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आत्मवान्: स्थितिवर्णन.
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शरीररूप बहुत लहरियां तामें उत्पन्न भयीं । याकां यह यह अभिप्राय है: - शरीरोंके अभिमानी चिदाभासरूप जीव उत्पन्न भये ! अब गुरुमुखात्, विचारित महावाक्यते तत्त्वज्ञानकर, चित्त रूप वातकी निवृत्तिते चिदाभास जीवरूप लहरियों की निवृत्ति कर, पूर्व उक्त देशपरिच्छेदरहितं शुद्धात्मा स्वमहिमांमें स्थित हूं। इस रीति से कर्त्ता भोक्ता अभावते ज्ञानवानकीं शुभाशुभ में प्रवृत्ति होवै नहीं ॥ २१ ॥ २२ ॥
( ८९ ) औ जो कहीं विद्वानकी दृष्टिमें कर्त्ता भोक्ता - का अभाव काहते है ? तहां सुनोः -
दोहा - इंद्रादिक इच्छा करे, निश्चल पद सु अगाध ॥ तहां ज्ञानिकी स्थिति सदा, मैं तू यह वह बाध ॥ २३ ॥ टीका:--जा अक्रिय औ अगाध पदकी प्राप्तिकी इंद्रादिक देवताभी इच्छा करे हैं औ जामें मैं गुरु हाँ, तू शिष्य है, यह तुझको कर्तव्य है, यह, याका फल है,