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१६४ . विचारमाला.. वि०४० दोहा-धन धन शिष्य उदार मति, पायो मतो अनूप ॥ सुगुरु खोज लीनो भले,भयो सुशुद्ध स्वरूप॥३०॥
टीका:-ग्रंथकार उक्तिः- सुष्टु गुरुने शिष्यके सिद्धांतमें शंका करके भली प्रकार निश्चय किया जो शिष्यकी ब्रह्मरूपसे स्थिति भई है, तब गुरु कहे हैं:हे शिष्य ! जाते तैने अनूप ब्रह्ममें स्थिति पाई है, ताते तू धन्य कहिये कृतकृत्य है, याहीते उदारबुद्धि है।। ३० ॥
(९५) अब समग्र ग्रंथकर, कहे समग्र अर्थको संग्रह कर दो दोहोंसे कहे हैं:दोहाः-सुनि विचार बहराइ हो, बिसर वाक्य थकि जाय॥ अनाथ विवेकीजानि है,गायब बाजी पाय॥३१॥
टीका:-ग्रंथकार उक्तिः- विवेकी कहिये चतुष्टयसाधनसंपन्न, अधिकारी, जब श्रवण करे औ मनन करे औ श्रवण करे. अर्थमें वृत्तिकी स्थितिरूप निदि