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ज्ञानसाधन.
वि० ४. सर्प, अपनी गमनादि क्रियाका आश्रय बनै नहीं तैसें; तथापि अज्ञान तो शुद्धचेतनमें अध्यस्त है औ अज्ञान उपहि में अंतःकरण अभ्यस्त है, . अंतःकरण उपहित जीव साक्षीमें सुखदुःखादि अध्यस्त हैं । इस रीतिसे अध्यस्त जो धर्मादिक तिनका अधिष्ठान आत्मा है । अ. ध्यासके अधिष्ठानपनेका अंतःकरण उपाधि है, याते साभास अंतःकरणके धर्म है यह कहा, धर्मादिक अंत:करणके धर्म होवें अथवा अंतःकरणविशिष्ट प्रमाताके धर्म हो अथवा रज्जु सर्प स्वप्नपदार्थोंकी न्याई किसीके धर्म न होवें, सर्व प्रकारसे आत्माके धर्म नहीं; याते विद्वान्कू सुख दुःख आत्मामें प्रतीत होवै नहीं, यह कहा ॥ ३४॥
(६१) ग्रंथ अभ्यासका फल कहे हैं;दोहाः-चली पूतरीलवणुकी,थाह सिंधुको लैन॥अनाथ आप आपैभई, पलटि कहै को बैन ॥३५॥ टीकाः-जैसे कोई पुरुष लवणकी प्रतरीकू रसीसे .