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वि०८. आत्मवान् स्थितिवर्णन जग व्यवहार ॥ लिपै नधूमाकाश ज्यों, जान्यो जगत असार ॥२५॥ 'टीका:-ज्ञानवान् यद्यपि देह इंद्रिय मनके धर्म जानकर विधिपूर्वक अनेक यज्ञादि कर्म करे है, औ खान पान लेन देनादिक लौकिक व्यवहार करे है, तथापि जैसे धूमादिकोंकर आकाश मलिन होवै नहीं, तैसे ज्ञानवान् कोंके फलकर बंधायमान होवै नहीं, काहेते जाते सर्व जगतको मिथ्या जान्या हैं ॥२५॥
(९१) अब योगी ज्ञानकी निष्ठा कहे हैं:- . दोहा-जाग्रतमांहि सुषुप्तिसी, मतवारेकी केल॥करे चेष्टा बालज्यो,आत्मसुख रह्यो झेल ॥ २६॥
टीका:-अष्टांग योगके अभ्यासकर उपरतिकी दृढताते विद्वानका जाग्रत व्यवहारमे इष्टानिष्टकी विस्मृति सुषुप्तिके तुल्य होवै है। जो कहो इष्टानिष्टके ज्ञान विना विद्वानका व्यवहार कैसे सिद्ध होवे है ? तहां सुलो:-.