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वि०.४
विचारमाला. त्य कवि कहहीं, अवरण आठ सदा उर रहहीं । साहस अनृत चपलता माया, भय अविवेक अशौच अदाया।" "कोटि वन संघात जुकरिये, सबको सार खींच इक धरिये तिनके हिय सम सो न कठोरा, ऋषि मुनिगण यह देत ढंढोरा ॥" याते अनिकी न्याई दाहका हेतु जानकर ताका त्याग कर ॥ ५॥
ननु जैसे सर्प विछु आदिक स्पर्शसे अनर्थकर होते हैं, तैसे स्त्रीभी स्पर्शद्वारा अनर्थका हेतु है, चिंतनध्यानादिकों कर नहीं ? यह आशंका कर कहे हैं:दोहा-अहिविष तन काटे चदै,यह चिंतक्त चढ़ि जाय ॥ ज्ञान ध्यान पुनि प्राण हूं, लेत मूल्युत खाय॥६॥
टीका:-यद्यपि सर्पका विष, स्पर्श कियेसे चढ़े है तथापि यह कामरूप विष, स्त्रीके चिंतनमात्रसे शरीरमें. प्रवेश करे है। याते चिंतनकू भी मैथुन कहा है औ. स्पर्श कियसे तो शास्त्रज्ञानकू दूर करे है । सोई कहा