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वि० ३.
ज्ञानभूमिका.
(२७) अब प्रश्नसैं विना संतोंकी समीपता मात्र से पुरुषोंको बोध हो है यह वार्ता दो दोहोंकर गुरू कहे हैं:- श्रीगुरुरुवाच.
दोहा - कहत संत जे सहजही, बात गीत रुचि बैन ॥ ते तेरे तन दुख हरन, वायक सब सुख दैन ॥ ३
॥
टीका:- हे शिष्य ! संत जो यथारुचि स्वाभाविक परस्पर बात करे हैं: - " कहोजी भोक्ता कोन है ? चि दाभास है जी ! कातें जी ? कर्ता होतें जी" इत्या-दि । औ गीत कहिये :- "सही हूं मैं सच्चित आनंदरूप, अपने कर्म करे सब इंद्रे, हों प्रेरक सबका भूप" इत्यादि पदोंकर कदाचित गायन करे हैं ! औ बैन कहिये शास्त्रोंके वचन कथा के समय उच्चारण करे हैं, औ वायक कहिये तत्त्वमस्यादि महावाक्य शिष्योंप्रति कहे हैं, ते संपूर्ण तेरे हृदय में होनेवाले जो दुःख तिनके हरणेवाले हैं, औ सब सुख कहिये ब्रह्मसुख तत्त्वज्ञानद्वारा ताके देणेवाले हैं ॥ ३ ॥