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जैन विविध ग्रंथमाला, पुष्प-३
CAMPARAN
STONE
श्री वीतरागाय नमः परमजैन चन्द्राङ्गज ठक्कर ‘फेरु' विरचित वास्तसार प्रकरण
(हिन्दी भाषान्तर सहित सचित्र)
अनुवादकपण्डित भगवानदास जैन इस प्रन्थ के सर्वाधिकार स्वरक्षित हैं ।
प्रकाशकजैन विविध ग्रंथमाला, जयपुर सिटी
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मुद्रक
के. हमीरमल लूनियाँ, अध्यक्ष–दि डायमण्ड जुबिली प्रेस, अजमेर .
बीर निर्वाण सं० २४६२] विक्रम सं० १९९३ [ ईस्वी सन् १९३६ प्रथमावृत्ति १००० ]
[ मूल्य पांच रुपया
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TRIYAR
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जैन विविध ग्रंथमाला में छपी हुई पुस्तकें
१ मेघमहोदय-वर्षप्रबोध-(महामहोपाध्याय श्री मेघविजय गणी विरचित) वर्ष कैसा होगा, सुकाल पडेगा या दुष्काल, वर्षाद कब और कितनी बरसेगी, अनाज, रुई, कपास, सोना, चांदी श्रादि वस्तुएँ सस्ती रहेंगी या महँगी इत्यादि भावी शुभाशुभ प्रति दिन जानने का यह अपूर्व ग्रंथ है। काशी श्रादि के पञ्चांग कर्ता राज्य ज्योतिषियों ने भी इस ग्रंथ को प्रमाणिक मानकर अपने पञ्चांगों में इस ग्रंथ पर से फलादेश लिख रहे हैं। सम्पूर्ण मूल ग्रंथ ३५०० श्लोक प्रमाण के साथ भाषान्तर भी लिखा गया है, जिसे समस्त जनता इसी से लाभ ले सकती हैं। कीमत चार रुपया।
२ जोइस हीर-मूल प्राकृत गाथा के साथ हिन्दी भाषान्तर छपा है, यह समस्त प्रकार से मुहूर्त देखने के लिये अपूर्व ग्रंथ है। मूल्य पांच श्राना।
३ वास्तुसार-प्रकरण सचित्र-(ठक्कर ‘फेरू' विरचित) मूल और गुजराती भाषान्तर समेत छप रहा है। फक्त तीन मास में बाहर पडेगा । किमत पांच रुपया ।
शीघ्र ही प्रकाशित होने वाले ग्रंथ१ रूपमंडन सचित्र-(सूत्रधार 'मंडन' विरचित) मूल और भाषान्तर समेत । इसमें विष्णु के २५, महादेव के १२, दशावतार, ब्रह्मा, गणपति, गरुड, भैरव, भवानी, दुर्गा, पार्वती प्रादि समस्त हिन्दुओं के तथा जैन देव देवियों के भिन्न २ स्वरूपों का वर्णन चित्रों के साथ अच्छी तरह लिखा गया है।
२प्रासाद मंडन--(सूत्रधार 'मंडन' विरचित)मूल और भाषान्तर समेत । मंदिर सम्बन्धी वर्णन अनेक नकशे के साथ बतलाया है।
३ जैन दर्शन चित्रावली-जयपुर के प्रसिद्ध चित्रकार के हाथ से मनोहर कलम से बने हुए, अष्ट महाप्रातिहार युक्त २४ तीर्थकरों तथा उनके दोनों तरफ शासन देव और देवी के चित्र हैं।
४ गणितसार संग्रह-(कर्ता श्री महावीराचार्य) गणित विषय । ५ त्रैलोक्य प्रकाश-(सर्वज्ञ प्रतिभा श्री हेमप्रभसूरि विरचित) जातक विषय । ६ बेडा जातक-(नरचंदोपाध्याय विरचित) जातक विषय ।
७ भुवन दीपक सटीक-मूलको पनप्रभसूरि और टीकाकार सिंहतिलकसूरि है। इसमें एक प्रश्न कुंडली पर से १४४ प्रश्नों का उत्तर देखा जाता है।
जो महाशय एक रुपया भेजकर स्थाई ग्राहक बनेंगे उनको जैन विविध ग्रंथमाला की हरएकपुस्तक पौनी किमत से मिलेगी।
__प्राप्ति स्थान
पं० भगवानदास जैन संपादक-जैन विविध ग्रंथमाला,
मोतीसिंह भोमिया का रास्ता, जयपुर सिटी (राजपूताना )
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बालब्रह्मचारी प्रातःस्मरणीय-जगत्पूज्य-विशुद्ध चारित्र चूडामणि-तीर्थोद्धारक
तपोगच्छालङ्कार पूज्यपाद-विद्वर्य-श्री-श्री-श्री
दीक्षा सं. १९४९ अषाढ शुक्ल ११.
गणिपद सं. १९६१ मार्गशीर्ष शुक्ल ५
EETNARIAN ARMNARIENARIANTRIANAKITNARINAKHANALNARINA
EHENARITAMINARIENTREATINARENTINENTRALIAANT
जन्म सं. १९३० पोप शुक्ल ११.
पन्यासपद सं १९६२ कारतक वद ११.
Thaha
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ANTIST ANGEP
श्रीमान् आचार्यमहाराजश्री विजयनीतिसूरीश्वरजी ॥
मूरिपद सं. १९७६ मार्गशीर्ष शुक्ल ५. FAARIAARATHAARAARINAHATMENT
फीनीक्ष श्री, वर्क्स, अमदावाद
,
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समर्पण
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श्रीमान् परमपूज्य प्रातःस्मरणीय भाषालब्रह्मचारी गिरिनार आदि तीर्थोद्धारक शासनप्रभाविक
तपागच्छाधिपति जंगमयुगप्रधान जैनाचार्य श्री श्रीश्री १००८ श्री
विजयनीतिसूरीश्वरजी महाराज साहिक
कर कमलों में सादर समर्पण
SN
भवदीय कृपापात्रभगवानदास जैन
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धन्यवाद
श्रीमान् शासनप्रभाविक गिरिनार आदि तीर्थोद्धारक जंगमयुगप्रधान जैनाचार्य श्री विजयनीतिसूरीश्वरजी महाराज, तथा श्रीमान् शान्तमूर्ति विद्वद्वर्य मुनिराज श्री जयंतविजयजी महाराज, एवम् खरतरगच्छीय प्रवर्त्तिनी साध्वी श्रीमती पुण्यश्रीजी महाराज की विदुषी शिष्यरत्ना साध्वी श्रीमती विनयश्रीजी महाराज, उक्त तीनों पूज्यवरों के उपदेश द्वारा अनेक सज्जनों ने प्रथम से ग्राहक होकर मुझे उत्साहित किया है, जिसे यह ग्रंथ प्रकाशित होने का श्रेयः आपको है ।
श्रीमान् शासनसम्राट् जंगमयुगप्रधान जैनाचार्य श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर जैनागम - न्याय - दर्शन - ज्योतिष- शिल्प-शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री विजयोदयसूरीश्वरजी महाराज को शुद्ध करने एवं कहीं २ कठिन अर्थ को समझाने की पूर्ण मदद की है, इसलिये मैं उनका बड़ा आभार मानता हूँ ।
श्रीमान् प्रवर्त्तक श्री कान्तिविजयजी महाराज के विद्वान् प्रशिष्य मुनिराज श्री जसविजय जी महाराज के द्वारा प्राचीन भंडारों से अनेक विषय की हस्त लिखित प्राचीन पुस्तकें नकल करने को प्राप्त हुई हैं एतदर्थ आभार मानता हूँ। मिस्त्री भायशंकर गौरीशंकर सोमपुरा पालीताना वाले से मंदिर सम्बन्धी नकशे एवम् माहिती प्राप्त हुई हैं, तथा जयपुरवाले पं० जीवराज ओंकार- लाल मूर्तिवाले ने कई एक नकशे एवम् सुप्रसिद्ध मुसब्बर बद्रीनारायण जगन्नाथ चित्रकार ने सब देव देवियों आदि के फोटो बना दिये हैं तथा जिन सज्जनों ने प्रथम से प्राहक बनकर मदद की है, उन सब को धन्यवाद देता हूँ ।
अनुवादक
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प्रस्तावना.
मकान, मंदिर और मूर्ति आदि कैसे सुंदर कला पूर्ण बनाये जावें कि जिसको देखकर मन प्रफुल्लित हो जाय और खर्चा भी कम लगे। तथा उनमें रहनेवालों को क्या २ सुख दुःख का अनुभव करना पड़ेगा ? एवं किस प्रकार की मूत्ति से पुन्य पापों के फल की प्राप्ति हो सकती है ? इत्यादि जानने की अभिलाषा प्रायः करके मनुष्यों को हुआ करती है। उन सब को जानने के लिये प्राचीन महर्षियों ने अनेक शिल्प ग्रंथों की रचना करके हमारे पर महान् उपकार किया है । लेकिन उन ग्रंथों की सुलभता न होने से आजकल इसका अभ्यास बहुत कम हो गया है । जिससे हमारी शिल्पकला का ह्रास हो रहा है। सैकड़ों वर्ष पहले शिल्पशास्त्र की दृष्टि से जो इमारते बनी हुई देखने में आती हैं, वे इतनी मजबूत हैं कि हजारों वर्ष हो जाने पर भी आज कल विद्यमान हैं और इतनी सुंदर कलापूर्ण हैं कि उनको देखने के लिये हजारों कोसों से लोग आते हैं और देखकर मुग्ध हो जाते हैं। शिल्पकला का ह्रास होने का कारण मालूम होता है किमुसलमानों के राज्य में जबरदस्ती हिन्दू धर्म से भ्रष्ट करके मुसलमान बनाते थे और सुंदर कला पूर्ण मंदिर व इमारतें जो लाखों रुपये खर्च करके बनायी जाती थी उनका विध्वंस कर डालते थे
और ऐसी सुंदर कला युक्त इमारते बनाने भी न देते थे एवं तोड़ डालने के भय से बनाना भी कम हो गया। इन अत्याचारों से शिल्पशास्त्र के अभ्यास की अधिक आवश्यकता न रही होगी। जिससे कितनेक ग्रंथ दीमक के आहार बन गये और जो मुसलमानों के हाथ आये वे जला दिये गये । जो कुछ गुप्त रूप से रह गये तो उनका जानकार न होने से अभी तक यथार्थ रूप से प्रकट न हो सके । जो पांच सात ग्रंथ छपे हैं, उनसे साधारण जनता को कोई लाभ नहीं पहुँच सकता। क्योंकि वे मूलमात्र होने से जो विद्वान और शिल्पी होगा वही समझ सकता है । तथा हिन्दी भाषान्तर पूर्वक जो 'विश्वकर्मा प्रकाश' आदि छपे हुए हैं। वे केवल शब्दार्थ मात्र है, भाषान्तर करनेवाले महाशय को शिल्प शास्त्र का अनुभव पूर्वक अभ्यास न होने से उनकी परिभाषा को समझ नहीं सका, जिसे शब्दार्थ मात्र लिखा है एवं नकशे भी नहीं दिये गये, तो साधारण जनता कैसे समझ सकती है ? मैंने भी तीन वर्ष पहले इस ग्रंथ का भाषान्तर शब्दार्थ मात्र किया था, उसमें मेरे को कुछ भी अनुभव न होने से समझता नहीं था । बाद विचार हुआ कि इसको अच्छी तरह समझकर एवं अनुभव करके लिखा जाय तो जनता को लाभ पहुँच सकेगा। ऐसा विचार कर तीन वर्ष तक इस विषय के कितनेक ग्रंथों का अध्ययन करके अनुभव भी किया। बाद इस ग्रंथ को सविस्तार खुलासावार लिखकर और नकशे आदि देकर आपके सामने रखने का साहस किया है। हिन्दी भाषा में इस विषय के पारिभाषिक शब्दों की सुलभता न होने से मैंने संस्कृत में ही रखे हैं, जिसे एक देशीय भाषा न होते सार्वत्रिक यही शब्दों का प्रयोग हुआ करे ।
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[१] प्रस्तुतः ग्रंथ के कर्ता करनाल ( देहली) के रहनेवाले जैनधर्मावलम्बी श्रीधंधकुल में उत्पन्न होनेवाले कालिक सेठ के सुपुत्र ठक्कुर 'चंद्र' नामके सेठ के विद्वान् सुपुत्र ठक्कु र ‘फेरु' ने संवत् १३७२ में रचा है, ऐसा इस ग्रंथ की समाप्ति में प्रशस्ति से मालूम होता है । एवं उन्हीं का बनाया हुआ दूसरा "रत्न परीक्षा' नामक ग्रंथ 'जिसमें हीरा, पन्ना, माणक, मोती, लहसनीया, प्रवाल, पुखराज आदि रत्नों की; सोना, चांदी, पीतल, तांबा, जसत, कलइ और लोहा आदि धातुओं की तथा पारा, सिंदुर, दक्षिणावर्त्तशंख, रुद्राक्ष, शालिग्राम, कपूर, कस्तूरी, अम्बर, अगरु, चंदन, कुंकुम इत्याविक की परीक्षा का वर्णन है, उसकी प्रशस्ति में लिखा है कि
सिरिधंधकुल आसी कन्नाणपुरम्मि सिट्टिकालियो। तस्स य ठक्कुर चंदो फेरु तस्सेव अंगरहो ॥ २५ ॥ तेण य रयणपरीक्खा रइया संखेवि ढिल्लियपुरीए । कर'-मुणि-गुण -ससि'-वरिसे अलावदीपस्स रज्जम्मि ॥ २६ ॥ श्रीढिल्लीनगरे वरेण्यधिषणः फेरू इति व्यक्तधी
मूर्द्धन्यो वणिजां जिनेन्द्रवचने वेचारिकग्रामणीः । तेनेयं विहिता हिताय जगतां प्रासादविम्बक्रिया,
रत्नानां विदुषांचमस्कृतिकरी सारा परीक्षा स्फुटम् ॥ २७॥ इससे स्पष्ट मालूम होता है कि फेरू ने देहली में रहकर अलाउद्दीन बादशाह के समय में सम्वत् १३७२ में वास्तुसार और रत्नपरीक्षा ग्रंथ रचे हैं।
इस वास्तुसार प्रकरण ग्रंथ का श्राद्धविधि और आचार प्रदीप आदि प्रन्थों में प्रमाण मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि प्राचीन आचार्यों ने भी इस ग्रन्थ को प्रमाणिक माना है ।
प्रस्तुत ग्रंथ में तीन प्रकरण हैं । प्रथम गृहलक्षण प्रकरण है, उसमें भूमि परीक्षा, शल्यशोधन विधि, खात आदि के मुहूर्त, आय व्यय आदि का ज्ञान, १६ और ६४ जाति के मकानों का स्वरूप, द्वारप्रवेश, वेध जानने का प्रकार ६४, ८१, १०० और ४९ पद के वास्तु चक्र, गृह सम्बम्धी शुभाशुभ फल, मकान बनाने के लिये कैसी लकड़ी वापरना चाहिये, इत्यादि विषयों का सविस्तर वर्णन है । दूसरा बिम्बपरीक्षा नाम का प्रकरण है, उसमें पत्थर की परीक्षा तथा मूर्तियों के अंग विभाग का मान तथा उनको बनाने का प्रकार एवं उनके शुभाशुभ लक्षण हैं। तीसरा प्रासाद प्रकरण है, उसमें मंदिर के प्रत्येक अंग विभाग के मान और उनको बनाने का प्रकार दिया गया है । इन तीनों प्रकरण की कुल २८२ मूल गाथा हैं। उनका सविस्तर भाषान्तर सब सज्जनों के समझ में आ जाय इस प्रकार नकशे आदि बतलाकर स्पष्टतया किया गया है । जो
१ प्रथम पत्र नहीं है यह श्री यशोविजय जैन गुरुकुल के संस्थापक श्री चारित्रविजय जैन ज्ञानमंदिर से मुनि श्री दर्शनविजयजी महाराज द्वारा प्राप्त हुई है।
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[११] विषय इसमें अपूर्ण था, वह मैंने दूसरे ग्रंथ जो इसके योग्य थे, उनमें से ले कर रख दिया है। तथा ग्रंथ को समाप्ति के बाद मैंने परिशिष्ट में वज्रलेप जो प्राचीन समय में दीवाल आदि के ऊपर लेप किया जाता था, जिससे उन मकानों की हजारों वर्ष की स्थिति रहती थी। उसके पीछे जैन धर्म के तीर्थकर देव और उनके शासन देव देवी तथा सोलह विद्यादेवी, नवग्रह, दश दिगपाल इत्यादि का सचित्र स्वरूप मूल ग्रंथ के साथ दिया गया है । तथा अंत में प्रतिष्ठा सम्बन्धी मुहूर्त भी लिख दिया है । इत्यादि विषय लिखकर सर्वाग उपयोगी बना दिया है।
भाषान्तर में निम्न लिखित ग्रंथों से मदद ली है
१ अपराजीत, २ ज्ञानप्रकाश का आयतत्त्वाधिकार, ३ क्षीरार्णव १५अध्ययन, ४ दीपार्णव का जिनप्रासाद अध्ययन, ५ प्रासादमंडन, ६ रूपमंडन, ७ प्रतिमा मान लक्षण, ८ परिमाण मंजरी, ९ मयमतम् १० शिल्परत्र, ११ राजवल्लभ, १२ शिल्पदीपक, १३ समरांगण सूत्रधार, १४ युक्ति कल्पतरु, १५ विश्वकर्म प्रकाश, १६ लघु शिल्प संग्रह, १७ विश्वकर्म विद्या प्रकाश, १८ जिन संहिता, १९ बृहत्संहिता अ० ५२ से ५९, २० सुलभ वास्तु शास्त्र, २१ बृहत् शिल्प शास्त्र, इन शिल्प ग्रन्थों के अतिरिक्त-२२ निर्वाण कलिका, २३ प्रवचन सारोद्धार, २४ आचार दिनकर, २५ विवेक पिलास, २६ प्रतिष्ठा सार, २७ प्रतिष्ठा कल्प, २८ आरंभ सिद्धि, २९ दिन शुद्धि, ३० लन शुद्धि, ३१ मुहूर्त चिन्तामणि, ३२ ज्योतिष रत्नमाला, ३३ नारचंद्र, ३४ त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, ३५ पद्मानंद महाकाव्य चतुर्विंशतिजिनचरित्र, ३६ जोइस हीर, ३९ स्तुति चतुर्विंशतिका स्टीक ( बप्पभट्टी शोभनमुनि और मेरुविजय कृत)। प्रस्तुत ग्रंथ की हस्त लिखित प्रतिर निम्नलिखित ठिकाने से कोपी करने के लिये मिली थी
२ शासनसम्राट् जैनाचार्य श्री विजयनेमिसूरीश्वर ज्ञान भंडार, अहमदाबाद । २ श्वेताम्बर जैन ज्ञान भंडार, जयपुर । १ इतिहास प्रेमी मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराज से प्राप्त । १ मुनि श्री भक्तिविजयजी ज्ञान भंडार, भावनगर से मुनि श्री जसविजयजीमहाराज
द्वारा प्राप्त । १ जयपुर निवासी यतिवर्य पं. श्यामलालजी महाराज से प्राप्त ।
उपरोक्त सातों ही प्रति बहुत शुद्ध न थीं जिससे भाषान्तर करने में बड़ी मुश्किल पड़ी, जिससे कहीं २ गाथा का अर्थ भी छोड़ा गया है विद्वान सुधार कर पढे और मेरे को भूल की सूचना करेंगे तो आगे सुधार कर दिया जायगा ।
मेरी मातृभाषा गुजराती होने से भाषा दोष तो अवश्य ही रह गये होंगे, उनको सजन उपहास न करते हुए सुधार करके पढ़ें। किमधिकं सुझेषु । सं० १९९२ मार्गशीर्ष ।
अनुवादकशुक्ला २ गुरुवार ।
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विषयानुक्रमणिका
पृष्ठांक
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विषय मंगलाचरण द्वार गाथा भूमि परीक्षा वर्णानुकूल भूमि ... दिक साधन चौरस भूमि साधन ... अष्टमांश भूमि साधन भूमि लक्षण फल ... शल्य शोधन विधि ... वत्सचक्र शेषनागचक्र वृषभवारतुचक्र गृहारंभे राशिफल ... गृहारंभे मासफल ... गृहारंभे नक्षत्रफल ... नक्षत्रों की अधोमुखादि संज्ञा शिलास्थापन क्रम ... खातलग्न विचार ... ... गृहपति के वर्णपति ... ... गृह प्रवेश विचार ... ग्रहों की संज्ञा ... राजा आदि के पांच प्रकार के घरों __का मान ... ... चारों वर्षों के गृहमान ... घर के उदय का प्रमाण ... मुख्य घर और अलिंद की पहिचान
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पृष्ठांक | विषय
शाला और अलिंद का प्रमाण ....
गज (हाथ ) का स्वरूप ... २ शिल्पी के योग्य आठ प्रकार के सूत्र
आय का ज्ञान ... २ आठ आय के नाम ... ... ४ | आय पर से द्वार की समझ ... ५ एक आय के ठिकाने दूसरा आय दे
सकते हैं ? ... ... ६ कौन २ ठिकाने कौन २ आय देना ९ घर के नक्षत्र का ज्ञान
घर के राशि का ज्ञान | व्यय का ज्ञान
| अंश का ज्ञान १६ / घर के तारे का ज्ञान
आयादि का अपवाद .... | लेन देन का विचार ... परिभाषा घरों के भेद ...
घरों के नाम | प्रस्तार विधि ...
ध्रुवादि १६ घरों का प्रस्तार ...
ध्रुवादि घरों का फल २५ शांतनादि ६४ द्विशाल घरों के नाम २६ द्विशाल घर के लक्षण ... २७ शान्तनादि ६४ घरों के लक्षण ... २८ सूर्यादि आठ घरों का लक्षण ...
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W
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३
४२
४४
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विषय
घर में कहां २ किस २ का स्थान करना चाहिये
द्वार
शुभाशुभ गृह प्रवेश
घर और दुकान कैसे बनाना
द्वार का प्रमाण
घर की ऊंचाई का फल
नवीन घर का आरम्भ कहां से करना
वेध
...
खूंटी आला आदि का फल घर के दोष
...
सात प्रकार
वेध का परिहार वेध फल वास्तुपुरुष चक्र
वास्तुपद के ४५ देवों के नाम व स्थान
६४ पद के वास्तु का स्वरूप ८१ पद के वास्तु का स्वरूप
१०० पद का वास्तुचक्र
९४. पद का वास्तुचक्र ८१ पद का वास्तुचक्र प्रकारान्तर से द्वार, कोने, स्तंभ, किस प्रकार रखना स्तंभ का नाप
...
घर में कैसे चित्र बनाना चाहिये घर के द्वार के सामने देवों के निवास
का फल
घर के सम्बन्धी गुण दोष घर में कैसी लकड़ी वा परना दूसरे मकान के वास्तुद्रव्य का विचार शयन किस प्रकार करना
घर कहां नहीं बनाना
...
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...
५६
५७
५७
५९
५९
६०
६०
६१
६२
६२
६३
विषय
गौ, बैल और घोड़े बांधने का स्थान
७०
दूसरा विम्बपरीक्षा प्रकरण
मूर्ति का स्वरूप
मूर्ति के पत्थर में दाग का फल
मूर्ति की ऊंचाई का फल
पाषाण और लकड़ी की परीक्षा
७५
७६
७६
७८
ब्रह्मसूत्र का स्वरूप
६८ | परिकर का स्वरूप
६९
७०
बैठी मूर्ति के अंग विभाग
दिगम्बर जिनमूर्त्ति का स्वरूप
६५ मूर्त्ति के अंग विभाग का मान...
६७
...
प्रतिमा के शुभाशुभ लक्षण
फिर संस्कार के योग्य मूर्ति
:
..2
धातु, रत्न, काष्ठ आदि की मूर्ति सम चौरस पद्मासन मूर्ति का स्वरूप ८६
घरमंदिर में पूजने लायक मूर्त्ति प्रतिमा के शुभाशुभ लक्षण ७३ | देवों के शस्त्र रखने का प्रकार
७२
७३
७४
७५
खात की गहराई
कर्मशिला का मान
शिला स्थापन क्रम
प्रासाद के पीठ का मान
पीठ के थरों का मान
पच्चीस प्रकार शिखर ७९ चौबीस जिनप्रासादों का स्वरूप
७९
मूर्ति की ऊंचाई
खडी प्रतिमा के अंग विभाग और मानं ८७
८७
८८
८९
९३
९३
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प्रासाद
तीसरा प्रासाद प्रकरण
...
•
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पृष्ठांक
८०
~ ~ ~ ~ * w w
...
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१०५
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विषय
'प्रासाद की संख्या
प्रासाद का स्वरूप
के अंग
प्रासाद
मंडोवर के १३ थर
नागर जाति के मंडोवर का स्वरूप
मेरु जाति के मंडोवर का स्वरूप सामान्य मंडोवर का स्वरूप अन्य प्रकार से मंडोवर का स्वरूप
प्रसाद का मान
के
जगती का स्वरूप प्रासाद के मंडप का क्रम
मंदिर के तल भाग का नकशा
मंदिर के उदय का नकशा
मंडप का मान
...
