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विचारमाला.
वि०
४० दोहा-पारसमै अरु संतमैं, बड़ो अंतरो .. जान॥ वह लोहा कंचन करै, यह करे । आपसमान ॥१६॥
टीकाः-हे शिष्य ! पारसमै अरु संतमैं बड़ी विषमता है ऐसे जान तं, काहे वह जो पारस है सो लोहकू कंचन तो करे है परंतु पारस नहीं करसके है औ महात्मा जो हैं सो जैसे आप ब्रह्मरूप हैं तैसें जिज्ञासुकू ब्रह्मरूप करे हैं; यातै पारसतें अधिक हैं ।। १६ ॥
शिष्य कहैं है हे भगवन् ! सत्संगकी प्राप्तिअर्थ जो क्रिया है ताकरभी कछु फल होवै है। नवा ? तहां गुरु कहै हैं:दोहा-विधिवत यज्ञ करत सदा, जे द्विज उत्तम गोतसाधुनिकट चलिजातहीं, सो फल पग पग होत ॥१७॥
टीका:--जौनसे पौलस्त्यादि गोत्रवाले उत्तम द्विज कहिये अष्ट वर्ष पूर्व जिनका यज्ञोपवीतरूप संस्कार .