________________
वि० ८. आत्मवान् स्थितिवर्णन. १४९ अद्वितीय निश्चय है औ अज्ञानियोंके निश्चयको हम नहीं जानते" ॥१०॥
ननु स्वकृत ज्ञानवान्की प्रवृत्ति मत होवो, परंतु परकृत प्रवृत्ति संभव है ? यह आशंका कर उत्तर कहे हैं:दोहा-सेवा बहुत प्रकार पुन, अंग त्रास करे कोय॥ज्ञानी आपनपो लहै, तृप्त कुप्त नहिं होय ॥११॥
टीका:-ननु स्वकृत विद्वान्की प्रवृत्ति मत होवो, परंतु कोऊ श्रद्धालु पुरुष वस्त्र भोजनादिकोंकर विबान्के शरीरकी सेवा करे, पुनः कोऊ निर्दय पुरुष अपने स्वभावके वशते यष्टिकादिकोंके प्रहारते विद्वान्के शरीरमें पीडा करे, तिनके प्रति वर शापके अर्थ प्रवृत्ति संभवे है ? सो शंका बनै नहीं: काहेते जैसे पुरुषका हस्तरूप अवयव, मुखरूप अवयवकी पालना करे है, औ दंतरूप अवयव जिह्वारूप अवयवको काटे तब पुरुष सर्वको अपने अवयव जानके क्रोधादि करे