११६
प्रासाद
उदय का प्रमाण
११६
भिन्न २ जाति के शिखरों की ऊंचाई ११७
शिखरों की रचना
११८
आमलसार कलश का स्वरूप
११९
शुकनाश का मान
१२०
मंदिर में कैसी लकड़ी वापरना
कनकपुरुष का मान
ध्वजादण्ड का प्रमाण
ध्वजा का मान
द्वार मान
बिम्बमान
प्रतिमा की दृष्टि
देवों का दृष्टि द्वार
देवों का स्थापन क्रम
[१४]
पृष्ठांक
११०
११०
११२
११२
११३
११३
११४
११४
विषय
मंदिर के अनेक जाति के स्तंभ का
नकशा
कलश का स्वरूप
नाली का मान
द्वारशाखा, देहली और शंखावटी का
स्वरूप
चौबीस जिनालय का क्रम
चौबीस जिनालय में प्रतिमा स्थापन
१२१
१२१
१२२
१२४
१२४ चौबीस तीर्थकरों के चिह्न सचित्र
१२५ ऋषभदेव और उनके यक्ष यक्षिणी
१२७ अजितनाथ १२९ संभवनाथ
१३० अभिनंदन
१३०
सुमतिनाथ
क्रम
१४१
बावन जिनालय का क्रम
१४१
बहत्तर जिनालय का क्रम
१४२
शिखर वाले लकड़ी के प्रासाद का फल १४२ गृहमंदिर का वर्णन
१४२
ग्रंथकार प्रशस्ति
१४४
वालेप
बचलेप का गुण
35
"
""
१३४
पद्मप्रभ
१३५
सुपार्श्वजिन १३६ चंद्रप्रभ
१३७ सुविधिजिन
"3
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33
१३७
शीतलजिन ”
स्तंभ का उदयमान
मर्कटी, कलश और स्तंभ का विस्तार १३७ | श्रेयांसजिन
99
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परिशिष्ट
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RRRRRRRR
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पृष्ठांक
35
१३८
१३९
१३९
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१५०
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१५३
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अनंतजिन
"
"
१५६
कुंथुजिन
"
"
१५९
ताराबल ...
विषय
पृष्ठांक | विषय वासुपूज्यजिन और उनके यक्ष यक्षिणी १५४ । प्रहों का मित्रबल ... ... १८० विमलजिन " "
... ... ... १८१ " "
१५५ / ग्रहों का दृष्टिबल
प्रतिष्ठा, शिलान्यास और सूत्रपात के धर्मनाथ " " " "
- नक्षत्र शांतिनाथ
१५७ | प्रतिष्ठाकारक के अशुभ नक्षत्र .... १५७ बिम्बप्रवेश नक्षत्र
१८२ अरनाथ १५८ नक्षत्रों की योनि
१८३ मल्लिजिन १५९ योनिवैर और नक्षत्रों के गण ...
.. १८४ मुनिसुव्रत " "
राशिकूट और उसका परिहार ...
.. १८५ नमिजिन , " " १६० राशियों के स्वामी
.. १८५ नेमिनाथ , " " "
१६१ | नाडीकूट और उसका फल ... १८६ पार्श्वनाथ , " " १६१
१८६ महावीर , , , , १६२ वर्ग बल ....
.. १८७ सोलह विद्यादेवियों का स्वरूप ... १६३ | लेन देन का विचार
.. १८८ जयविजयादि चार महा प्रतिहारी देवियों।
राशि आदि जानने का शतपद चक्र १८९ का स्वरूप ... ... १६८
तीर्थकरों के जन्मनक्षत्र और राशि १९१ दस दिक्पालों का स्वरूप ... १६९ |जिनेश्वर के नक्षत्र आदि जानने का नव ग्रहों का स्वरूप .. ... १७२
चक्र ... ... १९२ क्षेत्रपाल का स्वरूप .... .... रवि और सोमवार को शुभाशुभ योग १९४ माणिभद्र क्षेत्रपाल का स्वरूप ... १७५ मंगल और बुधवार को शुभाशुभ योग १९५ सरस्वती देवी का स्वरूप ... १७५ गुरु और शुक्रवार को शुभाशुभ योग १९६
शनिवार को शुभाशुभ योग ... १९७ प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त
शुभाशुभयोग चक्र ... १९८ संवत्सर, अयन और मास शुद्धि १७६ रवियोग और कुमारयोग ... १९९ तिथिशुद्धि .... ... १७७ राजयोग, स्थिरयोग, वनपातयोग २०० सूर्य और चन्द्र दग्धा तिथि ... १७८ कालमुखी, यमल, त्रिपुष्कर, पंचक प्रतिष्ठा तिथि १७८ __और अबला योग
... २०१ वार शुद्धि
.. १७९ मृत्युयोग प्रहों का उबबल ... ...
१७९ / अशुभ योगों का परिहार ... २०२
... २०२
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विषय
लम विचार होरा द्रेष्काण और नवमांश द्वादशांश और त्रिंशांश षड्वर्ग स्थापना यंत्र प्रह स्थापना जिनदेव प्रतिष्ठा मुहूर्त महादेव प्रतिष्ठा मुहूर्त
[१६] पृष्ठांक विषय
पृष्ठांक २०३ / प्रया, देवी, इंद्र, कार्तिकेय, यक्ष, चंद्र
सूर्य और प्रह प्रतिष्ठा मुहूर्त २११ बलहीन ग्रहों का फल ... २१२ प्रासाद विनाश कारक योग ... २१२ अशुभ ग्रहों का परिहार ... २१२ शुभग्रह की दृष्टि से क्रूर ग्रह का शुभपन ...
... २१३ | सिद्धछाया लग्न
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* श्री वीतरागाय नमः *
परम जैन चन्द्राङ्गज ठक्कुर 'फेरु' विरचितम्
सिरि-वत्थुसार-पयरणं
मंगलाचरण
सयलसुरासुरविंदं दसण'वराणाणुगं पणमिऊणं ।
गेहाइ-वत्थुसारं संखेवणं भणिस्सामि ॥ १ ॥
सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान वाले ऐसे समस्त सुर और असुर के समूह को नमस्कार करके मकान आदि बनाने की विधि को जानने के लिये वास्तुसार नामक ग्रंथ को संक्षेप से में ( ठक्कुर फेरु) कहता हूं ॥१॥ द्वार गाथा
इगवनसयं च गिहे बिंबपरिक्खस्स गाह तेवना।
तह सत्तरिपासाए दुगसय चउहुत्तरा सव्वे ॥२॥
इस वास्तुसार नाम के ग्रंथ में तीन प्रकरण हैं, इनमें प्रथम गृहवास्तु नाम के प्रकरण में एकसौ इक्कावन (१५१), दूसरा बिंब परीक्षा नाम के प्रकरण में तेवन (५३)
, दंशणनाणाणुगं (१)' ऐसा पाठ युक्तिसंगत मालूम होता है। १ बमिजणं।
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२ )
वास्तुसारे
और तीसरा प्रासाद प्रकरण में सत्तर (७०) गाथा हैं। कुल दो सौ चौहुँत्तर (२७४)
गाथा हैं ॥ २ ॥
भूमि परीक्षा
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चवीसंगुलभूमी खणेवि पूरिज्ज पुण विसा गत्ता | तेणेव मट्टियाए हीणाहियसमफला नेया ॥ ३ ॥
मकान आदि बनाने की भूमि में २४ अंगुल गहरा खड्डा खोदकर निकली हुई मिट्टी से फिर उसी खड्डे को पूरे । यदि मिट्टी कम हो जाय, खड्डा पूरा भरे नहीं तो हीन फल, बढ़ जाय तो उत्तम और बराबर हो जाय तो समान फल जानना ॥३॥
हसा भरिय जलेण य चरणस्यं गच्छमाण जा सुसइ । ति-दु-इग अंगुल भूमी हम मज्झम उत्तमा जाण ॥ ४ ॥
अथवा उसी ही २४ अंगुल के खड्डे में बराबर पूर्ण जल भरे, पीछे एक सौ
कदम दूर जाकर और वापिस लौटकर उसी ही जलपूर्ण खड्डे को देखे । यदि खड्डे में तीन अंगुल पानी सूख जाय तो अधम, दो अंगुल सूख जाय तो मध्यम और एक अंगुल पानी सूख जाय तो उत्तम भूमि समझना ॥ ४ ॥
वर्णानुकूल भूमि -
सियविपि रुणखत्तिणि पीयवइसी कसिणसुद्दी । मट्टियवरण माणा भूमी निय निय वराणसुक्खयरी ॥५॥
सफेद वर्ण की भूमि ब्राह्मणों को, लाल वर्ण की भूमि चत्रियों को, पीले वर्ण की भूमि वैश्यों को और काले वर्ण की भूमि शूद्रों को, इस प्रकार अपने २ वर्ण के सदृश रङ्गवाली भूमि सुखकारक होती है ॥ ५ ॥
दिक् साधन -
समभूमि दुकरवित्थरि दुरेह चक्कस्त मज्झि रविसंकं । पढमंतछायगन्भे जमुत्तरा श्रद्धि - उदयत्थं ॥ ६ ॥
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छाय
समतल भूमि पर दो हाथ के विस्तार वाला एक गोल चक्र करना और इस गोल के मध्य केन्द्र में बारह अंगुल का एक शंकु स्थापन करना। पीछे सूर्य के उदयार्द्ध में देखना, जहां शंकु की छाया का अंत्य भाग गोल की परिधि में लगे वहां एक चिह्न करना, इसको पश्चिम दिशा
दिशा साधन यंत्र समझना। पीछे सूर्य के अस्त समय देखना, जहां शंकु की छाया का अंत्य भाग गोल की परिधि में लगे वहां दुसरा चिह्न करना, इसको पूर्व दिशा समझना। पीछे पूर्व और पश्चिम दिशा तक एक सरल रेखा खींचना। इस रेखा तुल्य व्यासार्द्ध मानकर एक पूर्व बिंदु से और दसरा पश्चिम बिंद से ऐसे दो गोल खींचने से पूर्व पश्चिम रेखा पर एक मत्स्याकृति ( मछली की आकृति ) जैसा गोल बनेगा। इसके मध्य बिंदु से एक सीधी रेखा खींची जाय जो गोल के संपात के मध्य भाग में लगे, जहां ऊपर के भाग में स्पर्श करे यह उत्तर दिशा और जहां नीच भाग में स्पर्श करे यह दक्षिण दिशा समझना ॥६॥
टसिप
Trts
छामा
जैसे-'उ ए' गोल का मध्य बिन्दु 'अ' है, इस पर बारह अंगुल का शंकु स्थापन करके सूर्योदय के समय देखा तो शंकु की छाया गोल में 'क' बिन्दु के पास प्रवेश करती हुई मालूम पड़ती है, तो यह 'क' बिन्दु पश्चिम दिशा समझना
और यही छाया मध्याह्न के बाद 'च' बिन्दु के पास गोल से बाहर निकलती मालूम होती है, तो यह 'च' बिन्दु पूर्व दिशा समझना। पीछे 'क' विन्दु से 'च' बिन्दु तक एक सरल रेखा खींचना, यही पूर्वा पर रेखा होती है। यही पूर्वा पर रेखा के
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वास्तुलारे
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बराबर व्यासार्द्ध मान कर एक 'क' बिन्दु से ' च छ ज' और दूसरा 'च' बिन्दु से 'क ख ग गोल किया जाय तो मध्य में मच्छली के आकार का गोल बन जाता है । अब मध्य बिन्दु 'अ' से ऐसी एक लम्बी सरल रेखा खींची जाय, जो मच्छली के आकार वाले गोल के मध्य में होकर दोनों गोल के स्पर्श बिन्दु से बाहर निकले, यही उत्तर दक्षिण रेखा समझना ।
मानलो कि शंकु की छाया तिरछी 'इ' बिन्दु के पास गोल में प्रवेश करती है, तो 'इ' पश्चिम बिन्दु और 'उ' बिन्दु के पास बाहर निकलती है, तो 'उ' पूर्व बिन्दु समझना। पीछे 'इ' विन्दु से 'उ' बिन्दु तक सरल रेखा खींची जाय तो यह पूर्वा पर रेखा होती है। पीछे पूर्ववत् 'अ' मध्य बिन्दु से उत्तर दक्षिण रेखा खींचना। चौरस भूमि साधन
समभूमीति हीए वनॊति पट्टकोण कक्कडए । कूण दुदिसित्तरंगुल मज्झि तिरिय हत्थुचउरंसे ॥७॥ चौरस भूमि साधन यत्र
एक हाथ प्रमाण समतल भूमि पर आठ कोनों वाला त्रिज्या युक्त ऐसा एक गोल बनाओ कि कोने के दोनों तरफ सत्रह २ अंगुल के भुजा वाला एक तिरछा समचोरस हो जाय ॥ ७॥ __यदि एक हाथ के विस्तार वाले गोल में अष्टमांश बनाया जाय तो प्रत्येक भुजा का माप नव अंगुल होगा और चतुर्भुज बनाया जाय तो प्रत्येक भुजा
का माप सत्रह अंगुल होगा। १खसर' इति पाठः।
व्यम्सनाथ
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अष्टमांश भूमि स्थापना -
सम चौरस भूमि की प्रत्येक
दिशा में बारह २ भाग करना, इनमें से पांच भाग मध्य में और साढे तीन २ भाग कोने में रखने से शुद्ध अष्टमांश होता है ॥ ८ ॥
इस प्रकार का अष्टमांश मंदिरों के और राजमहलों के मंडपों में विशेष करके किया जाता है ।
गृह प्रकरणम्
aria for fr दिसे बारस भागाउ भाग पण मज्झे । कुहिं सड़ढ़ तियतिय इय जायइ सुद्ध हंसं ॥ ८ ॥
अष्टमांश भूमि साधन यंत्र
३ध
३
4
अष्टमांश स्थापना
( 2 )
እ
भूमि लक्षण फल
दितिग बीयपसवा चउरंसाऽवम्मिणी' फुट्टा य । अक्कलर भू सुहया पुव्वेसागुत्तरंबुवहा ॥ १॥ म्हणी वाहिकरी ऊसर भूमीह हवड़ रोरकरी | इफुट्टा मिच्चुकरी दुक्खकरी तह य ससल्ला ॥ १० ॥ जो भूमि बोये हुए बीजों को तीन दिन में उगाने वाली, सम चौरस, दीमक रहित, बिना फटी हुई, शल्य रहित और जिसमें पानी का प्रवाह पूर्व ईशान या उत्तर तरफ जाता हो अर्थात् पूर्व ईशान या उत्तर तरफ नीची हो ऐसी भूमि सुख देने वाली
१ या । २ असल्ला ।
३
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पास्तुसार
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है॥६॥ दीमक वाली व्याधि कारक है, खारी भूमि निर्धन कारक है, बहुत फटी हुई भूमि मृत्यु करने वाली और शल्य वाली भूमि दुःख करने वाली है ॥ १०॥ समरांगणसूत्रधार में प्रशस्त भूमि का लक्षण इस प्रकार कहा है कि
"धर्मागमे हिमस्पर्शा या स्यादुष्णा हिमागमे ।
प्रावृष्युष्णा हिमस्पर्शा सा प्रशस्ता वसुन्धरा ॥" ग्रीष्म ऋतु में ठंढी, ठंढी ऋतु में गरम और चौमासे में गरम और ठंढी जो भूमि रहती हो वह प्रशंसनीय है।
बृहत्संहिता में कहा है कि"शस्तौषधिद्रुमलता मधुरा सुगंधा,
* स्निग्धा समा न सुषिरा च मही नराणाम् । अप्यध्वनि श्रमविनोदमुपागताना,
धत्ते श्रियं किमुत शास्वतमन्दिरेषु ॥" जो भूमि अनेक प्रकार के प्रशंसनीय औषधि वृक्ष और लताओं से सुशोभित हो तथा मधुर स्वाद वाली, अच्छी सुगन्ध वाली, चिकनी, बिना खड़े वाली हो ऐसी भूमि मार्ग में परिश्रम को शांत करने वाले मनुष्यों को आनन्द देती है ऐसी भूमि पर अच्छा मकान बनवाकर क्यों न रहे । वास्तुशास्त्र में कहा है कि
"मनसश्चक्षुषोर्यत्र सन्तोषो जायते भूवि ।
तस्यां कार्य गृहं सर्वै-रिति गर्गादिसम्मतम् ॥" जिस भूमि के पर मन और आंख का सन्तोष हो अर्थात् जिस भूमि को देखने से उत्साह बढ़े उस भूमि पर घर करना ऐसा गर्ग आदि ऋषियों का मत है । शल्य सोधन विधि
बकचतएहसपज्जा इय नव वराणा कमेण लिहियव्वा । पुवाइदिसासु तहा भूमि काऊण नव भाए ॥११॥
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गृह प्रकरणम्
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अहिमंतिऊण खडियं विहिपुव्वं कन्नाया करे दानो ।
आणाविजइ पगहं परहा इम अक्खरे सल्लं ॥ १२॥
जिस भूमि पर मकान आदि बनवाना हो, उसी भूमि में समान नव भाग करें। इन नव मागों में पूर्वादि आठ दिशा और एक मध्य में 'ब क च त ए ह स प और ( जय ) ऐसे नव अचर क्रम से लिखें ॥ ११ ॥
शल्य शोधन यंत्र पीछे 'ॐहीं श्रींएँ नमो वाग्वादिनि मम प्रश्ने अवतर २' __ इसी मंत्र से खड़ी (सफेद मट्टी) मंत्र करके कन्या के | ईशान | पूर्व | अग्नि | हाथ में देकर कोई प्रश्नाक्षर लिखवाना या बोलवाना। जो ऊपर कहे हुए नव अक्षरों में से कोई एक अक्षर लिखे | उत्तर मध्य | दक्षिण या बोले तो उसी अक्षर वाले भाग में शल्य है ऐसा समझना । यदि उपरोक्त नव अक्षरों में से कोई अक्षर प्रश्न | वायव्य | पश्चिम | नैर्ऋत्य | में न आवे तो शल्य रहित भूमि जानना ॥ १२॥
बप्पराहे नरसल्लं सड्ढकरे मिच्चुकारगं पुवे । कप्पराहे खरसल्लं अग्गीए दुकरि निवदंडं ॥१३॥
यदि प्रश्नाक्षर 'ब' आवे तो पूर्व दिशा में घर की भूमि में डेढ़ हाथ नीचे नर शल्य अर्थात् मनुष्य के हाड़ आदि है, यह घर धणी को मरण कारक है। प्रश्नाचर में 'क' आवे तो अग्नि कोण में भूमि के भीतर दो हाथ नीचे गधे की हड्डी आदि हैं, यह घर की भूमि में रह जाय तो राज दंड होता है अर्थात् राजा से भय रहे ॥१३॥
जामे चप्पराहेणं नरसल्लं कडितलम्मि मिच्चुकरं । तप्पण्हे निरईए सड्ढकरे साणुसल्लु सिसुहाणी ॥१४॥
जो प्रश्नाक्षर में 'च' आवे तो दक्षिण दिशा में गृह भूमि में कटी बराबर नीचे मनुष्य का शन्य है, यह गृहस्वामी को मृत्यु कारक है। प्रश्नावर में 'त' भावे
। ।
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वास्तुसारे
तो नैऋत्य कोण में भूमि में डेढ़ हाथ नीचे कुत्ते का शल्य है यह बालक को हानि कारक है अर्थात् गृहस्वामी को सन्तान का सुख न रहे ॥ १४ ॥
पच्छिमदिसि एपराहे सिसुसलं करदुगम्मि परएसं । वायवि हपरिह चउकरि अंगारा मित्तनासयरा ॥१५॥
प्रश्नाक्षर में यदि 'ए' आवे तो पश्चिम दिशा में भूमि में दो हाथ के नीचे बालक का शल्य जानना, इसी से गृहस्वामी परदेश रहे अर्थात् इसी घर में निवास नहीं कर सकता। प्रश्नाक्षर में 'ह' आवे तो वायव्य कोण में भूमि में चार हाथ नीचे अङ्गारे ( कोयले ) हैं, यह मित्र ( सम्बन्धी ) मनुष्य को नाश कारक है ॥ १६ ॥
उत्तरदिसि सप्पराहे दियवरसल्लं कडिम्मि रोरकरं । पप्पगहे गोसल्लं सड्ढकरे धणविणासमीसाणे ॥ १६ ॥
प्रश्नाक्षर में यदि 'स' आवे तो उत्तर दिशा में भूमि के भीतर कमर बराबर नीचे ब्राह्मण का शल्य जानना, यह रह जाय तो गृहस्वामी को दरिद्र करता है । यदि प्रश्नाक्षर में 'प' आवे तो ईशान कोण में डेढ़ हाथ नीचे गौ का शल्य जानना, यह गृहपति के धन का नाश कारक है ॥ १६ ॥
जप्पण्हे मज्झगिहे अइच्छार-कवाल-केस बहुसल्ला । वच्छच्छलप्पमाणा पाएण य हुँति मिच्चुकरा ॥१७॥
प्रश्नाक्षर में यदि 'ज' आवे तो भूमि के मध्य भाग में छाती बराबर नीचे अतिक्षार, कपाल, केश आदि बहुत शल्य जानना ये घर के मालिक को मृत्युकारक
इअ एवमाइ अनिवि जे पुवगयाइं हुंति सल्लाई । ते सव्वेवि य सोहिवि वच्छबले कीरए गेहं ॥ १८॥ .
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(१०)
पास्तुसारे
उपन
५ | १० | १५ |३०|१५ १०५ कन्या कन्या कन्याला शिकशिक वृधिका
.
