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वि०१. शिष्यआशंका कहिये वस्तुनिर्देश है, तिसका निर्देश कहिये कीर्तन कहिये है। स्व वा शिष्यके वांछितका अपने इष्टदेवसैं प्रार्थन आशीर्वाद. कहिये है। अब तिनमैस ग्रंथके प्रयोजनका दिखावते हुए नमस्काररूप मंगल करै हैं:दोहा-नमो नमो श्रीरामजू, सत चित आनंदरूपः ॥ जिहि जाने जगस्वप्नवत,
नासतभ्रम तम कूप.॥१॥ । टीकाः-श्रीसहित जो सगुण राम है, ताकेताई न
मस्कार है औ सत् चित् आनंदस्वरूप जो निर्गुण ब्रह्म है, ताके ताई नमस्कार है । जू शब्दका देहलीदीपककी न्याई दोनों ओर संबंध है । सत्य कहिये त्रिकाल अबाध्य, चित् कहिये अल्लप्स प्रकाश, आनंद कहिये दुःखसंवधर्ते रहित निरतिशयसुखरूप, जिसके साक्षात्कारतें अविद्या ततकार्य रूप जगत् निवृत्त होवे है । दृष्टांतः-जैसे जाग्रत्के ज्ञानतें स्वप्न जगत् निवृत्त होवै है तद्वत् । काहेत भ्रमरूप होनेत । कैसा जगत है, तमकूप कहिये