्यासनका अवांतर फल कहे हैं :-- दोहा - कामादिक समता उदै, भये सु याहि प्रकार || निशि आगम प्राणी हैं सबै, होत अल्प संचार ॥ ३३ ॥