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वि० ३.
ज्ञानभूमिका.
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सहित वाणियां न प्राप्त होइकै जातें निवृत्त होवे हैं " यन्मनसा न मनुते " " जिसको मनकरके लोक नहीं जाणते " ॥ १६ ॥
(३८) अब ग्रंथ अभ्यासका फल कहे हैं:सोरठा - प्रगट करी गुरुदेव, सप्तभूमिका ज्ञानकी ॥ अनाथ उहे निज मेव. चित दै करत विचार जो ॥ १७ ॥
टीका :- अनाथदासजी कहे हैं: - गुरुने प्रगट करी जो ज्ञानकी सप्तभूमिका, चित्तको एकाग्रकर जो तिनकों विचारे, सो अपने वास्तव स्वरूपको जान लेवै ॥ १७ ॥ दोहा - तृतीयो माल विचारको, हरन सकल संताप || ज्ञानभूमिका प्रगट कर, भयो शांत अब आप ॥ १८ ॥
इति श्रीविचारमालायां सप्तज्ञानभूमिका वर्णनं नाम तृतीयविश्रामः समाप्तः ॥ ३ ॥