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विचारमाला. जकैवल्य॥आशय परम अगाध अति,
पैठेमनदल मल्य ॥१२॥ टीकाः हे शिष्य! सत्संग सुखका समुद्र है, महात्माका जो आशय कहिये गूढ अभिप्राय है सो तिसमें गं. भीरता है, जीतिया है मन जिनोंने सो पुरुष ऐसे समुद्रमें प्रवेश करके कैवल्य मोक्षरूप मोतीकू पावै हैं ॥ १२॥ .
(१८) अब शिष्य पूछे है: हे गरो! इतने सुख मैने वेदमैं श्रवण करे हैं। समग्र पृथ्वीसुखकी चक्रवर्ती राजामै समाप्ति है, चक्रवर्तीत सौरान अधिक सुख मानव गंधवाँका है, तिनत शतगुणाधिक देव गंधवाँका है, तिनतैं शतगुणाधिक पितृदेवनका है, तिनः शतगुणाधिक सु. ख आजानदेवनका है, तिनः शतरणाधिक कर्मदेवनका है, तिनत शतरण अधिक मुख्य देवनका है, तिनत शतगुण अधिक इंद्रका है, इंद्रत शतरण अधिक देवगुरु बृहस्पतिका है, तिसतै शतरण अधिक प्रजापति (विराट् )का है, प्रजापतित शतगुण अधिक सुख ब्रह्मा (हिरण्यगर्भ) का है, तिनतें अपार मोक्ष सुख है । सत्संगजन्यसुख कि: