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वि०३. ज्ञानभूमिका. कै परलोकमैं कैसे गमन करूं, तातै स्थूलदेह मैं नहीं,
औ परलोकमैं गमन औ या लोकमैं आगमन लिंगदेहका होवे है, जे लिंगदेहही मैं होवों तो लिंगदेहका सुषुप्ति अवस्थामैं कारणमैं लय होवे है औ मैं सुषुप्तिमैं भी रहूंहूं, तातै मैं लिंगदेहभी नहीं औ सुषुप्तिमें. कारणदेह रहे है. सो मैं होवों तो मैं अज्ञहूं या अनुभवतें कारणदेहरूप अज्ञान मेरी दृश्य प्रतीत होवै है, ताते सोनी मैं नहीं. इस रीतिसैं त्रिते शरीरांत भिन्नभी मैं कर्ता भोक्ता हूं वा अकर्ता हूं ? कर्ता सावयव होवै है मेरे अवयव प्रतीत होवें नहीं, यात मैं कर्ता नहीं, याहीत भोक्ता नहीं; सो अकर्ताबी मैं सर्व शरीरोंमें एक हूं वा नाना हूं? वेद जीवब्रह्मका अभेद प्रतिपादन करेहै, जो आत्मा नाना हो तो अभेद बने नहीं, यात सर्व शरीरों में एक हूं । सो एकबी मैं ब्रह्मसैं अभिन्न कैसे हूं ? इस वार्ताके जानणेवास्ते गुरुकी शरणको प्राप्त होवौं । औ को संसार कहिये कौनसा संसार मेरे ताई दुःखदाई है ? ईश्वर रचित, वा जीवरचित; ईश्वरचित