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विचारमाला.
वि०६
११८ सिंधुकी लहरि ले, आन बनायो धाम॥ ऐसे पूरण ब्रह्ममें, देखि जगत अभिराम ॥ ८॥ मृगतृष्णाको नीर लै, सींच्यो नम अंभोज ॥ ता सुगंध आई सरस,आहि जगत यह खोज॥९॥ टीकाः-अर्थ स्पष्ट । भाव यह है:-जैसे आकाशादिकोंमें पुरुषकल्पित पुतली आदि पदार्थ अत्यंत असत हैं, तैसे ब्रह्ममें आकाशादि प्रपंच अत्यंत असत्य है ॥ ३॥ ४॥५॥६॥७॥८॥९॥ __ (७२) अब स्थूणाखनन न्यायकर पूर्वोक्त अर्थके दृढ करनेको, तामें शिष्य शंका करे है,
शिष्य उवाच । . दोहा-जगत जगत सबकोई कहै, अरु पुनि देखिय नैन ॥ सो मिथ्या किहि विध कहो, आरत जन सुखदैन ॥१०॥ टीकाः-हे आरतजनोंकू सुख देनेवाले श्रीगुरो !