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१२२ विचारमाला. वि०६, को नहीं । इस रीतिसे रज्जु शुक्ति आदिकोंमें सर्प रजतादि, औ तिनके ज्ञान अनिर्वचनीय उत्पन होवै हैं ॥ ११ ॥ १२ ॥
अब दृष्टांतकरि कहे अर्थको दार्टातमें जोड़े हैं:दोहा-पूरण अवय आत्मा, अव्यय अचल अपार ॥ मिथ्याही कल्प्यो घनो, तामें यह संसार ॥१३॥
टीकाः-व्यापक, द्वैतसे रहित, नाशते रहित, क्रि । यासे रहित, देशपरिच्छेदते रहित, जो आत्मा, ताके बोधअर्थ,श्रुतिने तामें यह नानारूप संसार मिथ्या कल्या है। मिथ्याको ही अनिर्वचनीय कहे हैं। या पक्षको अंगीकार कियेसे पूर्वोक्त सर्व शंका निवृत्त होवे हैं; काहेते अनिर्वचनीय जगत्की उत्पत्ति कथन संभव है, यातें उत्पत्तिबोधक वाक्य निष्फल होवै नहीं, तथा अधिष्ठान ज्ञानसे ताकी निवृत्ति भी संभव है, याते निवृत्तिबोधक वाक्य निष्फल होवै नहीं औं अनिर्वचनीय जगतकी