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________________ १६२ विचारमाला. वि०८ जैसे उन्मत्त पुरुष क्रीडा करे है औ वालक जैसे इष्टानिष्टके ज्ञान विना चेष्टा करे है, तद्वत विद्वानभी प्रवते हैं । उन्मत्त औ बालकते विद्वान्का भेद कहे हैं:-विद्धान विरावरण आत्मानंदका अनुभव करे है॥ २६ ॥ (९२) अब विद्वानको इष्टानिष्ट पदार्थकी प्राप्तिसे हर्षशोकका अभाव कहे हैं: सोरठा-स्वप्न राव भयो रंक,प्राणा तजै तहँ क्षुधा वस ॥ जागै वही प्रयंक, कह विस्मय कह हर्ष पुनि ॥२७॥ टीका:-जैसे कोउ राजा,सेजामें शयन करे तहां निद्रामें ऐमा स्वप्न देखे, मैं कंगाल हो, अन्नके अलाभते क्षुधाकर मेरे प्राण जावे हैं तब अदृष्ट बलते जागक देखे मैं राजा हों, सेजापर पड्या हों, तब सो राजा जैसे राज औ कंगालताके लाभते हर्षशोकळू नहीं भजे है; तदत विद्धानबी जान लेना ॥ २७ ॥ - (९३) अब प्रकरणकी समाप्ति करते हुए ग्रंथकार, शिष्यका सिद्धांत कहे हैं:
SR No.007743
Book TitleVicharmala Granth Satik Pustak 1 to 8
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnathdas Sadhu, Govinddas Sadhu
PublisherGujarati Chapkhana
Publication Year1832
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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