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वि० ४. ज्ञानसाधन. त्यागके चेतनभागमें त्वंपदकी भागत्याग लक्षणा है। इस रीतिसे भागत्याग लक्षणाते ईश्वर औ जीवके स्वरूपमें लक्ष्य जो चेतनभाग तिनकी एकता तत्त्वमसि महावाक्य बोधन करे हैं । मूलमें आदिपदसे ग्रहण कीये जो 'अहं ब्रह्मास्मि,' 'अयमात्मा ब्रह्म,' 'प्रज्ञानमानंदं ब्रह्म, 'ये तीन महावाक्य, तिनमेंभी यही रीति. जान लेनी ॥ २९॥
(५७) अब मननका स्वरूप औ फल कहे हैं:दोहा-जग प्राणी विच्छेपचित, तजौ दूर तिनसंग ॥ बैठि इकंत स्वतंत्र है, करै मनन सर्वंग ॥३०॥
टीका:-यद्यपि महावाक्योंसे अभेदनिश्चयते. पश्चात् कर्तव्य नहीं, तथापि पूर्वोक्त रीतिसे कहे अथमें जाळू संशय होवै, सो जगत्में विक्षिप्तचित्त पुरुषोंका संग दूरते त्याग कर, एकांतस्थानमें स्थित होइ करके औ सर्व ओरते स्वतंत्र हाइके, जीवब्रह्मके अभेदकी साधक औ भेदकी बाधक युक्तियोंसे अद्वितीय