________________
१५२ विचारमाला. वि०८. एक है औ उपासक पुरुषको भी ध्ययोकार वृत्तिरूपमजनद्वारा आनंदका लाभ होवै, है, सोभी प्रयत्नसाध्य होनेते सदा रहे नहीं, याते तिन दोनोंको सुख अभाव कालमें जगत सुखरूप प्रतीत होवै नहीं औ जीवन्मुक्त विद्वानको सर्व वासनाके अभावते ब्रह्मानंद निरावरण प्रतीत होवै है, आनंदस्वरूप ब्रह्मको सर्व रूप होनेते विद्वानको सर्व जगत सुखरूप प्रतीत होवे है ॥ १३॥
पूर्व कहे अर्थको पुनः प्रपंचन करे हैं:: दोहा-मुक्त्यादिक इच्छा नहीं, निस्टह .
परम पुमान ॥ आत्मसुख नित तृप्त जे, तिन समान नहिं आन॥१४॥
टीका:-जे महात्मा मुक्तिकी इच्छाते रहित हैं, आदि शब्दकर ज्ञान औ ज्ञानके साधन श्रवणादिकों की इच्छाते रहित हैं, औ निस्पृह कहिये या लोक परलोकके भोगोंकी इच्छाते रहित हैं, जाते आत्मानंदकर नित्य तृप्त हैं; ते सर्वोत्कृष्ट पुरुष हैं। याते आन जे विषयी औ उपासक हैं ते तिनके तुल्य नहीं ॥१४॥