घरया प्रासादकरनेकी
भूमि
उत्तर
दक्षिण
घर की भूमि का प्रत्येक दिशा में सात २ भाग समान कीजे, इनमें क्रम से प्रथम मागमें पांच दिन, दूसरे में दश, तीसरे में पंद्रह, चौथे में तीस, पांचवें में वत्स चक्र
पंद्रह, हट्टे में दश और सातवें भाग में पांच दिन वत्स रहता है। इसी प्रकार दिन संख्या चारों ही दिशा में समझ लेना चाहिये और जिस अंक पर वत्स का शिर हो उसी के सामने का बराबर अंक पर वत्स की पूंछ रहती है इस प्रकार वत्स की स्थिति है।२०॥
पूर्व दिशा में खात आदि RA
का कार्य करना है उसमें यदि सूर्य कन्या राशि का हो तो प्रथम पांच दिन तक प्रथम भाग में ही खात
आदि न करे, किन्तु और जगह अच्छा मुहूर्त देखकर कर सकते हैं। उसके आगे दश दिन तक दूसरे भाम को छोड़कर अन्य जगह उक्त कार्य कर सकते हैं। उसके आगे का पंद्रह दिन तीसरे भाग को छोड़कर काम करे। यदि तुला राशि का सूर्य हो तो पूरे तीस दिन मध्य भाग में द्वार आदि का शुभ काम नहीं करे। वृश्चिक राशि के सूर्य का प्रथम पंद्रह दिन पांचवां भाग को, आगे का दश दिन छहा भाग को और अन्तिम पांच दिन सातवां भाग को छोड़कर अन्य जगह कार्य कर सकते हैं। इसी प्रकार चारों ही दिशा के भाग की दिन संख्या समझ लेना चाहिये।
थुन निघुन मधुन
१५ धनधन मकर ऊंभाऊंभ
३०१५-१६
वत्सफल
अग्गिमयो पाउहरो धणक्खयं कुणइ पच्छिमो वच्छो । वामो य दाहिणो विय सुहावहो हवइ नायव्वो ॥ २१ ॥
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गृह प्रकरणम्
. सम्मुख वत्स हो तो आयुष्य का नाशकारक है, पश्चिम ( पछिाड़ी) वत्स हो तो धन का क्षय करता है, बांयी ओर या दाहिनी ओर वत्स हो तो सुखकारक जानना ॥ २१ ॥
प्रथम खात करने के समय शेषनाग चक्र ( राहुचक्र ) को देखते हैं, उसको भी प्रसंगोपात लिखता हूं। इसको विश्वकर्मा ने इस प्रकार बतलाया है
"ईशानतः सर्पति कालसर्पो, विहाय सृष्टि गणयेद् विदिक्षु ।।
शेषस्य वास्तोर्मुखमध्यपुच्छ, त्रयं परित्यज्य खनेच्च तुर्यम् ।। -- प्रथम ईशान कोण से शेषनाग ( राहु ) चलता है । *सृष्टि मार्ग को छोड़ कर विपरीत विदिशा में उसका मुख, मध्य ( नाभि ) और पूंछ रहता है अर्थात् ईशान कोण में नाग का मुख, वायव्य कोण में मध्य भाग (पेट ) और नैर्ऋत्य कोण में पूंछ रहता है । इन तीनों कोण को छोड़कर चौथा अग्नि कोण जो खाली है, इसमें प्रथम खात करना चाहिये । मुख नाभि और पूंछ के स्थान पर खात करे तो हानिकारक है, दैवज्ञवल्लभ ग्रन्थ में कहा है कि
"शिरः खनेद् मातृस्तिन् निहन्यात् , खनेच्च नाभौ भयोगपीड़ाः । पुच्छ खनेत् स्त्रीशुभगोत्रहानिः स्त्रीपुत्ररत्नान्नवसनि शून्ये ॥"
* राजवल्लभ में अन्य प्रकार से कहा है
"कन्यादौ रवितस्त्रये फणमुखं पूर्वादिसृष्टिकमात् ।" अर्थात् सूर्य कन्या श्रादि तीन राशियों में हो तब शेषनाग का मुख पूर्व दिशा में रहता है। बाद सृष्टि क्रम से धन आदि तीन राशियों में दक्षिण में, मीन बाद तीन राशियों में पश्चिम में और मिथुन आदि तीन राशियों में उत्तर में नाग का मुख रहता है।
"पुर्वास्येऽनिलखातनं यममुखे खात शिवे कारयेत् ।
शीर्षे पश्चिमगे च वह्निखननं सौम्ये खनेदू नैर्यते ॥" अर्थात् नाग का मुख पूर्व दिशा में हो तब वायुकोण में खात करना, दक्षिण में मुख हो तब ईशान कोण मे खात करना, पश्चिम में मुख हो तब अग्नि कोण में खात करना और उत्तर में मुख हो तब नैर्ऋत्य कोण में खात करना।
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( १२)
वास्तुसारे
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यदि प्रथम खात मस्तक पर करे तो माता पिता का विनाश, मध्य भाग नाभि के स्थान पर करे तो राजा आदि का भय और अनेक प्रकार के रोग आदि की पीड़ा हो । पूंछ के स्थान पर खात करे तो स्त्री, सौभाग्य और वंश (पुत्रादि ) की हानि हो और खाली स्थान पर करे तो स्त्री पुत्र रत्न अन्न और द्रव्य की प्राप्ति हो ।
यह शेष नाग चक्र बनाने की रीति इस प्रकार है-मकान आदि बनाने की भूमि के ऊपर बराबर समचौरस आठ आठ कोठे प्रत्येक दिशा में बनावे अर्थात् क्षेत्र
शेवनाचक
सो
मा
म
श
र
सो
दक्षण
उत्तर
र
सो
|स
चायच्य
पश्चिम
फल ६४ कोठे बनावे । पीछे प्रत्येक कोठे में रविवार आदि वार लिखे। और अंतिम कोठे में आद्य कोठे का वार लिखे । पीछे इनमें इस प्रकार नाग की आकृति बनावे कि शनिवार और मंगलवार के प्रत्येक कोठे में स्पर्श करती हुई मालूम पड़े, जहां २
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गृह प्रकरणम्
नाग की आकृति मालूम पड़े अर्थात् जहाँ २ शनि मंगलवार के कोठे हों वहां खात आदि न करे। नाग के मुख को जानने के लिये मुहूर्त्तचिन्तामणि में इस प्रकार कहा है कि
"देवालये गेहविधौ जलाशये, राहोर्मुखं शंभुदिशो विलोमतः । मीनार्कसिंहामृगार्कतस्त्रिमे, खाते मुखात् पृष्ठविदिक् शुभा भवेत् ॥"
देवालय के प्रारम्भ में राहु ( नाग ) का मुख, मीन मेष और वृषभ राशि के सूर्य में ईशान कोण में, मिथुन कर्क और सिंह राशि के सूर्य में वायव्य कोण में, कन्या तुला और वृश्चिक राशि के सूर्य में नैर्ऋत्य कोण में, धन मकर और कुंभ राशि के सूर्य में आग्नेय दिशा में रहता है ।
___ घर के प्रारम्भ में राहु ( नाग ) का मुख, सिंह कन्या और तुला राशि के सूर्य में ईशान कोण में, वृश्चिक धन और मकर राशि के सूर्य में वायव्य कोण में, ऊंभ मीन और मेष के सूर्य में नैर्ऋत्य कोण में, वृष मिथुन और कर्क राशि के सूर्य में अग्नि कोण में रहता है।
कुआं वावड़ी तलाब आदि जलाशय के आरम्भ में राहु का मुख, मकर कुम्भ और मीन के सूर्य में ईशान कोण में, मेष वृष और मिथुन के सूर्य में वायव्य कोण में, कर्क सिंह और कन्या के सूर्य में नैऋत्य कोण में, तुला वृश्चिक और धन के सूर्य में अग्नि कोण में रहता है।
मुख के पिछले भाग में खात करना । मुख ईशान कोण में हो तब उसका पिछला कोण अनि कोण में प्रथम खात करना चाहिये । यदि मुख वायव्य कोण में हो तो खात ईशान कोण में, नैऋत्य कोण में मुख हो तो खात वायव्य कोण में और मुख अग्नि कोण में हो तो खात नैऋत्य कोण में करना चाहिये। हीरकलश मुनि ने कहा है कि
"वसहाइ गिणिय वेई चेइअमिणाई गेहसिंहाई ।
जलमयर दुग्गि कन्ना कम्मेण ईसानकुणलियं ॥ विवाह आदि में जो वेदी बनाई जाती है उसके प्रारम्भ में वृषभ आदि,
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(१५)
वास्तुसारे
चैत्य ( देवालय) के प्रारम्भ में मीन आदि, गृहारंभ में सिंह आदि, जलाशय में भकर प्रादि और किला (गढ़ ) के आरम्भ में कन्या आदि तीन २ संक्रांतियों में राहु का मुख ईशान आदि विदिशा में विलोम क्रम से रहता है ।
शेष नाग (राहु ) मुख जानने का यंत्र
ईशान कोण वायव्य कोण नैर्ऋत्य कोण
अग्निकोण
देवालय
मीन, मेष, वृष, मिथुन, कर्क, के सूर्य में राहु सिंह के सूर्य में मुख
राहु मुख
कन्या, तुला, | धन, मकर, कुंभ वृश्चिक के सूर्य | के सूर्य में राहु में राहु मुख मुख
घर
सिंह, कन्या, ... वृश्चिक, धन, कुम्भ मीन. मेष | वृष, मिथुन, कर्क तुला के सूर्य में | मकर के सूर्य में | के सूर्य में राहु के सर्य में राहु राहु मुख राहु मुख मुख
मुख
जलाशय
मकर, कुम्भ,... | मेष, वृष, मिथुन कर्क सिंह, कन्या तुला, वृश्चिक मीन के सूर्य में | के सूर्य में राहु के सूर्य में राहु धन, के सूर्य में राहु मुख
राहु मुख
मुख
मुख
वृष, मिथुन, कर्क सिंह. कन्या,.. के सूर्य में राहु | तुला के सूर्य में मुख
राहु मुख
वृश्चिक, धन, कुम्भ, मीन, मेष मकर के सूर्य में के सूर्य में राहु राहु मुख मुख
किला
कन्या, तुला, .
धन, मकर, कुंभ मीन. मेष, वृष | मिथुन, कर्क, वृश्चिक के सूर्य | के सूर्य में राहु | के सूर्य में राहु | सिंह के सूर्य में मैं राहु मुख मुख मुख
राहु मुख
गृहारंभ में वृषम वास्तु चक्र
"गेहाघारंमेऽर्कभावत्सशीर्षे, रामैहो वेदभिरग्रपादे ।। शून्यं वेदैः पृष्ठपादे स्थिरस्व, रामैः पृष्ठे श्रीगैर्दचकुक्षौ ॥ १ ॥
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বু সঙ্কম
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नक्षत्र
लामो गमैःपुच्छगैःस्वामिनाशो, वेद::स्व्यं वामकुक्षौ मुखस्यैः । रामैःगडा संततं चाकधिष्ण्या-दश्वैरुद्रर्दिग्भिरुक्तं ह्यसत्सत् ॥ २॥"
गृह और प्रासाद आदि के आरम्भ में वृषवास्तु चक्र देखना चाहिये । जिस नक्षत्र पर सूर्य हो उस नक्षत्र से चन्द्रमा के नक्षत्र तक गिनती करना। प्रथम तीन नक्षत्र वृषभ के शिर पर समझना, इन नक्षत्रों में गृहादिक का आरम्भ करे तो अग्नि का उपद्रव हो। इनके आगे चार नक्षत्र वृषभ के अगले पॉव पर, इन में प्रारम्भ करे तो मनुष्यों का वास न रहे, शून्य रहे । वृष वास्तु चक्रइनके आगे चार नक्षत्र पिछले पाँव पर, इनमें
आग्भ करे तो गृह स्वामी का स्थिर वास रहे । स्थान इनके आगे तीन नक्षत्र पीठ भाग पर, इनमें मस्तके
अग्निदाह प्रारंभ करे तो लक्ष्मी की प्राप्ति हो। इनके
अ. पादे
शून्यता आगे चार नक्षत्र दक्षिण कोख (पेट) पर, इनमें आरम्भ करे तो अनेक प्रकार का लाभ और पृ. पादे
स्थिरता शुभ हो । इनके आगे तीन नक्षत्र पूंछ पर,
लक्ष्मी प्राप्ति इनमें प्रारम्भ करे तो स्वामी का विनाश हो,
द. कुक्षौ ४ लाभ इनके आगे चार नक्षत्र बांयी कोख (पेट ) पर, इनमें आरम्भ करे तो गृह स्वामी को दरिद्र
| पुच्छे । ३ स्वामिनाश बनावे । इनके आगे तीन नक्षत्र मुख पर, इनमें | वा. कुक्षौ | ४ | निर्धनता प्रारम्भ करे तो निरन्तर कष्ट रहे । सामान्य रूप से कहा है कि सूर्य नक्षत्र से चन्द्रमा के नक्षत्र ।
मुखे । ३ पीड़ा तक गिनना, इनमें प्रथम सात नक्षत्र अशुभ हैं, इनके आगे ग्यारह अर्थात् आठ से अठारह तक शुभ हैं और इनके आगे दश अर्थात् उन्नीस से अट्ठाइस तक के नक्षत्र अशुभ हैं । गृहारंभे राशिफल
धनमीणमिहुणकराणा संकंतीए न कीरए गेहं । तुलविच्छियमेसविसे पुवावर सेस-सेस दिसे ॥२२॥
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। १६ )
वास्तुलारे
धन मीन मिथुन और कन्या इन गशियों के पर सूर्य हो तब घर का आरंभ नहीं करना चाहिए। तुला वृश्चिक मेष और वृष इन चार राशियों में से किसी भी राशि का सूर्य हो तब पूर्व और पश्चिम दिशा के द्वारवाला घर न बनवावे, किन्तु दक्षिण या उत्तर दिशा के द्वारवाले घर का प्रारम्भ करे। तथा बाकी की राशियों (कर्क, सिंह, मकर और कुंभ) के पर सूर्य हो तब दक्षिण और उत्तर दिशा के द्वार वाला घर न बनावें, किन्तु पूर्व और पश्चिम दिशा के द्वार वाले घर का प्रारम्भ करें ।।२२॥
नारद मुनि ने बारह राशियों का फल इस प्रकार कहा है -
"गृहसंस्थापनं सूर्ये मेषस्थे शुभदं भवेत् । वृषस्थे धनवृद्धिः स्याद् मिथुने मरणं ध्रवम् ।। कर्कटे शुभदं प्रोक्तं सिंहे भृत्यविवर्द्धनम् । कन्या रोगं तुला सौख्यं वृश्चिके धनवर्द्धनम् ॥ कार्मुके तु महाहानि-मकरे स्याद् धनागमः । कुंभे तु रत्नलामः स्याद् मीने समभयावहम् ॥
घर की स्थापना यदि मेष गशि के सूर्य में करे तो शुभदायक है, वृष राशि के सूर्य में धन वृद्धि कारक है, मिथुन के सूर्य में निश्चय से मृत्यु कारक है, कर्क के सूर्य में शुषदायक कहा है, सिंह के सूर्य में सेवक-नौकरों की वृद्धि कारक, कन्या के सूर्य में गंगकारक, तुला के सूर्य में सुखकारक, वृश्चिक के सूर्य में धन वृद्धिकारक, धन के सूर्य में महाहानिकारक, मकर के सूर्य में धन की प्राप्ति कारक, कुंभ के सूर्य में रत्न का लाभ, और मान के सूर्य भयदायक है।
गृहारम्भे मास फल
सोय-धगा-मिच्चु-हाणि अत्यं सुन्नं च कलह-उव्वसियं । पूया-संपय-अग्गी सुहं च चित्ताइमासफलं ॥२३॥
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गृह प्रकरणम्
घर का प्रारम्भ चैत्र मास में करे तो शोक, वैशाख में धन प्राप्ति, ज्येष्ठ में मृत्यु, आषाढ़ में हानि, श्रावण में अर्थ प्राप्ति, भाद्रपद में गृह शून्य, आश्विन में कलह, कार्तिक में उजाड़, मागसिर में पूजा-सन्मान, पौष में सम्पदा प्राप्ति, माघ में अग्नि भय और फाल्गुन में किया जाय तो सुखदायक है ॥२३॥ हीरकलश मुनि ने कहा है कि
"कत्तिय-माह-भद्दवे चित्त प्रासो य जिठ्ठ आसाढे ।
गिहारम्भ न कीरइ अवरे कल्लाणमंगलं ॥" -- कार्तिक, माघ, भाद्रपद, चैत्र, आसोज, जेठ और आषाढ़ इन सात महिनों में नवीन घर का आरम्भ न करे और बाकी के-मार्गशिर, पौष, फाल्गुण, वैशाख और श्रावण इन पांच महीनों में घर का प्रारम्भ करना मंगल-दायक है।
वसाहे मग्गसिरे सावणि फग्गुणि मयंतरे पोसे । सियपक्खे सुहदिवसे कए गिहे हवइ सुहरिद्धी ॥२४॥
वैशाख, मार्गशिर, श्रावण, फाल्गुण और मतान्तर से पौष भी इन पांच महीनों में शुक्ल पक्ष और अच्छे दिनों में घर का आरम्भ करे तो सुख और ऋद्धि की प्राप्ति होती है ।। २४ ॥ पीयूषधारा टीका में जगन्मोहन का कहना है कि
“पाषाणेष्टयादिगेहादि निंद्यमासे न कारयेत् ।
तणदारुगृहारंभे . मासदोषो न विद्यते ॥" पत्थर ईट आदि के मकान आदि को निंदनीय मास में नहीं करना चाहिये। किन्तु घास लकड़ी आदि के मकान बनाने में मास आदि का दोष नहीं है ।
मुहूर्तचिन्तामणि में लिखा है कि-चैत्र में मेष, ज्येष्ठ में वृषभ, आषाढ में कर्क, भादवे में सिंह, प्राचिन में तुला, कार्तिक में वृश्चिक, पौष में मकर और माघ में मकर या कुंभ का सूर्य हो तब पर कामारंभ करना अच्छा माना है।
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वास्तुसारे
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रहारम्मे नक्षत्र फल
सुहलग्गे चंदबले खणिज्ज नीमीउ होमुहे रिक्खे । उड्ढमुहे नक्खत्ते चिणिज्ज सुहलग्गि चंदबले ॥२५॥
शुम लग्न और चंद्रमा का बल देख कर अधोमुख नक्षत्रों में खात मुहूर्त करना तथा शुभ लग्न और चंद्रमा बलवान देखकर ऊध्वे संज्ञक नक्षत्रों में शिक्षा का रोपण करना चाहिये ॥२५॥ पीयूषधारा टीका में माण्डव्य ऋषि ने कहा है कि
"अधोमुखैर्विदधीत खातं, शिलास्तथा चोर्ध्वमुखैश्च पट्टम् । तिर्यरमुखैरिकपाटयानं, गृहप्रवेशो मृदुभिर्धवः ॥"
अधोमुख नक्षत्रों में खात करना, ऊर्ध्वमुख नक्षत्रों में शिक्षा तथा पाटड़ा का स्थापन करना, तिर्यमुख नक्षत्रों में द्वार, कपाट, सवारी ( वाहन ) बनवाना तया मृदुसंज्ञक ( मृगशिर, रेवती, चित्रा और अनुराधा ) तथा धवसंज्ञक ( उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा और रोहिणी ) नक्षत्रों में घर में प्रवेश करना । अपनों की अधोमुखादि संज्ञा
सवण-इ-पुस्सु-रोहिणि तिउत्तरा-सय-धणि उड्ढमुहा । - भरणिऽसलेस-तिपुब्वा मू-म-वि-कित्ती अहोवयणा ॥२६॥
श्रवण, मार्दा, पुष्य, रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, शमिता और धनिष्ठा ये नक्षत्र ऊर्ध्वमुख संज्ञक हैं । भरणी, आश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी पूर्वापाडा, पूर्वाभाद्रपदा, मूल, मघा, विशाखा और कृतिका ये नक्षत्र अधोमुख संबक ॥ २६ ॥ मारंमसिदि ग्रंथ के अनुसार नक्षत्रों की अधोमुखादि संज्ञा
"अधोमुखानि पूर्वाः स्युर्मूलाश्लेषामघास्तथा । मरणीकृत्तिकाराधाः सिद्धयै खातादिकर्मणाम् ॥
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गृह प्रकरणम्
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तिर्यस्मुखानि चादित्यं मैत्र ज्येष्ठा करत्रयम् । अश्विनी चान्द्रपौष्णानि कृषियात्रादिसिद्धये ॥ ऊर्ध्वास्यास्त्र्युत्तराः पुष्यो रोहिणी श्रवणत्रयम् ।
आर्द्रा च स्युजछत्राभिषेकतरुकर्मसु ॥" पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा, मूल, आश्लेषा, मघा, भरणी, कृत्तिका और विशाखा ये नव अधोमुख संज्ञक नक्षत्र खात आदि कार्य की सिद्धि के लिये हैं।
पुनर्वसु, अनुराधा, ज्येष्ठा, हस्त, चित्रा, स्वाति, अश्विनी, मृगशिर और रेवती ये नव तिर्यक्मुख संज्ञक नक्षत्र खेती यात्रा आदि की सिद्धि के लिये हैं।
। उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, पुष्य, रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा और आद्रा ये नव ऊर्ध्वमुख संज्ञक नक्षत्र ध्वजा छत्र राज्याभिषेक और वृक्ष-रोपन आदि कार्य के लिये शुभ हैं। नक्षत्रों के शुभाशुभ योग मुहूर्त चिन्तामणि में कहा है कि
"पुष्यध्रुवेन्दुहरिसर्पजलैः सजीवै--स्तद्वासरेण च कृतं सुतराज्यदं स्यात् । द्वीशाश्वितक्षिवसुपाशिशिवैः सशुक्र-वारे सितस्य च गृहं धनधान्यदं स्यात् ॥"
पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी, मृगशिरा, श्रवण, आश्लेषा और पूर्वाषाढा इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र पर गुरु हो तब, या ये नक्षत्र और गुरुवार के दिन घर का आरम्भ करे तो यह घर पुत्र और राज्य देने वाला होता है।
विशाखा, अश्विनी, चित्रा, धनिष्ठा, शतभिषा और आर्द्रा इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र पर शुक्र हो तब, या ये नक्षत्र और शुक्रवार हो उस दिन घर का प्रारम्भ करे तो धन और धान्य की प्राप्ति हो ।
"सारैः करेज्यान्त्यमघाम्बुमूलैः, कौजेऽहि वेश्माग्नि सुतादितं स्यात् ।
सझैः कदास्रार्यमतक्षहस्तै-ईस्यैव वारे सुखपुत्रदं स्यात् ॥"
हस्त, पुष्य, रेवती, मघा, पूर्वाषाढा और मूल इन नक्षत्रों पर मंगल हो तब, या ये नक्षत्र और मंगलवार के दिन घर का प्रारम्भ करे तो घर अमि से जल जाय और पुत्र को पीड़ा कारक होता है।
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(२०)
वास्तुसारे
रोहिणी, अश्विनी, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा और हस्त इन नक्षत्रों पर बुध हो तब, या ये नक्षत्र और बुधवार के दिन घर का प्रारम्भ करे तो सुख कारक और पुत्रदायक होता है।
"अजैकपादाहिर्बुध्न्य-शक्रमित्रानिलान्तकैः ।
समन्दैमन्दवारे स्याद् रक्षोभूतयुतं गृहम् ॥" पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, ज्येष्ठा, अनुराधा, स्वाती और भरणी इन नक्षत्रों पर शनि हो तब, या ये नक्षत्र और शनिवार के दिन घर का प्रारंभ करे तो यह घर राक्षस और भूत आदि के निवास वाला हो ।
'अग्निनक्षत्रगे सूर्ये चन्द्रे वा संस्थिते यदि ।
निर्मितं मंदिरं नूनं-मग्निना दह्यतेऽचिरात् ॥" कृत्तिका नक्षत्र के ऊपर सूर्य या चन्द्रमा हो तब घर का आरंभ करे तो शीघ्र ही वह घर अग्नि से भस्म हो जाय । प्रथम शिला की स्थापना
पुव्वुत्तर-नीमतले घिय-अक्खय-रयणपंचगं ठविउं । सिलानिवेसं कीरइ सिप्पीण सम्माणणापुव्वं ॥२७॥
पूर्व और उत्तर के मध्य ईशान कोण में नीम ( खात ) में प्रथम घी अक्षत (चावल) और पांच जाति के रत्न रख करके ( वास्तु पूजन करके ), तथा शिल्पियों का सन्मान करके, शिला की स्थापना करनी चाहिये ॥२७।।
अन्य शिल्प ग्रंथों में प्रथम शिला की स्थापना अग्नि कोण में या ईशान कोण में करने को भी कहा है। खात लम विचार:----
भिगु लग्गे बुहु दसमे दिणयरु लाहे बिहप्फई किंदे । जइ गिहनीमारंभे ता वरिससयाउयं हवइ ॥२८॥
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गृह प्रकरणम्
(२५)
शुक्र लग्न में, बुध दशम स्थान में, सूर्य ग्यारहवें स्थान में और बृहस्पति केन्द्र (१-४-७-१० स्थान ) में हो, ऐसे लम में यदि नवीन घर का खात करे तो सौ वर्ष का प्रायु उस घर का होता है ॥२८॥ दसमचउत्थे गुरुससि सणिकुजलाहे अलच्छि वरिस असी। इगति चउ छ मुणि कमसो गुरुसणिभिगुरविबुहम्मि सयं ॥२१॥
दसवें और चौथे स्थान में बृहस्पति और चन्द्रमा हो, तथा ग्यारहवें स्थान में शनि और मंगल हो, ऐसे लग्न में गृह का आरंभ करे तो उस घर में लक्ष्मी अस्सी (८०) वर्ष स्थिर रहे । बृहस्पति लग्न में (प्रथम स्थान में ), शनि तीसरे, शुक्र चौथे, रवि छठे और बुध सातवें स्थान में हो, ऐसे लग्न में आरंभ किये हुए घर में सौ वर्ष लक्ष्मी स्थिर रहे ॥ २६ ॥
सुक्कुदए रवितइए मंगलि छढे अ पंचमे जीवे । इत्र लग्गकए गेहे दो वरिससयाउयं रिद्धी ॥३०॥
शुक्र लग्न में, सूर्य तीसरे, मंगल छठे और गुरु पांचवें स्थान में हो, ऐसे लम में घर का आरंभ किया जाय तो दो सौ वर्ष तक यह घर समृद्धियों से पूर्ण रहे ॥३०॥
सगिहत्थो ससि लग्गे गुरुकिदे बलजुयो सुविद्धिकरो। कूरट्टम-अहसुहा सोमा मज्झिम गिहारंभे ॥३१॥
