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वि०८, आत्मवान् स्थितिवर्णन. १६३ दोहा-आस्तिक नास्तिक नहिं कछ, नहीं तहँ एक न दोय ॥ लघु दीरघ नहिं अगुन गुन, चित्स्वरूप मम सोय ॥२८॥ टीकाः-अर्थ स्पष्ट ॥ २०॥ दोहा-अगह अगोचर एकरस, निरवचनी निरवान ॥ अनाथ नहीं को भूमिका, जापर कथिये ज्ञान ॥ २९ ॥
टीका:-ग्रंथकार उक्ति शिष्य कहे हैं। मेरा स्वरूप कर्म इंद्रियोंकर ग्रहण होवै नहीं, तथा ज्ञान इंद्रियोंका विषय नहीं, इसीते एकरस है औ किसी वचनका विषय नहीं औ जामें सर्व दुखोंका अभाव है ऐसा है।
औ किसी भूमिकाका क्रम होवै तिसमें तो कथन भी संभवै, ज्ञानकी सप्तभूमिकाकी कल्पना तामें नहीं, याते तहां प्रश्न उत्तररूप कथत संभव नहीं ॥ २९॥ _ (९४ अब शिष्यके सिद्धांतको श्रवण करके गुरु शिष्यकी प्रशंसा करे हैं:- श्रीगुरुरुवाच ।