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________________ १६० विचारमाला. वि०४ इत्यादि प्रत्ययोंकाभी बाध है; तहां ज्ञानवानकी निरंतर स्थिति होनेते, विज्ञानको कर्ता कर्म क्रियारूप त्रिपुटी प्रतीत होवै नहीं ॥ २३ ॥ पुनः ता चिद्वस्तुकेही विशेषण कहे हैं:दोहा-जाग्रत स्वप्न तहां नहीं, जहां सुषुप्तिमनलीन॥मैं तूतहां नसंभवै,आतम निश्चय कीन ॥२४॥ टीकाः-जा पूर्व उक्त चिदवस्तुमें जाग्रत स्वप्न , अवस्थाका अभाव है औ जो सुषुप्ति अवस्थामें मनका विलय होवे है ताकाभी अभाव है औ जामें मैं तु यह भावनाभी होवै नहीं उसी चिवस्तुको विद्वानने अपना आत्मा निश्चय किया है ।। २४ ॥ (९०) ननु ज्ञानवान् अनेक तरीके व्यवहारकर्ते प्रतीत होवै है,याते तिनके फसकरभी बंधायमान होवेगा? तहां सुनोःदोहा-ज्ञानि करे अनेक कर्म, विधिवत
SR No.007743
Book TitleVicharmala Granth Satik Pustak 1 to 8
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnathdas Sadhu, Govinddas Sadhu
PublisherGujarati Chapkhana
Publication Year1832
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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