स्वगृही चंद्रमा लग्न में हो अर्थात् कर्क राशि का चंद्रमा लममें हो और बृहस्पति केन्द्र ( १-४-७-१० स्थान ) में बलवान होकर रहा हो, ऐसे लम के समय घरका आरंभ करे तो उस घर की प्रतिदिन वृद्धि हुआ करे। गृहारंभ के समय लम से आठवें स्थान में क्रूर ग्रह हो तो बहुत अशुभ कारक है और सौम्यग्रह हो तो मम्मम है ॥ ३१ ॥
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( २२ )
वास्तुसारे
इक्केवि गहे णिच्छइ परगेहि परंसि सत्त-बारसमे । गिहसामिवराणनाहे अबले परहत्थि होइ गिह ॥३२॥
यदि कोई भी एक ग्रह नीच स्थान का, शत्रु स्थान का या शत्रु के नवांशक का होकर सातवें स्थान में या बारहवें स्थान में रहा हो तथा गृहपति के वर्षका स्वामी निर्बल हो, ऐसे समय में प्रारंभ किया हुआ घर दूसरे शत्रु के हाथ में निश्चय से चला जाता है ॥३२॥ गृहपति के वर्णपति
बंभण-सुक्कबिहफा रविकुज-खत्तिय मयंअवहसो श्र। बुहु सुदु मिच्छसणितमु गिहसामियवराणनाह इमे ॥३३॥
प्रामण वर्ण के स्वामी शुक्र मौर बृहस्पति, क्षत्रिय वर्ण के स्वामी रवि और मंगल, वैश्य वर्ण का स्वामी चन्द्रमा, शूद्र वर्ण का स्वामी बुध तथा म्लेच्छ वर्य के स्वामी शनि और राहु हैं । ये गृहस्वामी के वर्ण के स्वामी हैं ॥३३॥ गृह प्रवेश विचार
सयलसुहजोयलग्गे नीमारंभे य गिहपवेसे श्र । जइ अट्ठमो अ कूरो अवस्स गिहसामि मारेइ ॥३४॥
खात के आरंभ के समय और नवीन गृह प्रवेश (घर में प्रवेश ) करते समय लम में समस्त शुभ योग होने पर भी भाठवें स्थान में यदि क्रूर ग्रह हो तो पर के स्वामी का अवश्य विनाश होता है ॥३४॥
चित्त-अणुराह-तिउत्तर रेवइ-मिय-रोहिणी श्र विद्धिकरो। मूल-दा-असलेसा-जिट्ठा-पुत्तं विणासेइ ॥३५॥
चित्रा, अणुराधा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, मृगशिर और रोहिणी इन नक्षत्रों में घर का प्रारंभ या घर में प्रवेश करे वो पति
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कारक है । मूल, आर्द्रा, आश्लेषा ज्येष्ठा इन नक्षत्रों में गृहारंभ या गृह प्रवेश करे तो पुत्र का विनाश करे ॥३५॥
पुवतिगं महभरणी गिहसामिवहं विसाहत्थीनास। कित्तिय अग्गि समत्ते गिहप्पवेसे अ ठिइ समए ॥३६॥
यदि घरका आरम तथा घर में प्रवेश तीनो पूर्वा ( पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा ), मघा और भरणी इन नक्षत्रों में करे तो घर के स्वामी का विनाश हो । विशाखा नक्षत्र में करे तो स्त्री का विनाश हो और कृत्तिका नक्षत्र में करे तो अमि का भय हो ॥३६॥
तिहिरित वारकुजरवि चरलग्ग विरुद्धजोश्र दिणचंदं । वजिज गिहपवेसे सेसा तिहि-वार-लग्ग-सुहा ॥३७॥
रिक्ता तिथि, मंगल या रविवार, चर लम ( मेष कर्क तुला और मकर लम ), कंटकादि विरुद्ध योग, क्षिण चन्द्रमा या नीच का या क्रूरग्रह युक्त चन्द्रमा ये सब घर में प्रवेश करने में या प्रारंभ में छोड़ देना चाहिये । इनसे दूसरे पाकी के तिथि वार लग्न शुभ हैं ॥३७॥
किंदुदुडतकरा असुहा तिछगारहा सुहा भणिया । किंदुतिकोणतिलाहे सुहया सोमा समा सेसे ॥३८॥
यदि करग्रह केन्द्र ( १-४-७-१० ) स्थान में, तथा दूसरे आठवें या बारहवें स्थान में हो तो अशुभ फलदायक हैं। किन्तु तीसरे छठे या ग्यारहवें स्थान में हो तो शुभ फल दायक हैं। शुभग्रह केन्द्र (१-४-७-१०) स्थान में, त्रिकोण ( नवम-पंचम ) स्थान में, तीसरे या ग्यारहवें स्थान में हो तो शुभ कारक हैं, किन्तु बाकि के ( २-६-८-१२.) स्थान में हो तो समान फलदायक हैं ॥३८॥
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वास्तुलारे
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गृह प्रवेश या गृहारंभ में शुभाशुभग्रह यंत्र
वार
मध्यम
जघन्य
रवि
१-४-७-१०.३.८-१२
सोम
१-४-७-१०-६-५-३-११
८-२-६-१२
मंगल
३-६-११
१-४-७-१०-२-८-१२
बुध
१-४-७-१०-६-५-३-११
२-६-८-१२
-
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गुरु
१-४-७-१०-६-५-३-११
२-६-८-१२
शुक्र
१-४-७-१०-६-५-३-११
२-६-८-१२
शनि
३-६-११
१-४--७-१०-२-८-१२
राहु केतु |
१-४-७-१०-२-८-१२
गृहों की संज्ञा
सूरगिहत्थो गिहिणी चंदो धणं सुक्कु सुरगुरु सुक्खं । जो सबलु तस्स भावो सबलु भवे नत्थि संदेहो ॥३१॥
सूर्य गृहस्थ, चन्द्रमा गृहिणी (स्त्री), शुक्र धन और बृहस्पति सुख है । इन में जो बलवान् ग्रह हो वह उनके भावों का अधिक फल देता है, इसमें संदेह नहीं
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गृह प्रकरणम्
( २५ )
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है। अर्थात् सूर्य बलवान् हो तो घर के स्वामी को और चन्द्रमा बलवान् हो तो स्त्री को फलदायक है। शुक्र बलवान् हो तो धन और गुरु बलवान् हो तो सुख देता है ॥३६॥ राजा आदि के पांच प्रकार के घरों का मान
राया सेणाहिवई अमच्च-जुवराय-अणुज-रगणीणं । नेमित्तिय-विज्जाण य पुरोहियाण इह पंचगिहा ॥४०॥ एगसयं अट्ठहियं चउसट्ठि सठ्ठि असी अ चालीसं । तीसं चालीसतिगं कमेण करसंखवित्थारा ॥४१॥ श्रड छह चउ छह चउ छह चउ चउ चउ हीणया कमेणेव । मूलगिहवित्थरात्रो सेसाण गिहाण वित्थारा ॥४२॥ चउ छच्च अट्ठ तिय तिय श्रह छ छ छ भागजुत्त वित्थरयो। सेस गिहाण य कमसो माणं दीहत्तणे नेयं ॥४३॥
राजा, सेनापति, मंत्री (प्रधान ), युवराज, अनुज (छोटा भाई-सामंत), राणी, नैमित्तिक ( ज्योतिषी), वैद्य और पुरोहित, इन प्रत्येक के उत्तम, मध्यम, विमध्यम, जघन्य और अतिजघन्य आदि भेदों से पांच पांच प्रकार के गृह बनते हैं। उनके उत्तम गृहों का विस्तार क्रमशः-१०८, ६४. ६०, ८०, ४०, ३०, ४०, ४०, और ४० हाथ प्रमाण है । और इन प्रत्येक में से ८, ६, ४, ६, ४, ६, ४, ४, और ४ हाथ क्रम से बार बार घटाया जाय तो मध्यम, विमध्यम, कनिष्ठ और अति कनिष्ठ घर का विस्तार बन जाता है । यह विस्तार सब मुख्य गृह का समझना चाहिये । तथा विस्तार का चौथा, छट्ठा, आठवां तीसरा, तीसरा, आठवां, छट्ठा, छट्ठा और छट्ठा भाग क्रम से विस्तार में जोड़ देवें, तो सब गृहों की लंबाई का प्रमाण हो जाता है ॥४० से ४३॥
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पास्तुलारे
राजा प्रादि के पांच प्रकार के घरों का मान यंत्र
संख्या माप |राजा सेना | मंत्री युवराज अनुज राणी नैमित्तिक बैच परोहित
उत्तम विस्तार १०८ ६४ ६० ८०
| लंबाई |१३५/७५-१६ ६७-१२ १०६-१६" मध्य- विस्तार १००/५८
३३-१८४६-१६४६-१६४४६-१६"
५६
|७४
|३६
२४
सिंबाई १२५६७-१६६३
१८-१६५।४८
२७
विस्तार१२५२
६८
I
१०-१६५४२-१६०२०-६" । |३७-
८३७-
८३७-८"
६२
|२८
|१२
लंबाई
१०५५३-१६" ५४
८२-१६३७.८" |१३-१२/ ३२-१६०३२-१६०३२-१६"
| २४
नि.५ लंबाई | २४ ४६-१६० ४.१२° ४४-१६ ३२ ६.१८२८
लंबाई
१६ ३२
- २
पारों वर्षों के गृहमान
वराणचउक्कगिहेसु बत्तीस कराइ-वित्थरो भणियो । चउ चउ हीणो कमसो जा सोलस अंतजाईणं ॥४४॥ दसमंस-अट्टमंसं सडंस-चउरंस-वित्थरस्सहियं । . दीहं सवगिहाण य दिय-खत्तिय-वइस-सुदाणं ॥४५॥
प्रथम ३२ हाथ के विस्तारवाले ब्राह्मण के घर में से चार २ हाथ सोलह हाथ तक घटाओ तो क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अंत्यज के घर का विस्तार होता है । अर्थात् ब्राह्मण के घर का विस्तार ३२ हाथ, क्षत्रिय जाति के घर का
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गृह प्रकरणम्
( २७ )
विस्तार २८ हाथ, वैश्य जाति के घर का विस्तार २४ हाथ, शुद्र जाति के घर का विस्तार २० हाथ और अंत्यज के घर का विस्तार १६ हाथ है । इन वर्गों के घरों के विस्तार का दशवां, आठवां, छट्ठा और चौथा भाग क्रम से विस्तार में जोड़ देवें तो सब घरों की लंबाई हो जाती है । अर्थात् ब्राह्मण के घर के विस्तार का दशवां भाग ३ हाथ और ४||| अंगुल जोड़ देवें तो ३५ हाथ और ४॥ अंगुल प्रामण के घर की लंबाई हुई । इसी प्रकार सब समझ लेना चाहिये । विशेष यंत्र से जानना ।।४४-४॥
चारों वर्ण के घरों का मान यंत्र
ब्राह्मण क्षत्रिय
वैश्य
शूद्र
अंत्यज
विस्तार
३२
२०
लंबाई ३५-४॥ ३१-१२ | २८ ।
२५
२०
घर के उदय का प्रमाण समरांगण में कहा है कि
"विस्तारात् षोडशो भागश्चतुर्हस्तसमन्वितः । तलोच्छ्यः प्रशस्तोऽयं भवेद् विदितवेश्मनाम् ॥ सप्तहस्तो भवेज्ज्येष्ठे मध्यमे षद् करोन्मितः ।
पञ्चहस्तः कनिष्ठे तु विधातव्यस्तथोदयः ॥" घर के विस्तार के सोलहवें भाग में चार हाथ जोड़ देने से जो संख्या हो, उतनी प्रथम तल की ऊंचाई करना अच्छा है । अथवा घर का उदय सात हाथ हों तो ज्येष्ठ मान का, छह हाथ हो तो मध्यम मान का और पांच हाथ हों तो कनिष्ठ मान का उदय जानना।
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( २८ )
मुख्य घर और अलिंद की पहिचान
वास्तुसारे
जं दीहवित्थराई भणियं तं सयल मूलगिहमाणं । सेसमलिदं जाणह जहत्थियं जं बहीकम्मं ॥४६॥ श्रोवरयसालकक्खो - वराईयं मूलगिहमिं सव्वं । यह मूलसालमज्झे जं वट्टइ तं च मूलगिहं ॥४७॥
मकान की जो लंबाई और विस्तार कहा है, वह सब मुख्य घर का माप समझना चाहिये । बाकी जो द्वार के बाहर भाग में दालान आदि हो वह सब अलिंद समझना चाहिये | दीवार के भीतर पट्टशाला ( मुख्य शाला ) और कक्षा शाला ( मुख्य शाला के बगल की शाला ) यदि सब मूल घर जानना अर्थात् मूलशाला के मध्य में जो हों वे सब मूल घर ही जानना चाहिये ॥४६-४७ ॥
अलिंद का प्रमाण
गुलसत्तहियस उदए गब्भे य हवइ पण सीई । गणियासारिदी इक्किकगईई इ परिमाणं ॥ ४८ ॥
उदय (ऊंचाई) में एक सौ सात अंगुल, गर्भ में पिचासी अंगुल और क्षेत्र जितना ही लंबाई में यह प्रत्येक अलिंद का माप समझना चाहिये ||४८ || शाला और अलिंद का प्रमाण राजवल्लभ में कहा है कि -
" व्यासे सप्ततिहस्तवियुक्ते, शालामानमिदं मनुभक्ते । पंचत्रिंशत्पुनरपि तस्मिन्, मानमुशन्ति लघोरिति वृद्धाः
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घर का विस्तार जितने हाथ का हो, उसमें ७० हाथ जोड़ कर चौदह से भाग दो, जो लब्धि श्रवे उतने हाथ का शाला का विस्तार करना चाहिये । शाला का विस्तार जितने हाथ का हो, उसमें ३५ जोड़ कर चौदह से भाग दो, जो लब्धि वे उतने हाथ का अलिंद का विस्तार करना ।
"
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गृह प्रकरणम्
(२६)
समरांगण सूत्रधार में कहा है कि
"शालाव्यासार्द्धतोऽलिन्दः सर्वेषामपि वेश्मनाम् ।" शाला के विस्तार से आधा अलिंद का विस्तार समस्त घरों में समझना चाहिये । गज ( हाथ ) का स्वरूपं
पव्वंगुलि चउवीसहिं छत्तीसिं करंगुलेहिं कविश्रा ।
अट्ठहिं जवमज्झेहिं पव्वंगुलु इक्कु जाणेह ॥४१॥ चौवीस पर्व अंगुलियों से या छत्तीस कर अंगुलियों से एक कंबिया ( गज-२४ इंच ) होता है । पाठ यवोदर से एक पर्व अंगुल होता है ॥ ४६ ॥
पासाय-रायमंदिर-तडाग-पायार-वत्थभूमी य । इन कंबीहिं गणिज्जह गिहसामिकरहिं गिहवत्थू ॥५०॥
देवमंदिर, राजमहल, तालाब, प्राकार (किला) और वस्त्र इनकी भूमि आदि का मान कंबिया ( गज) से करें । तथा सामान्य लोग अपने मकान का नाप अपने हाथ से करें ॥ ५० ॥
- अन्य समरांगण सूत्रधार आदि ग्रन्थों में गज तीन प्रकार के माने हैंआठ यवोदर का एक अंगुल, ऐसे चौवीस अंगुल का एक गज, यह ज्येष्ठ गज १ । सात यवोदर का एक अंगुल, ऐसे चौबीस अंगुल का एक गज, यह मध्यम गज २ । छह यवोदर का एक अंगुल, ऐसे चौबीस अंगुल का एक गज, यह कनिष्ठ गज ३ । इसमें तीन २ अंगुल पर एक २ पर्वरेखा करने से आठ पर्वरेखा होती हैं। चौथी पर्वरेखा पर आधा गज होता है। प्रत्येक पर्वरेखा पर फूल का चिन्ह करना चाहिये । गज के मध्य भाग से आगे की पांचवीं अंगुल का दो माग, आठवीं अंगुल का तीन भाग और बारहवीं अंगुल का चार भाग करना चाहिये । गज के नव देवता के नाम
"रुद्रो वायुर्विश्वकर्मा हुताशो, ब्रह्मा कालस्तोयपः सोमविष्णू ।"
गज के अग्र भाग का देवता रुद्र, प्रथम फूल का देव वायु, दूसरे फूल का देव विश्वकर्मा, तीसरे फूल का देव अग्नि, चौथे फूल का देव ब्रह्मा, पांचवें फल का
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(३०)
वास्तुसारे
देव यम, छटे फूल का देव वरुण, सातवें फूल का देव सोम और आठवें फूल का देव विष्णु है। इनको गज के अग्र भाग से लेकर प्रत्येक पर्वरेखा पर स्थापन करना । इनमें से कोई भी एक देव शिल्पी के हाथ से गज उठाते समय दब जाय तो अनेक प्रकार के अशुभ फल को देनेवाला होता है। इसलिये नवीन घर आदि का आरंभ करते समय सूत्रधार को गज के दो फूलों के मध्य भाग से ही उठाना चाहिये । गज उठाते समय यदि हाथ से गिर जाय तो कार्य में विघ्न होता है ।
__ गज को प्रथम ब्रह्मा और अग्नि देव के मध्य भाग से उठावे तो पुत्र का लाभ और कार्य की सिद्धि हो । ब्रह्मा और यम देव के मध्य भाग से उठावे तो शिल्पकार का विनाश हो । विश्वकर्मा और अग्नि देव के मध्य भाग से उठावे तो कार्य अच्छी तरह पूर्ण हो । यम और वरुण देव के मध्य भाग से उठावे तो मध्यम फल दायक है। वायु और विश्वकर्मा देव के मध्य भाग से उठावे तो सब तरह इच्छित फल दायक हो। वरुण और सोम देव के मध्य भाग से धारण करे तो मध्यम फल दायक है रुद्र और वायुदेव के मध्यम भाग से उठावे तो धन की प्राप्ति और कार्य की सिद्धि हो इसमे संदेह नहीं । विष्णु और सोमदेव के मध्य भाग से उठावे तो अनेक प्रकार की सुख समृद्धि प्राप्त हो । शिल्पी के योग्य आठ प्रकार के सूत्र
"सूत्राष्टकं दृष्टिगृहस्तमौज, कासकं स्यादवलम्बसज्ञम् । काष्ठं च सृष्टयाख्यमतो विलेख्य-मित्यष्टसूत्राणि वदन्ति तज्ज्ञाः ॥" सूत्र को जाननेवालों ने आठ प्रकार के सूत्र माने हैं-प्रथम दृष्टिसूत्र १, गज ( हाथ )२, तीसरा मुंज की डोरी ३, चौथा सूत का डोरा ४, पाँचवाँ अवलम्ब ५, छट्ठा गुणिया ( काठकोना ) ६, सातवाँ साधणी ( रेवल )७ और पाठवाँ विलेख्य ( प्रकार ) ८ ये आठ प्रकार के सूत्र शिल्पी के हैं। प्राय का ज्ञान
गिहसामिणो करेणं भित्तिविणा मिणसु वित्थरं दीहं ।
गुणि अठेहिं विहत्तं सेस धयाई भवे पाया॥५१॥ * धनद (कुबेर ) भी कहते हैं।
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अाठ.प्रकार के दृष्टिसूत्र६ कार कोना-गोणीया.. TTTTTTTTTTD
बार तय
सद
पारली
*
वायु
रसूतकाडोरा
विचकमा
TRIYAANT
प्रकार
000
अनि
ब्रह्मा
५अवलब
१२ १३ १४ १५ १६७
*
काल
३ मुंजकी डोर
वरुण
१८ १९
७ साधणी
२० २१
*
सोम
२२ २३ २४
विष्ण
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বুই সন্ধ্যা
चारों तरफ खात ( नीम ) की भूमि को अर्थात् दीवार करने की भूमि को छोड़कर मध्य में जो लंबी और चौड़ी भूमि हो, उसको अपने घर के स्वामी के हाथ से नाप कर जो लंबाई चौड़ाई आवे, उन दोनों का परस्पर गुणा करने से भूमि का क्षेत्रफल हो जाता है। पीछे इस क्षेत्रफल को आठ से भाग देना, जो शेष बचे वह ध्वज आदि आय जानना । राजवल्लभ में कहा है कि
"मध्ये पर्यकासने मंदिरे च, देवागारे मण्डपे भित्तिवाद्ये ॥" ___ अर्थात् पलंग आसन और घर इनमें मध्य भूमि को नाप कर आय लाना । किन्तु देवमंदिर और मंडप में दीवार करने की भूमि सहित नाप कर आय लाना ॥५१॥ आठ प्राय के नाम
धय-धुम-सीह-साणा विस-खर-गय-धंख अट्ठ पाय इमे । पूवाइ-धयाइ-ठिई फलं च नामाणुसारेण ॥५२॥
ध्वज, धूम्र, सिंह, श्वान, वृष, खर, गज और ध्वांक्ष ये आठ आय हैं। वे पूर्वादि दिशा में सृष्टि क्रम से अर्थात् पूर्व में ध्वज, अग्निकोण में धूम्र, दक्षिण में सिंह इत्यादि क्रम से रखें। वे उनके नाम के सदृश फलदायक हैं। अर्थात् विषम आय-ध्वज सिंह, वृष और गज ये श्रेष्ठ हैं और समाय-धूम्र, श्वान, खर और ध्वाक्ष ये अशुभ हैं ॥ ५२॥
प्राय चक्र
संख्या
-
-
-
आया
| ध्वज | धृन ! सिंह | श्वान | वृष | खर
गज
ध्वाक्ष
दिशा | पूर्व | अग्नि | दक्षिण नैर्ऋत्य | पश्चिम वायव्य उत्तर |
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पास्तुलारे
माय पर से द्वार की समझ पीयूषधारा टोका में कहा है कि
"सर्वद्वार इह ध्वजो वरुणदिग्द्वारं च हित्वा हरिः ।
प्रारद्वारो वृषभो गजो यमसुरे-शाशामुख: स्याच्छुभः ॥" ध्वज आय आवे तो पूर्वादि चारों दिशा में द्वार रख सकते हैं । सिंह प्राय आवे तो पश्चिम दिशा को छोड़ कर पूर्व दक्षिण और उत्तर इन तीन दिशा में द्वार रक्खें । वृषभ आय आवे तो पूर्व दिशा में द्वार रक्खें और गज प्राय आवे तो पूर्व और दक्षिण दिशा में द्वार रखें।
एक आय के ठिकाने दूसरा कोई प्राय आ सकता है या नहीं ? इसका खुलासा आरंभसिद्धि में इस प्रकार किया है
"ध्वजः पदे तु सिंहस्य तौ गजस्य वृषस्य ते ।
एवं निवेशमर्हन्ति स्वतोऽन्यत्र वृषस्तु न ॥" समस्त आय के स्थानों में ध्वज श्राय दे सकते हैं। तथा सिंह प्राय के स्थान में ध्वज आय, गज आय के स्थान में ध्वज, और सिंह ये दोनों में से कोई आय और धूष माय के स्थान में ध्वज, सिंह और गज ये तीनों में से कोई माय आ सकता है । अर्थात् सिंह आय जिस स्थान में देने का है, उसी स्थान में सिंह प्राय के अभाव में ध्वज आय भी दे सकते हैं, इसी प्रकार एक के अभाव में दूसरे प्राय स्थापन कर सकते हैं । किन्तु वृष आय अपने स्थान से दूसरे आय के स्थान में नहीं देना चाहिये । अर्थात् वृष आय वृष आय के स्थान में ही देना चाहिये । कौन २ ठिकाने कौन २ आय देना यह बतलाते हैं---
विप्पे धयाउ दिज्जा खित्ते सीहाउ वइसि वसहायो । सुद्दे श्र कुंजरायो धंखाउ मुणीण नायव्वं ॥५३॥
ब्राह्मण के घर में ध्वज आय, क्षत्रिय के घर में सिंह आय, वैश्य के घर में वृषभ आय, शूद्र के घर में गज आय और मुनि (सन्यासी) के आश्रम में ध्वांत प्राय लेना चाहिये ॥५३॥
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गृह प्रकरणम्
धय-गय-सीहं दिजा संते ठाणे धश्रो श्र सम्बत्थ । गय-पंचाणण-वसहा खेडय तह कव्वडाईसु ॥५४॥
ध्वज, गज और सिंह ये तीनों आय उत्तम स्थानों में, ध्वज प्राय सब जगह, गज सिंह और वृष ये तीनों आय गांव किला आदि स्थानों में देना चाहिये ॥५४॥
वावी-कूव-तडागे सयणे अगयो अग्रासणे सीहो । वसहो भोगणपत्ते छत्तालवे धयो सिहो ॥५५॥
बावड़ी, कूमा, तालाव, और शयन ( शय्या ) इन स्थानों में गज आय श्रेष्ठ है । सिंहासनादि आसन में सिंह आय श्रेष्ठ है। भोजन के पात्र में वृष श्राय और छत्र तोरण मादि में ध्वज आय श्रेष्ठ है।
विस-कुंजर-सीहाया नयरे पासाय-सब्बगेहेसु । साणं मिच्छाईसुं धंखं कारु अगिहाईसु ॥५६॥
वृष गज और सिंह ये तीनों आय नगर, प्रासाद (देवमंदिर या राजमहल) और सब प्रकार के घर इन स्थानों में देना चाहिये । श्वान श्रआय म्लेच्छ आदि के घरों में और ध्वांद आय अगृहादि ( तपस्वियों के स्थान उपाश्रय-मठ झोपड़ी आदि) में देना चाहिये ॥५६॥
धुमं रसोइठाणे तहेव गेहेसु वरािहजीवाणं । रासहु विसाणगिहे धय-गय-सीहाउ रायहरे ॥५७॥
भोजन पकाने के स्थान में तथा अग्नि से आजीविका करनेवाले के घरों में धूम्र प्राय देना चाहिये । वेश्या के घर में खर आय देना चाहिये । राजमहल में ध्वज गज और सिंह प्राय देना अच्छा है ॥५७।। पर के नक्षत्र का ज्ञान
दीहं वित्थरगुणियं जं जायइ मूलरासि तं नेयं । अट्ठगुणं उडुभत्तं गिहनक्खत्तं हवइ सेसं ॥५॥
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(१७)
-
घर बनाने की भूमि की लंबाई और चौडाई का गुणाकार करे, जो गुणनफल आवे उसको घरका मूलराशि (क्षेत्रफल ) जानना । पीछे इस क्षेत्रफल को पाठ से गुणा करके सत्ताइस से भाग दे, जो शेष बचे यह घर का नक्षत्र होता है ॥५८॥ घर के राशि का ज्ञान
गिहरिक्खं चउगुणिधे नवभत्तं लडु भुत्तरासीयो। गिहरासि सामिरासी सड ह दु दुवालसं असुहं ॥४॥
घर के नक्षत्र को चार से गुणा कर नौ से भाग दो, जो लब्धि आवे यह घर की भुक्तराशि समझना चाहिये । यह घर की भुक्तराशि और घर के स्वामी की राशि परस्पर छट्ठी और आठवीं हो या दूसरी और बारहवीं हो तो अशुभ है ॥५६॥
वास्तुशास्त्र में राशि का ज्ञान इस प्रकार कहा है
"अश्विन्यादित्रयं मेष सिंह प्रोक्तं मघात्रयम् ।
मूलादित्रितयं चापे शेषभेषु द्वयं द्वयम् ॥" अश्विनी श्रादि तीन नक्षत्र मेषराशि के, मघा आदि तीन नक्षत्र सिंह राशि के और मूल आदि तीन नक्षत्र धनराशि के हैं । अन्य नौ राशियों के दो दो नक्षत्र हैं। वास्तुशास्त्र में नक्षत्र के चरण भेद से राशि नहीं मानी है। विशेष नीचे के गृहराशि यंत्र में देखो।
गृह राशि यंत्र
मेष वृष २ मिथुन ३कक सि: ५ कन्या'तुला कधि धन कम १९मीन १२
स्वा
S
अश्विनी रोहिणी प्रार्दा | पुष्य | मघा
शतभि
मूल
भाद्र०
त
कृत्तिका
| उत्तराफा • • • बता · | | .
