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विचारमाला. वि० ४. है:-॥ श्लोक ॥ " संसारासक्तचित्तः संश्चिदाभासः कदाचन ॥ स्वयंप्रकाशः कूटस्थं स्वतत्त्वं नैव वेत्त्ययम् (१) " "यह चिदाभासरूप जीव विषयसंपादनादि ध्यानरूप जगतमैं आसक्तचित्त हुआ, कदापि स्वतःप्रकाश कूटस्थ स्वस्वरूपकू नहीं जान है”। औधन,दारा, सुत, गृह इनमैंबी आसक्तिका परित्याग कर । जाते ज्ञानके अधिकारीमें आसक्तिका अभाव गीतामैं कहा है:"असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु "1" पुत्र दारा गृहआदिकोंमें प्रीतिका अभाव” औ शब्दादि विषयोंकू विषकी न्याई भीलाए, काहेरौं विषयासक्तिवी ज्ञानमैं प्रतिबंध है । सो अष्टावक्रमें कहा है:-" मुक्तिमिच्छसि । चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज " औ रागद्वेषका सर्वथा. परित्याग कर, काहेत ? भगवानने कहा है- इंद्रियों के शब्दादि विषयोंमें राग द्वेष स्थित हैं, मुमुक्षु तिनके . वश न होवे, काहेत सो इसके परिपंथी है" ॥ ३ ॥ (४१) पूर्व कहा, जो जगत् आदि पदार्थोंमें आसक्तिका त्याग, ताकी सिद्धि अर्थे प्रत्येक पदार्थमैं दूषण दिखावणेकी इच्छावाले हुए, प्रथम स्त्रीमैं दूषण दिखावै हैं: