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________________ वि० ७. शिष्यअनुभववर्णन. १३३ टीका:-तीन दोहोंका अर्थ स्पष्ट भाव यह है:यद्यपि देहादि पदार्थ सर्वको अपने आत्मामें प्रतीत होवै हैं तथापि उत्तम भूमिकामें आरूढ विद्वानको अपने आस्मामें प्रतीत होवै नहीं ॥ ७ ॥८॥९॥ . (७८) ननु एकही आत्मामें विदानते भिन्न अन्योंको देहादि प्रतीत होवै है, औ विद्वानको होवै नहीं यह कथन बनै नहीं ? तहां सुनोः दोहा-मलिन नयनकरि देखिये, सब कछु 'सबहीभाय॥अमल दृष्टि जब रवि लह्यो, 'तब रविही दरसाय ॥१०॥ टीका:-जैसे जलादि उपाधि दृष्टिकर देखिये तब प्रतिबिंबताकर आदित्यमें अनेकता औ चंचलता आदि सर्व विकार प्रतीत होवै हैं जब उपाधिदृष्टिको त्यागके सूर्यकी ओर देख्या तब अद्वितीय प्रकाशरूप आ दित्यही प्रतीत होवै है ।। १०॥ अब दृष्टांतकर कहे अर्थको दाष्टर्टातमें, जोड़े हैं:
SR No.007743
Book TitleVicharmala Granth Satik Pustak 1 to 8
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnathdas Sadhu, Govinddas Sadhu
PublisherGujarati Chapkhana
Publication Year1832
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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