उत्तराफा
षाढा
-
-
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व्यय का ज्ञान -
वसुभत्तरिक्वसेसं वयं तिहा जक्ख- रक्खस- पिसाया । का कमसोही हियसमं मुणेयव्वं ॥ ६० ॥
व्यय का फल -
गृह प्रकरणम्
घर के नक्षत्र की संख्या को आठ से भाग देना, जो शेष बचे यह व्यय जानना । यह व्यय यक्ष राक्षस और पिशाच ये तीन प्रकार के हैं। आय की संख्या से व्यय की संख्या कम हो तो यक्ष व्यय, अधिक हो तो राक्षस व्यय और बराबर हो तो पिशाच व्यय समझना ॥ ६० ॥
।
Grare विद्धिकरो धणनासं कुणइ रक्खसवओो aftheart पिसा तह य जमंसं च वज्जिज्जा ॥ ६१ ॥
यदि घर का यक्ष व्यय हो तो धन धान्यादि की वृद्धि करनेवाला है । राम व्यय हो तो धन धान्यादि का नाश करनेवाला है और पिशाच व्यय हो तो मध्यम है । तथा नीचे बतलाये हुए त्रण अंशों में से यमअंश को छोड़ देना चाहिये ॥ ६१॥ अंश का. ज्ञान -
मूलरासिस्स कं. गिनामक्खरवयंकसंजुत्तं । तिविहुत सेस धंसा 'इंदंस - जमेस - रायंसा ॥ ६२ ॥
घर के तारे का ज्ञान -
( 22 )
घर की मूलराशि (क्षेत्रफल ) की संख्या, ध्रुवादि घर के नामाक्षर अंक और व्यय संख्या इन तीनों को मिला कर तीन से भाग देना, जो शेष रहे यह श जानना । यदि एक शेष रहे तो इन्द्रांश, दो शेष रहे तो यमांश और शून्य शेष रहे तो राजांश जानना चाहिये ॥ ६२ ॥
गेहभसामिभपिंडं नवभचं सेस छ च नव सुहया । मज्झिम दुग इग अट्ठा ति पंच सतहमा तारा ॥ ६३ ॥
३ 'वं जमा वह परापायो' इषि परमम्बरे ।
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(३६)
वास्तुसारे
घर के नक्षत्र से घर के स्वामी के नक्षत्र तक गिने, जो संख्या आवे उसको नौ से भाग दे, जो शेष रहे यह तारा समझना । इन ताराओं में छट्ठी, चौथी
और नववीं तारा शुभ है । दूसरी, पहली और भाठवीं तारा मध्यम है। तीसरी पांचवीं और सातवीं तारा अधम है ॥६॥ आयादि जानने के लिए उदाहरण__जैसे घर बनाने की भूमि ७ हाथ और 8 अंगुल लंबी तथा ५ हाथ और ७ अंगुल चौड़ी है । इन दोनों के अंगुल बनाने के लिये हाथ को २४ से गुणा कर अंगुल मिला दो तो ७४२४ = १६८+8= १७७ अंगुल की लंबाई और ५४२४=१२०+७=१२७ अंगुल की चौड़ाई हुई । इन दोनों अंगुलात्मक लंबाई चौड़ाई को गुणा किया तो १७७४१२७=२२४७६ यह क्षेत्रफल हुआ। इसको आठ से भाग दिया तो २२४७६८ तो शेष सात रहेंगे । यह सातवां गज आय हुआ ।
अब घर का नक्षत्र लाने के लिये क्षेत्रफल को आठ से गुणा किया तो २२४७६४८= १७६८३२ गुणनफल हुआ, इसको २७ से भाग दिया १७६८३२ : २७ तो शेष बारह बचे, यह अश्विनी आदि से गिनने से बारहवां उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हुआ।
___अब घर की भुक्त राशि जानने के लिये-नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी बारहवां है तो १२ को ४ से गुणा किया तो ४८ हुए, इनको 8 से भाग दिया तो लब्धि ५ आई, यह पांचवीं सिंह राशि हुई। यह नियम सर्वत्र लागु नहीं होता, इसलिये गृहराशि यंत्र में कहे अनुसार राशि समझना चाहिये । ___ व्यय जानने के लिये-घर का नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी बारहवां है, इसलिये १२ को आठ से भाग दिया १२८ तो शेष ४ बचे। यह आय ७ वें से कम है, इसलिये यक्ष व्यय हुमा अच्छा है।
अंश जानने के लिये-घरका क्षेत्रफल २२४७६ में जिस जाति का घर हो उसके वर्ण के अवर जोड़ दो, मान लो कि विजय जाति का घर है तो इसके वर्णाक्षर के अंक ३ हुए, यह और व्यय के अंक ४ मिला दिये तो २२४८६ हुए, इनको तीन से भाग दिया तो शेष १ बचता है, इसलिये घर का अंश इन्द्रांश हवा ।
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गृह प्रकरणम्
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तारा जानने के लिये घर का नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी है और मालिक का नक्षत्र रेवती है। इसलिये उत्तराफाल्गुनी से रेवती तक गीनने से १६ संख्या होती है, इसको 8 से भाग दिया तो शेष ७ बचे, इसलिये सातवीं तारा हुई । प्रायादिक का अपवाद विश्वकर्मप्रकाश में कहा है कि
"एकादशयवादूर्व यावद् द्वात्रिंशहस्तकम् । तावदायादिकं चिन्त्यं तवं नैव चिन्तयत् ॥
आयव्ययौ मासशुद्धिं न जीणे चिन्तयेद् गृहे ।" जिस घर की लंबाई ग्यारह यव से अधिक बत्तीस हाथ तक हो तो उसमें आय व्यय आदि का विचार करना चाहिये । परन्तु बत्तीस हाथ से अधिक लंबाई वाला घर हो तो उसमें आय आदि का विचार नहीं करना चाहिये। तथा जीर्ण घर के उद्धार के समय भी आय व्यय और मास शुद्धि आदि का विचार नहीं करना चाहिये । मुहर्तमार्तण्ड में भी कहा है कि
"द्वात्रिंशाधिकहस्तमब्धिवदनं ताणं त्वलिन्दादिकं ।
नेष्वायादिकमीरितं तृणगृहं सर्वेषु मास्सूदितम् ॥" जो घर बत्तीस हाथ से अधिक बड़ा हो, चार द्वारवाला हो, घास का घर हो तथा अलिंद निव्यूह (मादल) इत्यादि ठिकाने आय आदि का विचार न करें । तृण का घर तो सब महीनों में बना सकते हैं । घर के साथ मालिक का शुभाशुभ लेन देन का बिचार
जह करणावरपीई गणिज्जए तह य सामियगिहाण । जोणि-गण-रासिपमुहा 'नाडीवेहो य गणियव्वो॥६४॥
जैसे ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कन्या और वर के आपस में प्रेम भाव का मिलान किया जाता है । उसी प्रकार घर और घर के स्वामी के लेन देन आदि का विचार, योनि गण राशि और नाडी वेध द्वारा अवश्य करना चाहिये ॥६४॥
तज्जाणह जोहसामो अ' इति पाठान्तरे । १ योनि गण राशि नाडीवेध इत्यादि का खुलासा प्रतिक्षा संबंधी मुहूर्त के परिशिह में देखो
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(#)
परिभाषा -
श्रोवर 'नाम साला जेरोग दुसालु भगणए गेहं । गहनामं च अलिंदो इग द तिऽलिंदोह पटसालो ॥६५॥ पटसालवार दुहु दिसि जालियभित्तीहिं मंडवो हवइ । पिठ्ठी दाणिवा दिनामेहिं गुजारी ॥ ६६ ॥ जालियनामं मूसा थंभयनामं च हवइ खडदारं । भारपट्टो य तिरियो पीढ कडी धरण एगट्ठा ॥ ६७ ॥ योवरय पट्टसाला पज्जंतं मूलगेह नायव्वं । एस चैव गणियं रंधणगेद्दाइ गिहभूसा ॥ ६८ ॥
ओरडे ( कमरे ) का नाम शाला है। जिसमें एक दो शालायें हों उसको
बर कहते हैं। गइ नाम अलिंद ( गृहद्वार के आगे का दालान ) का है। जहां एक दो या तीन अलिंद हों उसको पटशाला कहते हैं ।। ६५ ।।
पटशाला के द्वार के दोनों तरफ खिड़की ( झरोखा ) युक्त दीवार और मंडप होता है । पिछले भाग में तथा दाहिनी और बायीं तरफ जो अलिन्द हो उसको गुजारी कहते हैं ॥ ६६ ॥
जालिय नाम भूषा ( छोटा दरवाजा ) का है । खंभे का नाम पद्दारु है। स्तंभ के उपर तीर्च्छा जो मोटा काष्ट रहता है उसको भारवट कहते है । पीठ की र धरण ये तीनों एक अर्थवाची नाम हैं ॥६७॥
बास्तुखारे
ओरडे से पटशाला तक मुख्य घर जानना चाहिये और बाकी जो रसोई घर आदि हैं वे सब मुख्य घर के आभूषण हैं ||६८||
घरों के भेदों का प्रकार
१'' ''
श्रोवर-लिंद गई गुजारि-भित्तीण पट्ट थंभाण । जालियमंडवाणय भेएण गिहा उवज्जंति ॥ ६६॥
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गृह प्रकरणम्
(14)
शाला, अलिन्द ( गति ), गुजारी, दीवार, पट्टे, स्तंभ, झरोखे और मंडप आदि के भेदों से अनेक प्रकार के घर बनते हैं ||६६ ||
चउदस गुरुपत्थारे लहुगुरुभे एहिं सालमाईणि । जायंति सव्वगेहा सोलसहस्स - तिसय-चुलसीश्रा ॥७०॥
जिस प्रकार लघु गुरु के भेदों से चौदह गुरु अक्षरों का प्रस्तार बनता है, उसी प्रकार शाला मलिंद आदि के भेदों से सोलह हजार तीन सौ चोरासी (१६३८४) प्रकार के घर बनते हैं ॥ ७० ॥
ततो य जिंकिवि संपइ वट्टेति धुवाइ संतगाईणि । ताणं चिय नामाई लक्खणचिन्हाई वुच्छामि ॥७१॥
इसलिये आधुनिक समय में जो कुछ भी धवादि और शांतनादि घर हैं, उनके नाम आदि को इकट्ठे करके उनके लक्षण और चिह्नों को मैं ( ठक्कुर 'फेरू' ) कहता हूं ॥ ७१ ॥
भुवादि घरों के नाम
धुव- धन्न जया नंद- खर- कंत- मणोरमा सुमुह- दुमुहा । क्रूर- सुपक्ख धणद- खय- आक्कंद - विउल- विजया गिहा ॥७२॥
ध्रुव, धान्य, जय, नंद, खर, कान्त, मनोरम, सुमुख, दुर्मुख, क्रूर, सुपच, धनद, क्षय, आक्रंद, विपुल और विजय ये सोलह घरों के नाम हैं ॥ ७२ ॥ प्रस्तार विधि—
चत्तारि गुरू ठविडं लहु यो गुरुहिट्ठि सेस उवरिसमा । ऊहिं गुरू एवं पुणो पुणो जाव सव्व लहू ॥७३॥
चार गुरु अक्षरों का प्रस्तार बनावे । प्रथम पंक्ति में चारों अक्षर गुरु लिखे ।
• 'कोई प्रन्थ में 'विपक्ष' नाम दिया है।
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पास्तुलारे पीछे नीचे की दूसरी पंक्ति में प्रथम गुरु के स्थान के नीचे एक लघु अक्षर लिखकर बाकी ऊपर के बगबर लिखना चाहिये, पीछे नीचे की तीसरी पंक्ति में ऊपर के लघु अक्षर के नीचे गुरु और गुरु अक्षर के नीचे एक लघु अक्षर लिखकर बाकी ऊपर के समान लिखना चाहिये । इसी प्रकार सब लघु अक्षर हो जाय वहां तक क्रिया करें। लघु गुरु जानने के लिये लघु अक्षर का (1) ऐसा और गुरु अक्षर का (5) ऐसा चिड करें । विशेष देखो नीचे की प्रस्तार स्थापना. ssss
sss। Isss Siss
ऽ । ऽ। ।। ss
।। । ss
55 ।। | 5 | 5
15 ।। । ७ ।।
5 । । ।
१४
सुवादि सोलह घरों का प्रस्तार
तं धुव धन्नाईणं पुव्वाइ-लहुहिं सालनायव्वा । गुरुठाणि मुणह भित्ती नाम समं हवइ फलमेसि ॥७॥
जैसे चार गुरु अक्षरवाले छंद के सोलह भेद होते हैं, उसी प्रकार घर के प्रदक्षिण क्रम से लघुरूप शाला द्वारा ध्रुव धान्य आदि सोलह प्रकार के घर बनते हैं। लघु के स्थान में शाला और गुरु के स्थान में दीवार जानना चाहिये । जैसे प्रथम चारों ही गुरु अक्षर हैं तो इसी तरह घर के चारों ही दिशा में दीवार है अर्थात् घर की कोई दिशा में शाला नहीं है । प्रस्तार के दूसरे भेद में प्रथम लघु है, तो यहां दूसरा धान्य नाम के घर की पूर्व दिशा में शाला समझना चाहिये । तीसरे मेद में दूसरा लघु है, तो तीसरे जय नाम के घर के दक्षिण में शाला और चौथे भेद में प्रथम दो लघु है तो चौथा नंद नामक घर के पूर्व और दक्षिण में एक २ शाला है,
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इसी प्रकार सब समझना चाहिये । इन ध्रुवादि गृहों का फल नाम सदृश जानना चाहिये । विशेष सोलह घरों का प्रस्तार देखो ।
ध्रुव १
SSSS
खर ५
SSIS
दुर्मुख ९
T
5551
धान्य २
ISSS
कान्त ६
ISIS
कर १०
गृह प्रकरणम्
1551
क्षय १३
JE
ISI1
आकन्द १४
जय ३
SISS
मनोरम ७
SIIS
सुपक्ष ११
SISI
विपुल १५
T
5111
11
वादिक घरों का फल समरांगण में कहा है कि
"नवे जयमाप्नोति धन्ये धान्यागमो भवेत् । जये सपत्नाञ्जयति नन्दे सर्वाः समृद्धयः ॥
नंदभ
Niss
सुमुख
1115
( ४१ )
1
1
धनद १२
IISI
विजय १६
Ll
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(४२)
वास्तुलारे
खरमायासदं वेश्म कान्ते च लभते श्रियम् । आयुरारोग्यमैश्वर्य तथा वित्तस्य सम्पदः ॥ मनोरमे मनस्तुष्टि-गृहभर्तुः प्रकीर्तिता । सुमुखे राजसन्मानं दुर्मुखे कलहः सदा ॥ क्रूरव्याधिभयं क्रूरे सुपक्षं गोत्रवृद्धिकृत् । धनदे हेमरत्नादि गाश्चैव लभते पुमान् ।। क्षयं सर्वक्षयं गेह-माक्रन्दं ज्ञातिमृत्युदम् ।
प्रारोग्यं विपुले ख्याति-विजये सर्वसम्पदः॥" ध्रुव नाम का प्रथम घर जयकारक है । धन्य नाम का घर धान्यवृद्धि कारक है जय नाम का घर शत्रु को जीतनेवाला है । नंद नाम का घर सब प्रकार की समृद्धि दायक है। खर नाम का घर क्लेश कारक है । कान्त नाम के घर में लक्ष्मी की प्राप्ति तथा आयुष, आरोग्य, ऐश्वर्य और सम्पदा की वृद्धि होती है । मनोरम नाम का घर घर के स्वामी के मन को संतुष्ट करता है । सुमुख नाम का घर राजसन्मान देने वाला है । दुर्मुख नाम का घर सदा क्लेशदायक है क्रूर नाम का घर भयंकर व्याधि और भय को करनेवाला है। सुपक्ष नाम का घर कुटुम्ब की वृद्धि करता है । धनद नाम के घर में सोना रत्न गौ इनकी प्राप्ति होती है । क्षय नाम का घर सब क्षय करनेवाला है। आनंद नाम का घर ज्ञातिजन की मृत्यु करनेवाला है। विपुल नाम का-घर आरोग्य और कीर्तिदायक है । विजय नाम का घर सब प्रकार की सम्पदा देनेवाला है। शान्तनादि चौसठ विशाल घरों के नाम
संतण संतिद वड्ढमाणं कुक्कुडा सत्थियं च हंसं च । वद्धण कब्बुर संता हरिसणं विउला करालं च ॥७॥ वितं चित्तं धन्नं कालदंडं तहेव बंधुदं ।
पुत्तद सव्वंगा तह वीसइमं कालचक्कं ( च ) ॥७६॥ A 'संतद' इति पाठान्तरे।
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गृह प्रकरणम्
८१
3.
४२.
YY
( ४३ ) तिपुरं सुंदर नीला कुडिलं सासय य सत्थदा सीलं । कुट्टर सोम सुभदा तह भद्दमाणं च कूरक्कं ॥७॥ सीहिर य सव्वकामय पुष्टिद तह कित्तिनासणा नामा। सिणगार सिरीवासा सिरीसोभ तह कित्तिसोहणया ॥७॥ जुगसीहर बहुलाहा लच्छिनिवासं च कुविय उज्जोया । बहुतेयं च सुतेयं कलहावह तह विलासा य ॥७॥ बहूनिवासं पुडिद कोहसन्निहं महंत महिता य । दुक्खं च कुलच्छेयं पयाववद्धण य दिव्वा य ॥८॥ बहुदुक्ख कंठच्छेयण जंगम तह सीहनाय हत्थीज। कंटक इइ नामाई लक्खण-भेयं अश्रो वुच्छं ॥१॥
४८
शान्त्वन (शांतन)१, शान्तिद २, वर्द्धमान ३, कुक्कुट ४, स्वस्तिक ५, हंस ६, वर्द्धन ७, कबूर ८, शान्त ६, हर्षण १०,विपुल ११, कराल १२, वित्त १३, चित्त (चित्र) १४, धन १५, कालदंड १६, बंधुद १७, पुत्रद १८, सर्वांग १६, कालचक्र २०, त्रिपुर २१, सुन्दर २२, नील २३, कुटिल २४, शाश्वत २५, शास्त्रद २६, शील २७, कोटर २८, सौम्य २६, सुभद्र ३०, भद्रमान ३१, क्रूर ३२, श्रीधर ३३, सर्वकामद ३४, पुष्टिद ३५, कीर्तिनाशक ३६, शृंगार ३७, श्रीवास ३८, श्रीशोभ ३६, कीर्तिशोभन ४०, युग्मशिखर (युग्मश्रीधर ) ४१, बहुलाभ ४२, लक्ष्मीनिवास ४३, कुपित ४४, उद्योत ४५, बहुतेज ४६, सुतेज ४७, कलहावह ४८, विलाश ४६, बहुनिवास ५०, पुष्टिद ५१, क्रोधसन्निभ ५२, महंत ५३, महित ५४, दुःख ५५, कुलच्छेद ५६, प्रतापवर्द्धन ५७, दिव्य ५८. बहुदुःख ५६, कंठछेदन ६०,
A · जंग | B छंद।
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(४४ )
वास्तुसारे
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जंगम ६१, सिंहनाद ६२, हस्तिज ६३ और कंटक ६४ इत्यादि ६४ घरों के नाम कहे हैं। अब इनके लक्षण और भेदों को कहता हूं ॥ ७५ से ८१ ॥ द्विशाल घर के लक्षण राजवल्लभ में इस प्रकार कहा है
"अथ द्विशालालयलक्षणानि, पदैनिमिः कोष्टकरंध्रसंख्या ।
तन्मध्यकोष्टं परिहृत्य युग्मं, शालाश्चतस्रो हि भवन्ति दितु ॥"
दो शाला वाले घर इस प्रकार बनाये जाते हैं कि-द्विशाल घर वाली भूमि की लम्बाई और चौड़ाई के तीन २ भाग करने से नौ भाग होते हैं। इनमें से मध्य भाग को छोड़ कर बाकी के आठ भागों में से दो २ भागों में शाला बनानी चाहिये । और बाकी की भूमि खाली रखना चाहिये । इसी प्रकार चार दिशाओं में चार प्रकार की शाला होती है। याम्याग्निगा च करिणी धनदाभिवक्त्रा, पूर्वानना च महिषी पितृवारुणस्था । गावी यमाभिवदनापि च रोगसोमे, छागी महेन्द्रशिवयोर्वरुणाभिवक्त्रा ॥"
दक्षिण और अग्निकोण के दो भागों में दो शाला हों और इनके मुख उत्तर दिशा में हों तो उन शालाओं का नाम करिणी ( हस्तिनी) शाला है। नैऋत्य और पश्चिम दिशा के दो भागों में पूर्व मुखवाली दो शाला हों उन का नाम 'महिषी' शाला है। वायव्य और उत्तर दिशा के दो भागों में दक्षिण मुखवाली दो शाला हों उनका नाम 'गावी' शाला है। पूर्व और ईशानकोण के दो भागों में पश्चिम मुखवाली दो शाला हो उनका नाम 'छागी' शाला है।
करिणी (हस्तिनी) और महिषी ये दो शाला इकट्ठी हों ऐसे घर का नाम 'सिद्धार्थ' है, यह नाम सदृश शुभफलदायक है । गावी और महिषी ये दो शाला इकट्ठी हों ऐसे घर का नाम 'यमसूर्प' है, यह मृत्यु कारक है। छागी और गावी ये दो शाला इकट्ठी हो ऐसे घर का नाम 'दंड' है, यह धन की हानि करनेवाला है । हस्तिनी और छागी ये दो शाला इकट्ठी हों ऐसे घर का नाम 'काच' है, यह हानि कारक है। गावी और हस्तिनी ये दो शाला इकट्ठी हों ऐसे घर का नाम 'चुल्हि' है, यह घर अच्छा नहीं है । इस प्रकार
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गृह प्रकरणम्
(४५)
अनेक तरह के घर बनते हैं, विशेष जानने के लिये समरांगण और राजवल्लभ आदि ग्रंथ देखना चाहिये। शान्तनादि घरों के लक्षण
केवल ग्रोवरयदुगं संतणनामं मुणेह तं गेहं । तस्सेव मज्झि पढें मुहेगालिंदं च सत्थियगं ॥२॥
फक्त दो शालावाले घर को 'शान्तन' नाम का घर कहते हैं । अर्थात् जिस घर में उत्तर दिशा के मुखवाली दो शाला (हस्तिनी) हो वह 'शान्तन' नाम का घर जानना चाहिये । पूर्व दिशा के मुखवाली दो शाला (महिषी) हो वह 'शान्तिद' नाम का घर है । दक्षिण मुखवाली दो शाला ( गावी ) हो वह 'वर्द्धमान' घर है । पश्चिम मुखवाली दो शाला (छागी) हो यह 'कुक्कुट' घर है।
इसी प्रकार शान्तनादि चार द्विशाल वाले घरों के मध्य में पीड़ा (षड्दारु दो पीढ़े और चार स्तंभ) हो और द्वार के आगे एक २ अलिन्द हो तो स्वस्तिकादि चार प्रकार के घर बनते हैं। जैसे-शान्तन नामके द्विशाल घर के मध्य में पटदारु और मुख के आगे एक अलिन्द हो तो यह 'स्वस्तिक' नाम का घर कहा जाता है । शान्तिद नाम के द्विशाल घर के मध्य में षटदारु और मुख के आगे एक अलिन्द हो तो यह 'हंस' नाम का घर कहा जाता है । वर्द्धमान नाम के द्विशाल घर के मध्य में षटदारु और मुख के आगे एक अलिन्द हो तो यह 'वर्द्धन' नाम का घर कहा जाता है। कुक्कुट नाम के द्विशाल घर के मध्य में षटदारु और मुख के आगे एक अलिन्द हो तो यह 'कर्पूर' नाम का घर कहा जाता है ॥२॥
सत्थियगेहस्सग्गे अलिंदु बीयो अतं भवे संतं। संते गुजारिदाहिण थंभसहिय तं हवइ वित्तं ॥३॥
स्वस्तिक घर के आगे दूसरा एक अलिन्द हो तो यह 'शान्त' नाम का घर कहा जाता है । हंस घर के आगे दूसरा अलिन्द हो तो यह 'हर्षण' घर कहा जाता है । वर्द्धन घर के आगे दूसरा अलिन्द हो तो यह 'विपुल घर कहा जाता है । क—र घर के आगे दूसरा अलिन्द हो तो यह 'कराल' घर कहा जाता है ।
शान्त घर के दक्षिण तरफ स्तंभवाला एक अलिन्द हो तो यह 'वित्त'
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( ४६ )
वास्तुसार
घर कहा जाता है । हर्षण घर के दक्षिण तरफ स्तंभवाला अलिन्द हो तो यह 'चित्त' (चित्र) घर कहा जाता है । विपुल घर के दक्षिण और स्तंभवाला एक अलिन्द हो तो यह 'धन' घर कहा जाता है । कराल घर के दक्षिण और स्तंभवाला लिन्द हो तो यह 'कालदंड' घर कहा जाता है ।
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वित्तगिहे वामदिसे जइ हवइ गुजारि ताव बंधूदं । गुजारि पिट्ठि दाहिण पुरो दु अलिंद तं तिपुरं ॥ ८४ ॥
कालदंड ४
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गृह प्रकरणम्
वित्त घर के बांयी ओर यदि एक अलिन्द हो तो यह बंधुद' घर कहा जाता है । चित्त घर के बांयी ओर एक अलिन्द हो तो यह 'पुत्रद' घर कहा जाता है। धन घर के बांयी ओर एक अलिन्द हो तो यह 'सर्वांग' घर कहा जाता है । कालदंड घर के बांयी ओर एक लिंद हो तो यह 'कालचक्र' घर कहा जाता है।
शान्तन घर के पिछले भाग में और दाहिनी तरफ एक २ अलिंद तथा आगे दो अलिन्द हो तो यह 'त्रिपुर' घर कहा जाता है । शान्तिद घर के पिछले भाग में और दाहिनी तरफ एक २ अलिन्द तथा आगे दो अलिन्द हो तो यह 'सुंदर घर कहा जाता है। वर्द्धमान घर के पीछे और दाहिनी तरफ एक २ अलिन्द तथा आगे दो अलिन्द हो तो यह 'नील' घर कहा जाता है । कुक्कुट घर के पीछे और दाहिनी तरफ एक २ अलिन्द तथा आगे दो अलिन्द हो तो यह 'कुटिल' घर कहा जाता है ॥८४॥
पिट्टी दाहिणवामे इगेग गुंजारि पुरउ दु अलिंदा । तं सासयं श्रावासं सव्वाण जणाण संतिकरं ॥५॥
शान्तन घर के पीछे दाहिनी और बांयी तरफ एक २ अलिन्द हो तथा आगे की तरफ दो अलिन्द हो तो यह 'शाश्वत' घर कहा जाता है, यह घर समस्त मनुष्यों को शान्तिकारक है । शान्तिद घर के पीछे दाहिनी और बांयी तरफ एक २ अलिन्द हो तथा आगे दो अलिन्द हो तो यह 'शास्त्रद' घर कहा जाता है। वर्द्धमान घर के पीछे दाहिनी और बांयी तरफ एक २ अलिन्द हो तथा आगे दो अलिन्द हो तो यह 'शील' नामक घर कहा जाता है । कुक्कुट घर के पीछे दाहिनी और बांयी तरफ एक २ अलिन्द हो तथा भागे की तरफ दो मलिन्द हो तो यह 'कोटर' घर कहा जाता है ॥८॥
दाहिणावाम इगगं अलिंद जुअलस्स मंडवं पुरो। *श्रोवरयमज्झि थंभो तस्स य नाम हवइ सोमं ॥८६॥
शान्तन घर के दाहिनी और बांयी तरफ एक २ अलिन्द तथा आगे दो मलिन्द मंडप सहित हो, एवं शाला के मध्य में स्तंभ हो तो यह 'सौम्य घर
* ' उवरणमझे अभय ' इति पाठान्तरे ।
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( ४८ )
वास्तुसारे
कहा जाता है । शान्तिद घर के दाहिनी और बांयी तरफ एक २ लिन्द और आगे दो अलिन्द मंडप सहित हो तथा शाला के मध्य में स्तंभ हो तो यह 'सुभद्र' घर कहा जाता है । वर्द्धमान घर के दाहिनी और बांयी तरफ एक २ लिन्द हो तथा आगे दो अलिन्द मंडप सहित हो और शाला के मध्य में स्तंभ हो तो यह 'भद्रमान ' घर कहा जाता है । कुक्कुट घर के दाहिनी और बांयी तरफ एक २ अलिन्द हो तथा आगे दो अलिन्द मंडप सहित हो साथ ही शाला के मध्य में स्तंभ हो तो यह 'क्रूर' घर कहा जाता है ॥ ८६ ॥
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गृह प्रकरणम्
पुरो थलिंदतियगं तिदिसिं इक्किक थंभयपट्टसमेयं सीधरनामं च तं संतत घर के मुख आगे तीन अलिन्द और बाकी की तीनों दिशाओं में एक २ गुंजारी (अलिन्द ) हो, तथा शाला में पद्दारु ( स्तंभ और पीढे ) भी हो तो यह 'श्रीधर' घर कहा जाता है। शांतिद घर के मुख आगे तीन अलिन्द और तीनों दिशाओं में एक २ गुंजारी, स्तंभ और पीढे सहित हो ऐसे घर का नाम 'सर्वकामद' कहा जाता है । वर्द्धमान घर के मुख आगे तीन अलिन्द और तीनों दिशाओं में एक २ अलिन्द, स्तंभ और पीढे सहित हो तो यह 'पुष्टिद' घर कहा जाता है । कुक्कुट घर के मुख आगे तीन अलिन्द और तीनों दिशाओं में एक २ अलिन्द दद्दा समेत हो तो यह 'कीर्तिविनाश' घर कहा जाता है ॥८७॥
हवइ गुंजारी । गेहं ॥ ८७ ॥
गुंजारियल तिहुं दिसि दुलिंद मुहे य थंभपरिकलियं । मंडवजालियसहिया सिरिसिंगारं तयं बिंति ॥ ८८ ॥
( ४६ )
जिस द्विशाल घर की तीनों दिशाओं में दो २ गुंजारी और मुख के श्रागे दो अलिन्द, मध्य में षद्दारु और अलिन्द के आगे खिड़की युक्त मंडप हो ऐसे घर का मुख यदि उत्तर दिशा में हो तो यह 'श्रीशृंगार', पूर्व दिशा में मुख हो तो यह 'श्रीनिवास', दक्षिण दिशा में मुख हो तो यह 'श्रीशोभ' और पश्चिम दिशा में मुख हो तो यह 'कीर्तिशोभन' घर कहा जाता है ||८||
तिनि लिंदा पुरो तस्सग्गे भदु सेसपुव्व्व । तं नाम जग्गसीधर बहुमंगल रिद्धि-श्रावासं ॥ ८१ ॥
.
