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विचारमाला.
वि० ८०
नको कर्तृत्व अभिमान है नहीं, याते स्वरूप दृष्टिसे न किसीका ग्रहण करे है औ न त्याग करे है, या - ते ताकी प्रवृत्तिही संभव नहीं तो बंधनकी शंका कैसे बने ? ॥ २० ॥
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(८८) ननु कर्तृत्व अभिमान ज्ञानीको काहेते नहीं ? या शंकाके होयां विद्वान की दृष्टिमें कर्ता भोक्ता जीव नहीं, या अर्थको दो दोहोंकर दिखावे हैं:दोहा :- हौं अबोध अनंत गति, परस्यो ? चित्त समीर ॥ बहु कलोल तामें उठें, ना ना रूप शरीरं ॥ २१ ॥ चित्त वात भयो शांत अब, जीव लहरि भइ लीन ॥ केवल रूप अनंद हौं, रह्यो शुभाशुभ हीन ॥ २२ ॥
टीका :- देशपरिच्छेदते रहित समुद्ररूप स्वमहि - मामें स्थित मेरे आत्मामें अघटन घटन पटीयसी मायाकर, चित्तरूप वायुके संबंधसे, देव तिर्यक मनुष्यादि