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वि० १.
शिष्यआशंका.
देश, सो जब होंवै तब प्राणी कहिये प्राणधारी जीव, जानै कहिये ब्रह्मको अपना आत्मा जानै है । सो ब्रह्म आत्माका अभेद इस ग्रंथका विषय है। अधिकारी अनुबंध चतुर्थविश्राम मैं कहेंगे, प्रयोजन अनुबंध प्रथम दोहेमैं कहा, इन तीनों के बननेसें संबंध अनुबंध अर्थतें सिद्ध होवै है || २ || इस रीति अनुबंध कहकर अब ग्रंथके रचने की प्रतिज्ञा करे हैं:दोहा - पदवंदन आनंदयुत, करि श्री देव मुरारि ॥ विचारमाल वरनन करूं, मौनी जू उर धारि ॥ ३ ॥
टीका:- मैं अनाथ दास विचारमाला संज्ञक - ग्रंथकूं रचता हूं, क्या करके, आनंद कहिये सुखस्वरूप तिसकरि युत औ श्री कहिये सतस्वरूप तिसकरि युत औ देव कहिये प्रकाशरूप निर्गुण ब्रह्मकूं नमस्कार करके । ननु इ-हां श्रीयुतशब्दका सत्य अर्थ होवै, तो श्रीनाम शोभाका है, तिसवाले आविद्यक पदार्थ सत्य कहे चाहिये? उत्तरः- विद्वानकी दृष्टि मैं अविद्या तत्कार्य सर्व असत है