जिस द्विशाल घर के मुख आगे तीन अलिन्द हों और इनके आगे भद्र हो बाकी सब पूर्ववत् अर्थात् तीनों दिशा में दो २ गुंजारी, बीच में पद्दारु (स्तंभ- पीढे ) और अन्द के आगे खिड़की युक्त मंडप हो ऐसे घर का मुख यदि उत्तर दिशा में हो तो यह 'युग्मश्रीधर' घर कहा जाता है, यह घर बहुत मंगलदायक और ऋद्धियों का स्थान है। इसी घर का मुख यदि पूर्व दिशा में हो तो 'बहुलाभ,' दक्षिण दिशा में हो तो 'लक्ष्मीनिवास' और पश्चिम में मुख हो तो 'कुपित' घर कहा जाता है || दुलिंद - मंडवं तह जालिय पिट्ठेग दाहिगो दु गई । भित्तितरिथंभजुया उज्जोयं नाम धणनिलयं ॥ १० ॥
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( ५
)
वास्तुसारे
जिस द्विशाल घर के मुख आगे दो अलिन्द और खिड़की युक्त मंडप हो तथा पीछे एक अलिन्द और दाहिनी तरफ दो अलिन्द हों, एवं स्तंभयुक्त दीवार भी हो ऐसे घर का मुख यदि उत्तर दिशा में हो तो यह 'उद्योत' घर कहा जाता है। यह घर धन का स्थान रूप है। इसी घर का मुख यदि पूर्व दिशा में हो तो 'बहुतेज', दक्षिण दिशा में हो तो 'सुतेज' और पश्चिम में मुख हो तो 'कलहावह घर कहा जाता है ॥१०॥
श्रीधर
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गृह प्रकरणम्
उज्जोअगेहपच्छइ दाहिणए दु गइ भित्तिअंतरए। जह हुंति दो भमंती विलासनामं हवइ गेहं ॥ ११ ॥
उद्योत घर के पीछे और दाहिनी तरफ दो २ अलिन्द दीवार के भीतर हो जैसे घर के चारों ओर घूम सके ऐसे दो प्रदक्षिणा मार्ग हो ऐसे घर का मुख यदि उत्तर में हो तो वह 'विलाश' नाम का घर कहा जाता है । इसी घर का मुख यदि पूर्व दिशा में हो तो 'बहुनिवास,' दक्षिण दिशा में हो तो 'पुष्टिद' और पश्चिम में मुख हो तो 'क्रोधसन्निभ' घर कहा जाता है ॥६१॥ - तिं अलिंद मुहस्सग्गे मंडवयं सेसं विलासुव्व । तं गेहं च महंतं कुणइ महड्ढि वसंताणं ॥१२॥
विलास घर के मुख आगे तीन अलिन्द और मंडप हो तो यह 'महान्त' घर कहा जाता है । इसमें रहनेवाले को यह घर महा ऋद्धि करनेवाला है । इसी घर का मुख यदि पूर्व दिशा में हो तो 'माहित', दक्षिण दिशा में हो तो 'दुःख' और पश्चिम दिशा में हो तो 'कुलच्छेद' घर कहा जाता है ॥१२॥
मुहि ति अलिंद समंडव जालिय तिदिसेहि दुदु य गुजारी। मज्झि वलयगयभित्ती जालिय य पयाववद्धणयं ॥ १३ ॥
जिस द्विशाल घर के मुख आगे तीन अलिन्द, मंडप और खिड़की हों तथा तीनों दिशाओं में दो २ गुंजारी (अलिन्द ) हों तथा मध्य बलय के दीवार में खिड़की हो, ऐसे घर का मुख यदि उत्तर दिशा में हो तो 'प्रतापवर्द्धन', पूर्व दिशा में हो तो 'दिव्य', दक्षिण दिशा में हो तो 'बहुदुःख' और पश्चिम दिशा में मुख हो तो 'कंठछेदन' घर कहा जाता है ॥६॥
पयाववद्धणे जइ थंभय ता हवइ जंगम' सुजसं । इन सोलसगेहाई सव्वाइं उत्तरमुहाई ॥१४॥
, 'जंगजं' । इति पाठअन्तरे ।
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( ५२ )
वास्तुसारे
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प्रतापवर्द्धन घर में यदि पदारु (स्तंभ-पीढा ) हो तो यह 'जंगम' नाम का घर कहा जाता है, यह अच्छा यश फैलानेवाला है। इसी घर का मुख यदि पूर्व दिशा में हो तो 'सिंहनाद', दक्षिण दिशा में हो तो 'हस्तिज' और पश्चिम दिशा में हो तो कंटक' घर कहा जाता है । इसी तरह शंतनादि ये सोलह घर सब उत्तर मुखवाले हैं ॥४॥
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गृह प्रकरणम्
( ५३ ) एयाई चिय पुव्वा दाहिणपच्छिममुहेण बारेण। नामंतरेण अन्नाई तिनि मिलियाणि चउसट्ठी ॥ १५ ॥
ऊपर जो शांतनादि क्रमसे सोलह घर कहे हैं, उन प्रत्येक के पूर्व दक्षिण और पश्चिम मुख के द्वार भेदों को दूसरे तीन २ घरों के नाम क्रमशः इनमें मिलाने से प्रत्येक के चार २ रूप होते हैं। इस तरह इन सब को जोड़ लेने से कुल चौसठ नाम घर के होते हैं ॥६५॥ दिशाओं के भेदों से द्वार को स्पष्ट बतलाते हैंतथाहि-संतणमुत्तरबारं तं चिय पुवुमुहु संतदं भणियं।
जम्ममुहवड्ढमाणं अवरमुहं कुक्कुडं तहन्नेसु ॥ १६ ॥
जैसे-शांतन नाम के घर का मुख उत्तर दिशा में, शान्तिद घर का मुख पूर्व दिशा में, वर्धमान घर का मुख दक्षिण दिशा में और कुक्कुट घर का मुख पश्चिम दिशा में है । इसी तरह दूसरे भी चार २ घरों के मुख समझ लेना चाहिये । ये मैंने पहिले से ही खुलासा पूर्वक लिख दिये हैं ॥१६॥ अब सूर्य आदि पाठ घरों का स्वरूपयथा-अग्गे* अलिंदतियगं इकिकं वामदाहिणोवरयं ।
थंभजुग्रं च दुसालं तस्स य नामं हवइ सूरं ॥ १७ ॥
जिस द्विशाल घर के आगे तीन अलिन्द हो, तथा बांयी और दाहिनी तरफ एक २ शाला स्तंभयुक्त हो तो यह 'सूर्य' नाम का घर कहा जाता है ॥१७॥
वयणे य चउ अलिंदा उभयदिसे इक्कु इक्कु ग्रोवरयो । नामेण वासवं तं जुगअंतं जाव वसइ धुवं ॥ १८ ॥
जिस द्विशाल घर के आगे चार अलिन्द हो, तथा बांयी और दाहिनी तरफ एक २ शाला हो तो यह 'वास' नाम का घर कहा जाता है। इस में रहने वाले युगान्त तक स्थिर रहते हैं ॥१८॥
* 'भाएं' इति पाठान्तरे।
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( ५४ )
वास्तुसारे
मुहि ति अलिंद दुपच्छइ दाहिणवामे श्र हवइ इक्किक्कं । तं गिहनामं वीयं हियच्छियं चउसु वन्नाणं ॥ ११ ॥
जिस द्विशाल घर के आगे तीन अलिन्द, पीछे की तरफ दो अलिन्द, तथा दाहिनी और बांयी तरफ एक २ अलिन्द हो तो उस घर का नाम 'वीर्य' कहा जाता है । यह चारों वर्षों का हितचिन्तक है ॥६६॥
दो पच्छइ दो पुरयो अलिंद तह दाहिणे हवइ इक्को । कालक्खं तं गेहं अकालिदंडं कुणइ नृणं ॥ १०० ॥
जिस द्विशाल घर के आगे और पीछे दो २ अलिन्द तथा दाहिनी भोर एक अलिन्द हो तो यह 'काल' नाम का घर कहा जाता है । यह निश्चय से अकालदंड ( दुर्भिक्षता ) करता है ॥१०॥
अलिंद तिनि वयणे जुअलं जुअलं च वामदाहिणए । एगं पिट्टि दिसाए बुद्धी संबुद्धिवड्ढणयं ॥ १०१ ॥
जिस द्विशाल घर के आगे तीन अलिन्द तथा बांयी और दक्षिण तरफ दो २ अलिंद और पीछे की तरफ एक अलिन्द हो ऐसे घर को 'बुद्धि' नाम का घर कहा जाता है । यह सबुद्धि को बढानेवाला है ॥१०१।।
दु अलिंद चउदिसेहिं सुब्बयनामं च सवसिद्धिकरं । पुरयो तिन्नि अलिंदा तिदिसि दुगं तं च पासायं ॥ १०२॥
जिस द्विशाल घर के चारों ओर दो दो अलिन्द हों तो यह 'सुव्रत' नाम का घर कहा जाता है, यह सब तरह से सिद्धिकारक है । जिस द्विशाल घर के आगे तीन अलिन्द और तीनों दिशाओं में दो २ अलिन्द हो तो यह 'प्रासाद' नाम का घर कहा जाता है ॥१०२॥
चउरि अलिंदा पुरयो पिहितिगं तं गिहं दुवेहक्खं । इह सूराई गेहा अह वि नियनामसरिसफला ॥ १०३ ॥
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गृह प्रकरणम्
जिस द्विशाल घर के आगे चार अलिन्द और पीछे की तरफ तीन अलिन्द हों उसको 'द्विवेध' नाम का घर कहा जाता है । ये सूर्य आदि आठ घर कहे हैं वे उनके नाम सदृश फलदायक हैं ॥१०३।।
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सुत्रत
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( ५६ )
वास्तुसारे
विमलाइ सुंदराई हंसाई किया प्रभवाई | पम्मोय सिरिभवाई चूडामणि कलसमाई य ॥ १०४ ॥ एमाइयासु सव्वे सोलस सोलस हवंति गितत्तो । satara er r दिसि - अलिंदभेएहिं ॥ १०५ ॥ तिलोयसुंदराई चउसट्ठि गिहाई हुंति रायाणो । ते पुण वट्ट संपर मिच्छा ण च रज्जभावेण ॥ १०६ ॥
विमलादि, सुंदरादि, हंसादि, अलंकृतादि, प्रभवादि, प्रमोदादि, सिरिभवादि चूड़ामणि और कलश आदि ये सब सूर्यादि घर के एक से चार चार दिशाओं के लिन्द के भेदों से सोलह २ भेद होते हैं । त्रैलोक्यसुन्दर यदि चौसठ घर राजाओं के लिए हैं । इस समय गोल घर बनाने का रिवाज नहीं है, किन्तु राज्यभाव से मना नहीं है अर्थात् राजा लोग गोल मकान भी बना सकते हैं ।। १०४ से १०६ ।।
घर में कहां २ किस २ का स्थान करना चाहिये यह बतलाते हैं—
पुव्वे सीहदुवारं श्रग्गी रसोइ दाहिणे सयणं । रह नीहार ठिई भोयग ठिह पच्छिमे भणियं ॥ १०७ ॥ वायव्वे सव्वाउह कोसुत्तर धम्मठागु ईसा । पुव्वाइ विणिद्देसो मूलग्गिहदारविक्खाए ॥
१०८ ॥
मकान की पूर्व दिशा में सिंह द्वार बनाना चाहिये, अग्निकोण में रसोई बनाने का स्थान, दक्षिण में शयन (निद्रा) करने का स्थान, नैऋत्य कोण में निहार ( पाखाने) का स्थान, पश्चिम में भोजन करने का स्थान, वायव्य कोण में सब प्रकार के आयुध का स्थान, उत्तर में धन का स्थान और ईशान में धर्म का स्थान बनाना चाहिये । इन सब का घर के मूलद्वार की अपेक्षा से पूर्वादिक दिशा का विभाग करना चाहिये अर्थात् जिस दिशा में घर का मुख्य द्वार हो उसी ही दिशा को पूर्व दिशा मान कर उपरोक्त विभाग करना चाहिये ।। १०७ से १०८ ॥
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गृह प्रकरणम्
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हार विषयपुवाइ विजयबारं जमबारं दाहिणाइ नायव्वं । अवरेण मयरबारं कुबेरबारं उईचीए ॥१०॥ नामसमं फलमेसिं बारं न कयावि दाहिणे कुज्जा । जइहोइ कारणेणं ताउ चउदिसि अट्ट भाग कायव्वा ॥११०॥ सुहबार अंसमज्झे चउसुं पि दिसासु अठभागासु ।
चउ तिय दुन्निछ पण तिय पण तिय पुवाइ सुकम्मेण ॥१११॥ : पूर्व दिशा के द्वार को विजय द्वार, दक्षिण द्वार को यमद्वार, पश्चिम द्वार को मगर द्वार और उत्तर के द्वार को कुबेर द्वार कहते हैं । ये सब द्वार अपने नाम के अनुसार फल देनेवाले हैं। इसलिये दक्षिण दिशा में कभी भी द्वार नहीं बनाना चाहिये । कारणवश दक्षिण में द्वार बनाना ही पड़े तो मध्य भाग में नहीं बना कर नीचे बतलाये हुये भाग के अनुसार बनाना सुखदायक होता है। जैसे मकान बनाये जानेवाली भूमि की चारों दिशाओं में आठ २ भाग बनाना चाहिये । पीछे पूर्व दिशा के आठों भागों में से चौथे या तीसरे भाग में, दक्षिण दिशा के आठों भागों में से दूसरे या छठे भाग में, पश्चिम दिशा के आठों भागों में से तीसरें या पांचवें भाग में तथा उत्तर दिशा के आठों भागों में से तीसरे या पांचवें भाग में द्वार बनाना अच्छा होता है ॥१०६ से १११॥
बाराउ गिहपवेसं सोवाण करिज्ज सिटिमग्गेणं । * पयठाणं सुरमुहं जलकुंभ रसोइ श्रासनं ॥११२॥
द्वार से घर में जाने के लिये सृष्टिमार्ग से अर्थात् दाहिनी ओर से प्रवेश हो, उसी प्रकार सीढियें बनवाना चाहिये..."॥११२॥
समरांगण में शुभाशुभ गृहप्रवेश इस प्रकार कहा है कि__"उत्सङ्गो हीनबाहुश्च पूर्णबाहुस्तयापरः।
प्रत्यक्षायश्चतुर्थश्च निवेश: परिकीर्तितः ॥" * उत्तराई गाथा विद्वानों को विचारणीय है।
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वास्तुसारे
गृहद्वार में प्रवेश करने के लिये प्रथम 'उत्संग' प्रवेश, दूसरा 'हीनबाहु' अर्थात् 'सव्य' प्रवेश, तीसरा 'पूर्णबाहु' अर्थात् 'अपसव्य प्रवेश और चौथा 'प्रत्यक्ष' अर्थात् 'पृष्ठभंग' प्रवेश ये चार प्रकार के प्रवेश माने हैं। इनका शुभाशुभ फल क्रमशः अब कहते हैं।
"उत्संग एकदिक्काभ्यां द्वाराभ्यां वास्तुवेश्मनोः ।
स सौभाग्यप्रजावृद्धि-धनधान्यजयप्रदः ॥" वास्तुद्वार अर्थात् मुख्य घर का द्वार और प्रवेश द्वार एक ही दिशा में हो अर्थात् घर के सम्मुख प्रवेश हो, उसको 'उत्संग' प्रवेश कहते हैं। ऐसा प्रवेश द्वार सौभाग्य कारक, संतान वृद्धि कारक, धनधान्य देनेवाला और विजय करनेवाला है ।
"यत्र प्रवेशतो वास्तु-गृहं भवति वामतः । तद्धीनबाहुकं वास्तु निन्दितं वास्तुचिन्तकैः ॥ तस्मिन् वसन्नल्पवित्तः स्वल्पमित्रोऽल्पांधवः ।
स्त्रीजितश्च भवेन्नित्यं विविधव्याधिपीडितः ॥" _ यदि मुख्य घर का द्वार प्रवेश करते समय बांयी ओर हो अर्थात् प्रथम प्रवेश करने के बाद बांयी ओर जाकर मुख्य घर में प्रवेश हो, उसको 'हीनबाहु' प्रवेश कहते हैं। ऐसे प्रवेश को वास्तुशास्त्र जाननेवाले विद्वानों ने निन्दित माना है। ऐसे प्रवेश वाले घर में रहने वाला मनुष्य अल्प धनवाला तथा थोड़े मित्र बांधव वाला और स्त्रीजित होता है तथा अनेक प्रकार की व्याधियों से पीड़ित होता है ।
'वास्तुप्रवेशतो यत् तु गृहं दक्षिणतो भवेत् । प्रदक्षिणप्रवेशत्वात् तद् विद्यात् पूर्णबाहुकम् ॥ तत्र पुत्रांश्च पौत्रांश्च धनधान्यसुखानि च ।
प्राप्तुवन्ति नरा नित्यं वसन्तो वास्तुनि ध्रुवम् ॥" यदि मुख्य घर का द्वार प्रवेश करते समय दाहिनी ओर हो,अर्थात् प्रथम प्रवेश करने के बाद दाहिनी ओर जाकर मुख्य घर में प्रवेश हो तो उसको 'पूर्णबाहु' प्रवेश कहते हैं। ऐसे प्रवेश वाले घर में रहनेवाला मनुष्य पुत्र, पौत्र, धन, धान्य और सुख को निरंतर प्राप्त करता है ।
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गृह प्रकरणम्
"गृहपृष्ठं समाश्रित्य वास्तुद्वारं यदा भवेत् ।
प्रत्यक्षायस्त्वसौ निन्द्यो वामावर्त्तप्रवेशवत् ॥" यदि मुख्य घर की दीवार घूमकर मुख्य घर के द्वार में प्रवेश होता हो तो 'प्रत्यक्ष' अर्थात् 'पृष्ठ भंग' प्रवेश कहा जाता है । ऐसे प्रवेशवाला घर हीनबाहु प्रवेश की तरह निंदनीय है।
घर और दुकान कैसे बनाना चाहियेसगडमुहा वरगेहा कायव्वा तह य हट्ट वग्धमुहा । बाराउ गिहकमुच्चा हटुच्चा पुरउ मज्म समा ॥११३॥ . गाड़ी के अग्र भाग के समान घर हो तो अच्छा है, जैसे गाड़ी के आगे का हिस्सा सकड़ा और पीछे चौड़ा होता है, उसी प्रकार घर द्वार के आगे का भाग सकड़ा
और पीछे चौड़ा बनाना चाहिये । तथा दुकान के आगे का भाग सिंह के मुख जैसे चौड़ा बनाना अच्छा है । घर के द्वार भाग से पीछे का भाग ऊंचा होना अच्छा है। तथा दुकान के आगे का भाग ऊंचा और मध्य में समान होना अच्छा है ॥११३॥ .
