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११६ विचारमाला. वि० ६. है:-गुरुमुखात तत्त्वमस्यादि महावाक्यके श्रवण कीये उदय भयी जो ब्रह्माकारवृत्ति, ता वृत्तिके उदयमात्रते ही कार्यसहित अविद्या न पूर्व थी, न अब है, न भविव्यत् होगी, यह तिस विद्वान्कू प्रतीत होवै है; या अर्थके साधक दृष्टांतोंकू कहे हैं:- ॥ श्रीगुरुरुवाच ॥ जग मिथ्या दरसावत हैं:दोहा-शीतल जल मृगतृष्णको, गगन कमलकी वास ॥ सुंदर अति वंध्यासुवन, ऐसे जगत प्रकास ॥२॥
टीका:-जैसे वासिष्ठमें मूर्ख बालककी प्रसन्नता : अर्थ धात्रीने भविष्यत् नगरकी कथा श्रवण करवाई
है, तैसे किसीने कहा मरुस्थलका जल अति शीतल है औ आकाशके कमलमें अति सुगंध है औ वंध्याका पुत्र वस्त्रोंभूषणोंके सहित सुंदर स्वरूपवान है। हे शिष्य ! ए पदार्थ जैसे अत्यंत असत भी अर्थाकार प्रतीत होवै हैं तैसे अत्यंत असत् जगत अर्थाकार प्रतीत