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विचारमाला.
वि०.८ बहुत परकार ॥ अब सुविचार विचार पुनि, करण न परै विचार ॥ ३७॥
टीकाः-स्वामी अनाथदासजी कहे हैं:-बहुते ग्रंथोंका श्रवण किया औ बहुत प्रकारसे कथन किया, तथापि कृतकृत्यता न भई; अब सुष्ठु तत्त्वविचार; विचारिक बहुत विचार करना परे नहीं ॥३७॥ . (१०० ) अब अपनी नम्रता सूचन करते हुए ग्रंथकार, दो दोहोंकर कवियोंसे प्रार्थना करे हैं,दोहा-क्षमा करो शिष जानके, हे कवि महाप्रबुद्ध ॥ लेहु सुधार विचारके, अक्षरशुद्ध अशुद्ध ॥३८॥ हौं अनाथ केतिक सुमति, वरणो माल विचार ॥ राम मया सत्गुरु दया, साधुसंग निरधार ॥ ३९॥ टीकाः-अर्थ स्पष्ट ॥ ३८ ॥ ३९ ॥