द्वार के उदय ( ऊंचाई ) और विस्तार (चौड़ाई) का मान राजवल्लभ में इस प्रकार कहा है
षष्ट्या वाथ शतार्द्धसप्ततियुतै-यासस्य हस्ताङ्गलैरिस्योदयको भवेच्च भवने मध्यः कनिष्ठोत्तमौ । दैार्द्धन च विस्तरः शशिकला-भागोधिकः शस्यते,
दैर्ध्यात् त्र्यंशविहीनमर्द्धरहितं मध्यं कनिष्ठं क्रमात् ॥" घर की चौड़ाई जितने हाथ की हो, उतने ही अंगुल मानकर उसमें साठ अंगुल और मिला देना चाहिये । ये कुल मिलकर जितने अंगुल हो उतनी ही द्वार की ऊंचाई बनाना चाहिये, यह ऊंचाई मध्यम नाप की है । यदि उसी संख्या में पचास अंगुल मिला दिये जाय और उतने द्वार की ऊंचाई हो तो वह कनिष्ठ मान की ऊंचाई जानना चाहिये । यदि उसी संख्या में सत्तर ७० अंगुल मिला देने से जो संख्या होती है उतनी दरवाजे की ऊंचाई हो तो वह ज्येष्ठ मान का उदय जानना चाहिये।
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वास्तुलारे
दरवाजे की ऊंचाई जितने अंगुल की हो उसके आधे भाग में ऊंचाई के सोलहवें भाग की संख्या को मिला देने से जो कुल नाप होती है, उतनी ही दरवाजे की चौड़ाई की जाय तो वह श्रेष्ठ है। दरवाजे की कुल ऊंचाई के तीन भाग बराबर करके उसमें से एक भाग अलग कर देना चाहिये । बाकी के दो भाग जितनी दरवाजे की चौड़ाई की जाय तो वह मध्यम द्वार कहा जाता है । यदि दरवाजे की ऊंचाई के आधे भाग जितनी चौड़ाई की जाय तो वह कनिष्ठ मानवाला द्वार जानना चाहिये । द्वार के उदय का दूसरा प्रकार
"गृहोत्सेधेन वा त्र्यंशहानेन स्यात् समुच्छ्रितिः ।
तदन तु विस्तारो द्वारस्येत्यपरो विधिः॥" घर की ऊंचाई के तीन भाग करना, उसमें से एक भाग अलग करके बाकी दो भाग जितनी द्वार की ऊंचाई करना चाहिये। और ऊंचाई से आधे द्वार का विस्तार करना चाहिये । यह द्वार के उदय और विस्तार का दूसरा प्रकार है। घर की ऊंचाई का फल
पुवुच्चं अत्थहरं दाहिण उच्चघरं धणसमिद्धं । अवरुचं विद्धिकरं उव्वसियं उत्तराउच्चं ॥११४॥
अपूर्व दिशा में घर ऊंचा हो तो लक्ष्मी का नाश, दक्षिण दिशा में घर ऊंचा हो तो धन समृद्धियों से पूर्ण, पश्चिम दिशा में घर ऊंचा हो तो धन धान्यादि की वृद्धि करने वाला और उत्तर तरफ घर ऊंचा हो तो उजाड़ (बस्ती रहित) होता है ॥११॥
घर का भारम्भ प्रथम कहाँ से करना चाहिये यह बतलाते हैंमूलाग्रो श्रारंभो कीरइ पच्छा कमे कमे कुज्जा। सव्वं गणिय-विसुद्धं वेहो सव्वत्थ वज्जिज्जा॥११५॥
सब प्रकार के भूमि आदि के दोषों को शुद्ध करके जो मुख्य शाला (घर) है, वहीं से प्रथम काम का आरम्भ करना चाहिये । पश्चात् क्रम से दूसरी दूसरी
* यहाँ पूर्वादि विशा घर के द्वार की अपेक्षा से समझना चाहिये अर्थात् घर के द्वार को पूर्व दिशा मानकर सब दिया समझ लेना चाहिये।
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गृह प्रकरणम्
(६१)
जगह कार्य शुरू करना चाहिये। किसी जगह आय व्यय आदि के क्षेत्रफल में दोष नहीं आना चाहिये, एवं वेध तो सर्वथा छोड़ना ही चाहिये ॥११॥ ___ सात प्रकार के वेधतलवेह-कोणवेहं तालुयवेहं कवालवेहं च । तह थंभ-तुलावेहं दुवारवेहं च सत्तमयं ॥११६॥
तलवेध, कोणवेध, तालुवेध, कपालवेध, स्तंभवेध, तुलावेध और द्वारवेध, ये सात प्रकार के वेध हैं ॥११६॥ ' समविसमभूमि कुंभि अ जलपुरं परगिहस्स तलवेहो । कूणसमं जइ कूणं न हवइ ता कूणवेहो श्र ॥११७॥
घर की भूमि कहीं सम कहीं विषम हो, द्वार के सामने कुभी (तेल निकालने की घानी, पानी का अरहट या ईख पीसने का कोल्हू) हो, कूए या दूसरे के घर का रास्ता हो तो 'तलवेध' जानना चाहिये । तथा घर के कोने बराबर न हों तो 'कोणवेध' समझना । ११७॥
इक्कखणे नीचुच्चं पीढं तं मुणह तालुयावेहं । बारस्सुवरिमपट्टे गम्भे पीढं च सिरवेहं ॥११८॥
एक ही खंड में पीढे नीचे ऊंचे हों तो उसको 'तालुवेध' समझना चाहिए । द्वार के ऊपर की पटरी पर गर्भ (मध्य ) भाग में पाढा आवे तो 'शिरवेष' जानना चाहिये ॥११८॥
गेहस्स ममि भाए थंभेगं तं मुणेह उरसल्लं । अह अनलो विनलाइं हविज जा थंभवेहो सो ॥११॥
घर के मध्य भाग में एक खंभा हो अथवा अग्नि या जल का स्थान हो तो यह हृदय शल्य अर्थात् स्तंभवेध जानना चाहिये ॥११६:।
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( ६२ )
वास्तुसारे
हिडिम उवरि खणाणं हीगाहियपीढ तं तुलावेहं । पीढा समसंखाय हवंति जइ तत्थ नहु दोसो ॥१२०॥
घर के नीचे या ऊपर के खंड में पीढे न्यूनाधिक हों तो 'तुलावेध' होता है। परन्तु पीढे की संख्या समान हो तो दोष नहीं है ॥ १२० ॥
दुवारवेहो य ।
दूम - कूव - थंभ - कोणय - किलाविद्धे गेहुच्चविणभूमी तं न विरुद्धं बुहा विंति ॥ १२१ ॥
जिस घर के द्वार के सामने या बीच में वृक्ष, कूआ, खंभा, कोना या कीला ( खूंटा ) हो तो 'द्वारवेध' होता है । किन्तु घर की ऊंचाई से द्विगुनी ( दूनी ) भूमि छोड़ने के बाद उपरोक्त कोई वेध हो तो विरुद्ध नहीं अर्थात् वेधों का दोष नहीं है, ऐसा पंडित लोग कहते हैं ॥ १२१ ॥
वेध का परिहार आचारदिनकर में कहा है कि
“ उच्छ्रायभूमिं द्विगुणां त्यक्वा चैत्ये चतुर्गुणाम् । वेधादिदोषो नैवं स्याद् एवं त्वष्टृमतं यथा ॥"
घर की ऊंचाई से दुगुनी और मन्दिर की ऊंचाई से चार गुणी भूमि को छोड़ कर कोई वेध आदि का दोष हो तो वह दोष नहीं माना जाता है, ऐसा विश्वकर्मा का मत है ॥
वेधफल -
तलवेहि कुरो हवंति उच्चे को तालु वेहेण भयं कुलक्खयं थंभवे कावालु तुलावेहे धणनासो हवइ रोरभावो
।
इ वेहफलं नाउं सुद्धं गेहं करे अव्वं ॥ १२३ ॥
तलवेध से कुष्ठरोग, कोनवेध से उच्चाटन, तालुवेध से भय, स्तंभवेध से
कुल का क्षय, कपाल ( शिर) वेध और तुलावेध से धन का विनाश और क्लेश होता है । इस प्रकार वेध के फल को जानकर शुद्ध घर बनाना चाहिये ॥ १२२॥१२३॥ ● 'पीई पीडस्स समं हवइ जई तस्थ नहु दोसो' इति पाठान्तरे ।
हम्म | ॥१२२॥
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गृहप्रकरणम्
वाराही संहिता में द्वारवेध बतलाते है
"रथ्याविद्धं द्वारं नाशाय कुमारदोषदं तरुणा। पंकद्वारे शोको व्ययोऽम्बुनिःस्राविणि प्रोक्तः ॥ कूपेनापस्मारो भवति विनाशश्च देवताविद्धे ।
स्तंभेन स्त्रीदोषाः कुलनाशो ब्रह्मणाभिमुखे ॥" दूसरे के घर का रास्ता अपने द्वार से जाता हो ऐसे रास्ते का वेध विनाश कारक होता है। वृक्ष का वेध हो तो बालकों के लिये दोषकारक है । कादे वा कीचड़ का हमेशा वेध रहता हो तो शोककारक है। पानी निकलने के नाले का वेध-हो तो धन का विनाश होता है । कूए का वेध हो तो अपस्मार का रोग ( वायु विकार) होता है । महादेव सूर्य आदि देवों का वेध हो तो गृहस्वामी का विनाश करने वाला है। स्तंभ का वेध हो तो स्त्री को दोष रूप है और ब्रह्मा के सामने द्वार हो तो कुल का नाश करनेवाला है ।
इगवेहेण य कलहो कमेण हाणिं च जत्थ दो हुंति । तिहु भूत्राणनिवासो चउहिं खयो पंचहिं मारी॥१२४॥
एक वेध से कलह, दो वेध से क्रमशः हानि, तीन वेध हो तो घर में भूतों का वास, चार वेध हो तो घर का क्षय और पांच वेध हो तो महामारी का रोग होता है ॥ १२४॥
वास्तुपुरुष चक्र--- अछुत्तरसउ भाया पडिमारूखुब करिवि भूमितयो । सिरि हियइ नाहि सिहिणो थंभं वजेह जत्तेणं ॥१२५॥
'घर बनाने की भूमि के तलभाग का एक सौ आठ* भाग कर के इसमें एक मूर्ति के आकार जैसा वास्तुपुरुष का आकार बनाना, जहां जहां इस वास्तुपुरुष के मस्तक, हृदय, नाभि और शिखा का भाग आवे, उसी स्थान पर स्तंभ नहीं रखना चाहिये ॥१२॥
* एकसौ आठ भाग की कल्पना की गई है, इसमें से सौ भाग वास्तुमंडल के और भाठ भाग वास्तुमंडल के बाहर कोने में चरकी प्रादि माठ राक्षसणी के समझना चाहिये ऐसा प्रासाद मंडन में कहा है।
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वास्तुसारे
विहार
चाहिये । दोनों
का
वास्तु नर का अंग विभाग इस प्रकार है"ईशो मूर्ध्नि समाश्रितः श्रवणयोः पर्जन्यनामादिति
रापस्तस्य गले तदंशयुगले प्रोक्तो जयश्चादितिः । उक्तावर्यमभूधरौ स्तनयुगे स्यादापवत्सो हृदि,
पञ्चेन्द्रादिसुराश्च दक्षिणभुजे वामे च नागादयः ॥ सावित्रः सविता च दक्षिणकरे वामे द्वयं रुद्रतो,
मृत्युमैत्रगणस्तथोरुविषये स्यानाभिपृष्ठे विधिः । मेढ़े शक्रजयौ च जानुयुगले तौ वहिरोगौ स्मृतौ,
__पूषानंदिगणाश्च सप्तविबुधा नल्योः पदोः पैतृकाः ॥" ईशानकोने में वास्तुपुरुष का सिर है, इसके ऊपर ईशदेव को स्थापित करना वीजा वास्तु पुरुष चक्र
कान के ऊपर माहा । अर्थ मन्त्र का का पर्जन्य और दिति
देव को, गले के ऊपर आपदेव
को, दोनों कंधे . पर जय और
अदिति देव को, दोनों स्तनों पर क्रम से अर्यमा और पृथ्वीधर को, हृदय के ऊपर आपवत्स को,दाहिनी भुजा
के ऊपर इंद्रादि |
पांच (इंद्र, सूर्य, सत्य, भृश और आकाश ) देवों को, बायीं भुजा के ऊपर नागादि पांच ( नाग,
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गृह प्रकरणम्
( ६५
मुख्य, भल्लाट, कुबेर और शैल) देवों को, दाहिने हाथ पर सावित्र और सविता को, बांये हाथ पर रुद्र और रुद्रदास को, जंघा के ऊपर मृत्यु और मैत्र देव को, नाभि के पृष्ठ भाग पर ब्रह्मा को, गुह्येन्द्रिय स्थान पर इंद्र और जय को, दोनों घुटनों पर क्रम से अग्नि और रोग देव को, दाहिने पग की नली पर पूषादि सात ( पूषा, वितथ, गृहक्षत, यम, गंधर्व, भृंग और मृग ) देवों को, बांये पग की नली पर नंदी आदि सात ( नंदी, सुग्रीव, पुष्पदंत, वरुण असुर, शेष और पापयदमा ) देवों और पर पितृदेव को स्थापित करना चाहिये ।
इस वास्तु पुरुष के मुख, हृदय, नाभि, मस्तक, स्तन इत्यादि मर्मस्थान के ऊपर दीवार स्तंभ या द्वार आदि नहीं बनाना चाहिये । यदि बनाया जाय तो घर के स्वामी की हानि करनेवाला होता है ।
वास्तुपद के ४५ देवों के नाम और उनके स्थान -
"ईशस्तु पर्जन्यजयेन्द्रसूर्याः, सत्यो भृशाकाशक एव पूर्वे । वह्निश्च पूषा वितथाभिधानो, गृहक्षतः प्रेतपतिः क्रमेण ॥ गन्धर्वभृङ्गौ मृगपितृसंज्ञौ, द्वारस्य सुग्रविक पुष्पदन्ताः । जलाधिनाथोप्यसुरश्च शेषः सपापयक्ष्मापि च रोगनागौ ॥ मुख्यश्च भल्लाटकुबेरशैला - स्तथैव बाह्ये ह्यदितिर्दितिश्च । द्वात्रिंशदेवं क्रमतोऽचनीया - स्त्रयोदशैव त्रिदशाश्च मध्ये || "
ईशान कोने में ईश देव को, पूर्व दिशा के कोठे में क्रमशः पर्जन्य, जय, इन्द्र, सूर्य, सत्य, भृश और आकाश इन सात देवों को; अग्निकोण में अग्निदेव को, दक्षिण दिशा के कोठे में क्रमशः पूषा, वितथ, गृहक्षत, यम, गंधर्व, भृंगराज और मृग इन सात देवों को; नैऋत्य कोण में पितृदेव को; पश्चिम दिशा के कोठे में क्रमशः नंदी, सुग्रीव, पुष्पदंत, वरुण, असुर, शेष और पापयक्ष्मा इन सात देवों को; वायुकोण में रोगदेव को; उत्तर दिशा के कोठे में अनुक्रम से नाग, मुख्य, भल्लाट, कुबेर, शैल, अदिति और दिति इन सात देवों को स्थापन करना चाहिये । इस
* नाभि के पृष्ठ भाग पर, इसका मतलब यह है कि वास्तुपुरुष की प्राकृति, आँधे सोबे हुए पुरुष की आकृति के समान है।
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- वास्तुसारे
प्रकार बत्तीस देव ऊपर के कोठे में पूजना चाहिये । और मध्य के कोठे में तेरह देव पूजना चाहिये।
"प्रागर्यमा दक्षिणतो विवस्वान्, मैत्रोऽपरे सौम्यदिशो विभागे । .
पृथ्वीधरोऽय॑स्त्वथ मध्यतोऽपि, ब्रह्मार्चनीयः सकलेषु नूनम् ॥"
ऊपर के कोठे के नीचे पूर्व दिशा के कोठे में अर्यमा, दक्षिण दिशा के कोठे में विवस्वान्, पश्चिम दिशा के कोठे में मैत्र और उत्तर दिशा के कोठे में पृथ्वीधर देव को स्थापित कर पूजन करना चाहिये और सब कोठे के मध्य में ब्रह्मा को स्थापित कर पूजन करना चाहिये।
"आपापवत्सौ शिवकोणमध्ये, सावित्रकोऽनौ सविता तथैव । कोणे महेन्द्रोऽथ जयस्तृतीये, रुद्रोऽनिलेऽर्योऽप्यथ रुद्रदासः॥"
ऊपर के कोने के कोठे के नीचे ईशान कोण में आप और आपवत्स को, अग्नि कोण में सावित्र और सविता को, नैऋत्य कोण में इन्द्र और जय को, वायु कोण में रुद्र और रुद्रदास को स्थापन करके पूजन करना चाहिये।
"ईशानबाह्ये चरकी द्वितीये, विदारिका पूतनिका तृतीये ।
पापाभिधा मारुतकोणके तु, पूज्याः सुरा उक्तविधानकैस्तु ॥"
वास्तुमंडल के बाहर ईशान कोण में चरकी, अग्निकोण में विदारिका, नैऋत्य कोण में पूतना और वायुकोण में पापा इन चार राक्षसनियों की पूजन करना चाहिये। ...प्रासाद मंडन में वास्तुमंडल के बाहर कोणे में आठ प्रकार के देव बतलाये हैं। जैसे
"ऐशान्ये चरकी बाह्ये पीलीपीछा च पूर्ववत् । विदारिकानौ कोणे च जंभा याम्यदिशाश्रिता॥ नैर्ऋत्ये पूतना स्कन्दा पश्चिमे वायुकोणके ।
पापा राक्षसिका सौम्येऽयमैवं सर्वतोऽचयेत् ॥" _ईशान कोने के बाहर उत्तर में चरकी और पूर्व में पीली पीछा, अनि कोण के बाहर पूर्व में विदारिका और दक्षिण में जंभा, नैऋत्य कोण के बाहर दक्षिण में पूतना और पश्चिम में स्कंदा, वायु कोण के बाहर पश्चिम में पापा और उत्तर में अर्यमा की पूजन करना चाहिये ।
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चौसठ पद के वास्तु में
चार पद का ब्रह्मा, - मादि चार देव भी चार २
पद के मध्य कोने के आप
आपवत्स आदि आठ देव
दो दो पद के उपर के कोने
के आठ देवधे २ पद के
और बाकी के देव एक २ पद के हैं ।
कौनसे वास्तु की किस जगह पूजन करना चाहिये यह बतलाते हैं-“ग्रामे भूपतिमंदिरे च नगरे पूज्यश्चतुःषष्टिकै
काशीतिपदैः समस्तभवने जीर्णे नवाब्ध्यंशकैः । प्रासादे तु शतांशकैस्तु सकले पूज्यस्तथा मण्डपे, कूपे षण्णव चन्द्रभागसहितै --र्वाप्यां तडागे वने ॥" गाँव, राजमहल और नगर में चौसठ पद का वास्तु, सब प्रकार के घरों में इक्यासी पद का वास्तु, जीर्णोद्धार में उनपचास पद का वास्तु, समस्त देवप्रासाद में और मंडप में सौ पद का वास्तु, कूए बावड़ी, तालाब और वन में एकसौ मानवे पद के वास्तु की पूजन करना चाहिए । चौसठ पद के वास्तु का स्वरूप -
चतुःषष्टिपदैर्वास्तु-मध्ये ब्रह्मा चतुष्पदः । श्रर्यमाद्याश्चतुर्भागा द्विद्वचंशा मध्यकोणगाः ॥ बहिष्कोणेष्वर्द्धभागाः शेषा एकपदाः सुराः ।"
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६४ चौसठ पदका वास्तुवक
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पृथ्वी पर ब्रह्मा विवस्वान
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वास्तुसारे
इक्यासी पद के वास्तु का स्वरूप
"एकाशीतिपदे ब्रह्मा नवार्यमाद्यास्तु षट्पदाः ॥ द्विपदा मध्यकोणेऽष्टौ बाझे द्वात्रिंशदेकशः।"
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११इस्चामीपदका वास्तुचक
कवीधर | ब्रह्मा विवस्वान य]
इक्यासी पद के वास्तु में नव पद का ब्रह्मा,अर्यमादि चार देव छ. छ: पद के मध्य कोने के आप आपवत्स आदि पाठ देव दो दो पद के और ऊपर के बचीस देव एक २ पद के हैं।
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सौपद के पास्तु का स्वरूप
"शते ब्रह्माष्टिसंख्यांशो बाह्यकोणेषु सार्द्धगाः ।। अर्यमाद्यास्तु नस्वंशाः शेषास्तु पूर्ववास्तुवन् ।"
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सौ पद के वास्तु में
ब्रह्मा सोलह पद का ऊपर
के कोने के आठ देव डेढ़ २
पदके, अर्यमादि चार देव
आठ आठ पद के और
मध्य कोने के आप आपवत्स आदि आठ देव दो २
पद के, तथा बाकी के देव एक २ पद के हैं ।
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उनपचास पद के वास्तु का स्वरूप
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सन्धेः सूत्रमितान् सुधीः परिहरेद् भित्तिं तुलां स्तंभकान् ॥”
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वास्तुसारे
गुवापचासपरका वारत-चक
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उनपचास पद के
वास्तु में चार पद का ब्रह्मा, म ।
अर्यमादि चार देव तीन २ सयेमा
पद के, श्राप आदि पाठ देव नव पद के, कोने के
आठ देव आधे २ पद के प्रध्वीधर ब्रह्मा विवस्वान
और बाकी के चौबीस देव बीस पद में स्थापन करना चाहिये । बीस पद में प्रत्येक के छः २ भाग किये तो १२० पद हुए, इसको
२४ से भाग दिया तो
- प्रत्येक देव के पांच २ भाग आते हैं । चौसठ पद में वास्तुपुरुष की कल्पना करना चाहिये । पीछे वास्तुपुरुष के संधि भाग में दिवाल तुला या स्तंभ को बुद्धिमान नहीं रक्खें ।
वसुनंदिकृत प्रतिष्ठासार में इक्यासी पद का वास्तुपूजन इस प्रकार बतलाया है कि
"विधाय मसृणं क्षेत्रं वास्तुपूजां विधापयत् ॥ रेखामिस्तिर्यगूर्वाभि-वज्राग्राभिः सुमण्डलम् । चूर्णेन पंचवर्णेन सैकाशीतिपदं लिखेत् ।। तेष्वष्टदलपमानि लिखित्वा मध्यकोष्टके । अनादिसिद्धमंत्रेण पूजयेत् परमेष्ठिनः ॥ तद्वहिःस्थाष्टकोष्टेषु जयाद्या देवता यजेत् । ततः षोडशपत्रेषु विद्यादेवीश्च संयजेत् ॥ चतुर्विंशतिकोष्टेषु यजेच्छासनदेवताः। द्वात्रिंशत्कोष्टपोषु देवेन्द्रान् क्रमशो यजेत् ॥
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मुंह प्रकरणम्
स्वमंत्रोच्चारणं कृत्वा गन्धपुष्पाक्षतं वरं । दीपधूपफला_णि दत्वा सम्यक् समर्चयेत् ॥ लोकपालांच यक्षांश्च समभ्यर्च्य यथाविधि ।
जिनबिम्बाभिषेकं च तथाष्टविधमर्चनम् ॥" प्रथम भूमि को
*
करना
चमरे बली-२ घरगेनानानंद नणदेवरा हरिको हरिमह कायमाका गीतरतिगीतयशसनिहित सम्मानधानेन्द्र धाते.
