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वि० ६. जगन्मिथ्यावर्णन ११७ होवै है ॥२॥ पूर्वोक्त अर्थके साधक दृष्टांतोंको सप्त दोहोंकर कहे हैं:दोहा-ज्यों नभमें कल्पी घनी, पूतरि विविध अनेक ॥ करत युद्ध अतिक्रोधयुत, ऐसो जगत विवेक ॥३॥ अनाथ स्वप्न काहू नहीं, दिसनविष भ्रम होय॥ पूरव तज पश्चिम गयो, तिहि विषाद जग सोय॥४॥ रविकी रश्मि समेटिकेकरी गुंथ रचि माल ॥ पहिरे वंध्याको सुवन, शोभा बनी विशाल ॥५॥ ससे शृंगको धनुष करि, गगनपुरुष लियजाय॥देखि माल लालच लायो, पुन पुन मांगत ताय ॥६॥ वामांगत वह देत नहि, बढ़ी परस्पर रार॥ना कछु भयो न है कछ, ऐसो जगत विचार ॥७॥ गगन