| ५ | ५६ ७ ३६ | ३९ | 7. पाम्चयक्ष मानेगलगोमुख. महायक्ष त्रिमुरवयोव पद्मावती निहायकनकेश्वरी.अनिता दुरितारा
महामा रोहिणी प्रज्ञप्ति वज नसी १ २ ।
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खला
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चाहिये। अग्र भाग १ में वज्राकृतिवाली म तिरछी और खड़ी । दश २ रेखाएँ म खींचना चाहिये। न उसके ऊपर पंचवर्ण । के चूर्ण से इक्यासी * पद वाला अच्छा मंडल बनाना चाहिये । मध्य के *
कुटिगोमेवर १९ । बलादेवी धारिणीनवैरोटवानरदत्ता गांधारीओ सनकुमामाहेत्रपब्रजेन्द्र पातक शक्रेत्रमाबोर नतमाणभारणाम
गंधर्व यशेतकुबेर१९ वरुणा पूर्णभद्रामाणिभद्रजीमणमारीमकिन
मानवी वैरोश्या अच्युता मानसी
सजाय
काला श्यामा शांता ज्वालामतारा शोका उबरूप ऊतुम मागविजय अनिता ब्रह्मा १०
ईश्ववमर-घर सक्ष विज्ञान हामद जामति अधिशिखाग्निमानस पुण्ये वनिता जलकात जलपन अमितानिमितवाहन
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वजक जांबुनदा पुरुषदला काला।
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पांखड़ीवाला कमल बनाना चाहिये। * * कमल के मध्य में परमेष्ठी अरिहंतदेव को नमस्कार मंत्र पूर्वक स्थापित करके पूजन करना चाहिये । कमल की पांखड़ियों में जया आदि देवियों की पूजा करना अर्थात् कमल के कोनेवाली चार पांखड़ियों में जया, विजया, जयंता और अपराजिता इन चार देवियों को स्थापित करके चार दिशावाली पांखड़ियों में सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु को स्थापन कर पूजन करना चाहिये । कमल के ऊपर के सोलह कोठे में सोलह विद्या देवियों को, इनके ऊपर चौवीस कोठे में शासन
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७२ )
वास्तुमारे
देवता को और इनके ऊपर बत्तीस कोठे में 'इन्द्रों को क्रमशः स्थापित करना चाहिये । तदनन्तर अपने २ देवों के मंत्राक्षर पूर्वक गंध, पुष्प, अक्षत, दीप, धूप, फल और नैवेद्य आदि चढ़ा कर पूजन करना चाहिये । दश दिग्पाल और चौबीस यक्षों की भी यथाविधि पूजा करना चाहिये । जिनबिंब के ऊपर अभिषेक और अष्टप्रकारी पूजा करना चाहिये ।
द्वार कोने स्तंभ मादि किस प्रकार रखना चाहिये यह बतलाते हैंबारं बारस्स समं ग्रह बार बारमझि कायव्वं । श्रह वज्जिऊण बारं कीरइ बारं तहालं च ॥१२६॥
मुख्य द्वार के बराबर दूसरे सब द्वार बनाना चाहिये अर्थात् हरएक द्वार के उत्तरंग समसूत्र में रखना या मुख्य द्वार के मध्य में आजाय ऐसा सकड़ा दरवाजा बनाना चाहिये । यदि मुख्य द्वार को छोड़ कर एक तरफ खिड़की बनाई जाय तो वह अपनी इच्छानुसार बना सकता है ॥१२६। ।
कूणं कूणस्त समं श्रालय पालं च कीलए कीलं। थंभे थंभं कुजा ग्रह वेहं वजि कायव्वा ॥१२७॥
कोने के बराबर कोना, आले के बराबर आला, खूटे के बराबर खूटा और खंभे के बराबर खंभा ये सब वेध को छोड़ कर रखना चाहिये ॥१२७।।
श्रालयसिरम्मि कीला थंभो बारुवरि बारु थंभुवरे । बारद्विवार समखण विसमा थंभा महाअसुहा ॥१२८॥
आले के ऊपर कीला (खूटा ), द्वार के ऊपर स्तंभ, स्तंभ के ऊपर द्वार, द्वार के ऊपर दो द्वार, समान खंड और विषम स्तंभ ये सब बड़े अशुभ कारक हैं ।।१२८॥
थंभहीणं न कायव्वं पासायं मठमंदिरं । कूणकक्खंतरेऽवस्सं देयं थमं पयत्तयो ॥१२॥
दिगम्बराचार्य कृत प्रतिष्ठा पाठ में बत्तीस इन्द्रों की पूजन का अधिकार है। * 'गढ़' पाठान्तरे।
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गृह प्रकरणम्
( ७३)
प्रासाद ( राजमहल या हवेली ) मठ और मंदिर ये बिना स्तंभ के नहीं करने चाहिये । कोने के बगल में अवश्य करके स्तंभ रखना चाहिये ॥१२६।। स्तंभ का नाप परिमाण मंजरी में कहा है कि
"उच्छ्ये नवधा भक्ते कुंभिका भागतो भवेत् । स्तम्भः षड्भाग उच्छाये भागार्द्ध भरणं स्मृतम् ॥
शारं भागार्द्धतः प्रोक्तं पट्टोच्चभागसम्मितम्" ॥ घर की ऊंचाई का नौ भाग करना. उसमें से एक भाग के प्रमाण की 'कुंभी' बनाना, छः भाग जितनी स्तंभ की ऊंचाई करना, आधे भाग जितना उदयवाला 'भरणा' करना, आधे भाग जितना उदयवाला 'शरु' करना और एक भाग प्रमाण जितना उदय में 'पीढ़ा' बनाना चाहिये ।।
कुंभी सिरम्मि सिहरं वट्टा टुंस-भगायारा।
रूवगपल्लवसहिया गेहे थंभा न कायव्वा ॥ १३०॥
कुंभी के सिर पर शिखरवाला, गोल, आठ कोनेवाला, भद्रकाकार ( चढ़ते उतरते खांचेवाला ), रूपकवाला ( मूर्तियोंवाला) और पल्लववाला (पत्तियों वाला ) ऐसा स्तंभ सामान्य घर में नहीं करना चाहिये । किन्तु प्रासाद-देवमंदिर वा राजमहल में बनाया जाय तो अच्छा है ॥ १३०॥
खणमझे न कायव्वं कीलालयगोखमुक्खसममुहं । अंतरछत्तामंचं करिज खण तह य पीढसमं ॥ १३१ ॥
टी, आला और खिड़की इनमें से कोई खंड के मध्य भाग में आजाय इस प्रकार नहीं बनाना चाहिये । किन्तु खंड में अंतरपट और मंची बनाना और पीढे सम संख्या में बनाना चाहिये ॥ १३१ ।।
गिहमज्झि अंगणे वा तिकोणयं पंचकोणयं जत्थ । तत्थ वसंतस्स पुणो न हवइ सुहरिद्धि कईयावि ॥ १३२ ॥
जिस घर के मध्य में या आंगन में त्रिकोण या पंचकोण भूमि हो उस घर में रहनेवाले को कभी भी सुख समृद्धि की प्राप्ति नहीं होती है ॥ १३२ ॥
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( ७४ )
वास्तुलारे
मूलगिहे पच्छिममुहि जो बारइ दुन्नि बारा ग्रोवरए । सो तं गिहं न भुंजइ ग्रह भुंजइ दुखियो हवइ ॥ १३३ ॥
पश्चिम दिशा के द्वारवाले मुख्य घर में दो द्वार और शाला हो ऐसे घर को नहीं भोगना चाहिये अर्थात् निवास नहीं करना चाहिये, क्योंकि उसमें रहने से दुःख होता है ।। १३३ ॥
कमलेगि जं दुवारो ग्रहवा कमलेहिं वजियो हवइ । हिहाउ उवरि पिहलो न ठाइ थिरु लच्छितम्मि गिहे ।। १३४ ॥
जिस घर के द्वार एक कमलवाले हों या बिलकुल कमल से रहित हों, तथा नीचे की अपेक्षा ऊपर चौड़े हों, ऐसे द्वारवाले घर में लक्ष्मी निवास नहीं करती है ॥ १३४॥
वलयाकारं कूणेहिं संकुलं अहव एग दु ति कूणं । दाहिणवामइ दीहं न वासियवेरिसं गेहं ॥ १३५ ॥
गोल कोनेवाला या एक, दो, तीन कोनेवाला तथा दक्षिण और बांयी ओर लंबा, ऐसे घर में कभी नहीं रहना चाहिये ॥ १३५ ॥
सयमेव जे किवाडा पिहियंति य उग्घडंति ते असुहा । चित्तकलसाइसोहा सविसेसा मूलदारि सुहा ॥ १३६ ॥
जिस घर के किवाड़ स्वयमेव बंध हो जाय या खुल जाय तो ये अशुभ समझना चाहिये । घर का मुख्य द्वार कलश आदि के चित्रों से सुशोभित हो तो बहुत शुभकारक है ॥ १३६ ॥
छत्तिंतरि भित्तिरि मग्गंतरि दोस जे न ते दोसा । साल-श्रोवरय-कुक्खी पिट्टि दुवारेहिं बहुदोसा ॥ १३७॥
ऊपर जो वेध आदि दोष बतलाये हैं, उनमें यदि छत का, दीवार का या मार्ग का अन्तर हो तो वे दोष नहीं माने जाते हैं। शाला और ओरडा की कुक्षी (बगल भाग) यदि द्वार के पिछले भाग में हो तो बहुत दोषकारक है ॥ १३७ ॥
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गृह प्रकरणम्
घर में किस प्रकार के चित्र बनाना चाहिये - जोइणिनट्टारंभं भारह-रामायणं च निवजुद्धं । रिसिचरित्रदेवचरिश्र इय चित्तं गेहि नहु जुत्तं ॥ १३८ ॥
योगिनियों का नाटारंभ, महाभारत रामायण और राजाओं का युद्ध, ऋषयों का चरित्र और देवों का चरित्र ऐसे चित्र घर में नहीं बनाना चाहिये ॥ १३८ ।।
फलियतरु कुसुमवल्ली सरस्सई नवनिहाणजुअलच्छी।
कलसं वद्धारणयं सुमिणावलियाइ-सुहचित्तं ॥ १३ ॥ - फलवाले वृक्ष, पुष्पों की लता, सरस्वतीदेवी, नवनिधानयुक्त लक्ष्मीदेवी, कलश, स्वस्तिकादि मांगलिक चिन्ह और अच्छे अच्छे स्वप्नों की पंक्ति ऐसे चित्र बनाना बहुत अच्छा है ॥ १३६ ।।
पुरिसुब्ब गिहस्संगं हीणं अहियं न पावए सोहं । तम्हा सुद्धं कीरइ जेण गिहं हवइ रिद्धिकरं ॥ १४०॥
पुरुष के अंग की तरह घर के अंग न्यून या अधिक हों तो वह घर शोभा के लायक नहीं है। इसलिये शिल्पशास्त्र में कहे अनुसार शुद्ध घर बनाना चाहिये जिससे घर ऋद्धिकारक हो ॥ १४० ॥ घर के द्वार के सामने देवों के निवास संबंधि शुभाशुभ फल--
वजिज्जइ जिणपिट्ठी रविईसरदिहि 'विराहुवामभुत्रा। सव्वत्थ असुह चंडी बंभाणं चउदिसिं चयह ॥ १४१॥
घर के सामने जिनेश्वर की पीठ, सूर्य और महादेव की दृष्टि, विष्णु की बायीं भुजा, सब जगह चंडीदेवी और ब्रह्मा की चारों दिशा, ये सब अशुभकारक हैं, इस लिये इनको अवश्य छोड़ना चाहिये ॥ १४१ ॥
'अरिहंतदिट्ठिदाहिण हरपुट्ठी वामएसु कल्लाणं । विवरीए बहुदुक्खं परं न मग्गंतरे दोसो ॥ १४२॥ , "विण्हुवामो अ' इति पाठान्तरे । २ 'अरहंत' इति पाठान्तरे ।
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वास्तुसारे
घर के सामने अरिहंत ( जिनेश्वर ) की दृष्टि या दक्षिण भाग हो, तथा महादेवजी की पीठ या बायीं भुजा हो तो बहुत कल्याणकारक है । परन्तु इससे विषरीत हो तो बहुत दुःखकारक है । यदि बीच में सदर रास्ते का अंतर हो तो दोष नहीं माना जाता है ॥ १४२ ॥
गृह सम्बन्धी गुण दोष -
पढमंत - जाम- वज्जिय धयाइ-दु-ति-पहरसंभवा छाया । दुहेऊ नायव्वा तो पयत्ते वज्जिज्जा ॥ १४३ ॥
पहले और अंतिम चौथे प्रहर को छोड़कर दूसरे और तीसरे प्रहर में मंदिर के ध्वजा आदि की छाया घर के ऊपर गिरती हो तो दुःखकारक जानना । इसलिये इस छाया को अवश्य छोड़ना चाहिये । अर्थात् दूसरे और तीसरे प्रहर में मंदिर के ध्वजादि की छाया जिस जगह गिरे, ऐसे स्थान पर घर नहीं बनाना चाहिये ॥ १४३ ॥
समकट्ठा विसमखणा सव्वपयारेसु इगविही कुज्जा ।
पुव्वुत्तरेण
पल्लव जमावरा
मूलकायव्वा ॥
१४४ ॥
सम काष्ठ और विषम खंड ये सब प्रकार से एक विधि से करना चाहिये । पूर्व उत्तर दिशा में (ईशान कोण में ) पल्लव और दक्षिण पश्चिम दिशा में (नैऋत्य कोण में ) मूल बनाना चाहिये ॥ १४४ ॥
सव्वेवि भारवट्टा मूलगिहे एगि सुत्ति पीढ पुण एगसुते उवरय- गुंजारि - लिंदेसु ॥
कीरति । १४५ ॥
मुख्य घर में सब भारवटे ( जो स्तंभ के ऊपर लंबा काष्ठ रखा जाता है वह ) बराबर समसूत्र में रखने चाहिये । तथा शाला गुंजारी और अलिंद में पीढे भी समसूत्र में रखने चाहिये ॥ १४५ ॥
घर में कैसी लकड़ी काम में नहीं लाना चाहिये यह बतलाते हैं
हल-घाणय-सगडमई रहट्ट-जंताणि कंटई तह य । पंचुंवरि खीरतरू एयाण य कटठ वज्जिज्जा ॥ १४६ ॥
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हल, घानी ( कोल्हू ), गाड़ी, अरहट ( रेहट-कूए से पानी निकालने का चरखा ), कांटेवाले वृक्ष, पांच प्रकार के उदुंधर ( गूलर, वड़. पीपल, पलाश और कडंबर ) और वीरतरु अर्थात् जिस वृक्ष को काटने से दूध निकले ऐसे वृक्ष इत्यादि की लकड़ी मकान बनवाने में नहीं लाना चाहिये ।। १४६ ।। ..
बिज्जउरि केलिदाडिम जंभीरी दोहलिद्द अंबलिया । 'बब्बूल-बोरमाई कणयमया तह वि नो कुज्जा ॥ १४७॥
बीजपूर ( बीजोरा ), केला, अनार, निंबू , श्राक, इमली, बबूल, बेर और कनकमय (पीले फूलवाले वृक्ष ) इन वृक्षों की लकड़ी घर बनाने में नहीं लाना चाहिये तथा इनको घर में बोना भी नहीं चाहिये ॥ १४७ ॥
एयाणं जइ वि जडा पाडिवसा उपविस्सइ अहवा ।
छाया वा जम्मि गिहे कुलनासो हवइ तत्थेव ॥ १४८ ॥ ___ यदि ऊपरोक्त वृक्षों की जड़ घर के समीप हो या घर में प्रवेश करती हो तथा जिस घर के ऊपर उनकी छाया गिरती हो तो उस घर के कुल का नाश हो जाता है ॥१४८॥
सुसुक्क भग्गदड्ढा मसाण खगनिलय खीर चिरदीहा । - निंब-बहेडय-रुक्खा न हु कट्टिजति गिहहेऊ ॥ १४१ ॥
जो वृक्ष अपने आप सूखा हुआ, टूटा हुआ, जला हुआ, श्मशान के समीप का, पक्षियों के घोंसलेवाला, दूधवाला, बहुत लम्बा (खजूर आदि), नीम और बेहड़ा इत्यादि वृक्षों की लकड़ी घर बनाने के लिये नहीं काटना चाहिये ॥ १४६ ।। वाराही संहिता में कहा है कि
"आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय । फलिनः प्रजाक्षयकरा दारूण्यपि वर्जयेदेषाम् ॥ छिन्द्याद् यदि न तरूंस्तान् तदन्तरे पूजितान् वपेदन्यान् ।
पुन्नागाशोकारिष्टबकुलपनसान शमीशालौ ।।" । घर के समीप यदि कांटेवाले वृक्ष हों तो शत्रु का भय करनेवाले हैं, दूध वाले वृक्ष हों तो लक्ष्मी के नाशकारक हैं और फलवाले वृक्ष हों तो संतान के नाश कारक
१ 'बलि' इति पाठान्तरे । २ पाडवसा' 'पाडोसा' इति पाठान्तरे ।
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पास्तुसारे
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हैं। इसलिये इन वृक्षों की लकड़ी भी घर बनाने के लिये नहीं लाना चाहिये। ये वृक्ष घर में या घर के समीप हों तो काट देना चाहिये, यदि उन वृक्षों को नहीं काटें तो उनके पास पुन्नाग (नागकेसर), अशोक, अरीठा, बकुल (केसर), पनस, शमी और शाली इत्यादि सुगंधित पूज्य वृक्षों को बोने से तो उक्त दोषित वृक्षों का दोष नहीं रहता है।
पाहाणमयं थंभं पीढं पट्टं च बारउत्ताणं । एए गेहि विरुद्धा सुहावहा धम्मठाणेसु ॥ १५०॥
यदि पत्थर के स्तंभ, पीढे, छत पर के तख्ते और द्वारशाख ये सामान्य गृहस्थ के घर में हों तो विरुद्ध (अशुभ) हैं। परन्तु धर्मस्थान, देवमंदिर आदि में हों तो शुभकारक हैं ॥ १५ ॥
पाहाणमये कहें कट्ठमए पाहणस्स थंभाइ । पासाए य गिहे वा वज्जेव्वा पयत्तेणं ॥ १५१ ॥
जो प्रासाद या घर पत्थर के हो, वहां लकड़ी के और काष्ठ के हों वहां पत्थर के स्तंभ पीढे आदि नहीं बनाने चाहिये । अर्थात् घर आदि पत्थर के हों तो स्तंभ आदि भी पत्थर के और लकड़ी के हों तो स्तंभ आदि भी लकड़ी के बनाने चाहिये ॥१५॥ दूसरे मकान की लकड़ी आदि वास्तुद्रव्य नहीं लेना चाहिये, यह बतलाते हैं -
पासाय-कूव-वावी-मसाण-मठ-रायमंदिराणं च । पाहाण-इट्ट-कट्ठा सरिसवमत्ता वि वज्जिजा ॥ १५२॥
देवमंदिर, कूए, बावड़ी, श्मशान, मठ और राजमहल इनके पत्थर ईंट या लकड़ी आदि एक तिल मात्र भी अपने घर के काम में नहीं लाना चाहिये ॥ १५२॥ पुनः समरांगण सूत्रधार में भी कहा है कि
"अन्यवास्तुच्युतं द्रव्य--मन्यवास्तौ न योजयेत् ।
प्रासादे न भवेत् पूजा गृहे च न वसेद् गृही ॥" दूसरे वास्तु (मकान आदि) की गिरी हुई लकड़ी पाषाण इंट चूना आदि द्रव्य (चीजें) दसरे वास्तु ( मकान ) में काम नहीं लाना चाहिये। यदि दूसरे का वास्तु द्रव्य मंदिर में लगाया जाय तो पूजा प्रतिष्ठा नहीं होती है, और घर में लगाया जाय तो उस घर में स्वामी रहने नहीं पाता है ।
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गृह प्रकरणम्
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सुगिहजालो उवरिमयो खिविज्ज नियमज्झिनन्नगेहस्स । पच्छा कहवि न खिप्पइ जह भणियं पुवसत्यम्मि ॥ १५३ ॥
अपने मकान के ऊपर की मंजिल में सुन्दर खिड़की रखना अच्छा है, परन्तु दूसरे के मकान की जो खिड़की हो उसके नीचे के भाग में आजाय ऐसी नहीं रखना चाहिये। इसी प्रकार पिछली दिवाल में कभी भी गवाक्ष (खिड़की) आदि नहीं रखना चाहिये, ऐसा प्राचीन शास्त्रों में कहा है ॥ १५३ ।। शिल्पदीपक में कहा है कि
“सूचीमुखं भवेच्छिद्रं पृष्ठे यदा करोति च ।
प्रासादे न भवेत् पूजा गृहे क्रीडन्ति राक्षसाः॥" घर के पीछे की दिवाल में सूई के मुख जितना भी छिद्र नहीं रक्खे। यदि रक्खे तो प्रासाद (मंदिर) में देव की पूजा नहीं होती है और घर में राक्षस क्रीड़ा करते हैं अर्थात् मंदिर या घर के पीछे की दिवाल में नीचे के भाग में प्रकाश के लिये गवाक्ष खिड़की आदि हो तो अच्छा नहीं है ।
ईसाणाई कोणे नयरे गामे न कीरए गेहं । संतलोयाणमसुहं अंतिमजाईण विद्धिकरं ॥ १५४ ॥
नगर या गाँव के ईशान आदि कोने में घर नहीं बनाना चाहिये । यह उत्तम जनों के लिये अशुभ है, परंतु अंत्यज जातिवाले को वृद्धिकारक है ॥ १५४ ।। शयन किस तरह करना चाहिये ?---
देवगुरु-वगिह-गोधण-संमुह चरणो न कीरए सयणं । उत्तरसिरं न कुज्जा न नग्गदेहा न अल्लपया ॥ १५५ ॥
देव, गुरु अग्नि गौ और धन इनके सामने पैर रख कर, उत्तर में मस्तक रख कर, नंगे होकर और गीले पैर कभी शयन नहीं करना चाहिये ।। १५५ ।।
धुत्तामच्चासन्ने परवत्थुदले चउप्पहे न गिहं । गिहदेवलपुचिलं मूलदुवारं न चालिज्जा ॥ १५६ ॥
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(८०)
वास्तुसारे
धूर्त और मंत्री के समीप, दूसरे की वास्तु की हुई भूमि में और चौक में घर नहीं बनाना चाहिये । विवेकविलास में कहा है कि
"दुःख देवकुलासन्ने गृहे हानिश्चतुष्पथे ।
धूर्तामात्यगृहाभ्याशे स्यातां सुतधनक्षयौ ।।" घर देवमंदिर के पास हो तो दुःख, चौक में हो तो हानि, धूर्त और मंत्री के घर के पास हो तो पुत्र और धन का विनाश होता है ।
घर या देवमंदिर का जीर्णोद्धार कराने की आवश्यकता हो तब इनके मुख्य द्वार को चलायमान नहीं कराना चाहिये । अर्थात् प्रथम का मुख्य द्वार जिस दिशा में जिस स्थान पर जिस माप का हो, उसी प्रकार उसी दिशा में उस स्थान पर उसी माप का रखना चाहिये ।। १५६ ॥ गौ बैल और घोड़े बांधने का स्थान
गो-वसह-सगडठाणं दाहिणए वामए तुरंगाणं । गिहबाहिरभूमीए संलग्गा सालए ठाणं ॥ १५७ ॥
गौ, बैल और गाड़ी इनको रखने का स्थान दक्षिण ओर, तथा घोड़े का स्थान बायीं ओर घर के बाहर भूमि में बनवायी हुई शाला में रखना चाहिये ॥१५७॥
गेहाउवामदाहिण-अग्गिम भूमी गहिज्ज जइ कज्जं । .. पच्छा कहवि न लिज्जइ इअ भणियं पुव्वनाणीहिं ॥ १५८ ॥ इति श्रीपरमजैनचन्द्राङ्गज-ठक्कुर 'फेरु' विरचिते गृहवास्तुसारे
गृहलक्षणनाम प्रथमप्रकरणम् । __यदि कोई कार्य विशेष से अधिक भूमि लेना पड़े तो घर के बायीं या दक्षिण तरफ की या आगे की भूमि लेना चाहिये । किन्तु घर के पीछे की भूमि कभी भी नहीं लेना चाहिये, ऐसा पूर्व के ज्ञानी प्राचीन आचार्यों ने कहा है ।। १५८ ॥
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विम्बपरीक्षा प्रकरणं द्वितीयम् ।
द्वारगाथा
इअगिहलक्खणभावं भणिय भणामित्थ बिंबपरिमाणं ।
गुणदोसलक्खणाइं सुहासुहं जेण जाणिजा' ॥१॥ -- प्रथम गृहलक्षण भाव को मैंने कहा । अब बिम्ब ( प्रतिमा) के परिमाण को तथा इसके गुणदोष आदि लक्षणों को मैं ( फेरु ) कहता हूं कि जिससे शुभाशुभ जाना जाय ॥१॥ मूर्ति के स्वरूप में वस्तु स्थिति
छत्तत्तयउत्तारं भालकवोलायो सवणनासायो। सुहयं जिणचरणग्गे नवग्गहा जक्खजक्खिणिया ॥२॥
जिनमर्चि के मस्तक, कपाल, कान और नाक के उपर बाहर निकले हुए तीन छत्र का विस्तार होता है, तथा चरण के आगे नवग्रह और यक्ष यक्षिणी होना सुखदायक है ॥२॥ मूर्ति के पत्थर में दाग और ऊंचाई का फल
बिंबपरिवारमझे सेलस्स य वराणसंकरं न सुहं । समअंगुलप्पमाणं न सुंदरं हवइ कइयावि ॥३॥
प्रतिमा का या इसके परिकर का पाषाण वर्णसंकर अर्थात् दागवाला हो तो अच्छा नहीं । इसलिये पाषाण की परीक्षा करके बिना दाग का पत्थर मूर्ति बनाने के लिये लाना चाहिये।
गइ' । २ 'कयावि' इति पाठान्तरे ।
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८२)
वास्तुसारे
प्रतिमा यदि सम भंगुल-दो चार छः पाठ दस बारह इत्यादि बेकी अंगुल वाली बनवावें तो कभी भी अच्छी नहीं होती, इसलिये प्रतिमा विषम अंगुल-एक तीन पांच सात नव ग्यारह इत्यादि एकी अंगुलवाली बनाना चाहिये ॥३॥ आचारदिनकर में गृहबिंब लक्षण में कहा है कि
"अथातः सम्प्रवक्ष्यामि गृह विम्बस्य लक्षणम् ।। एकाङ्गुले भवेच्छेष्ठं द्वयङ्गलं धननाशनम् ॥ १॥ त्र्यङ्गुले जायते सिद्धिः पीडा स्याच्चतुरङ्गुले । पश्चाङ्गुले तु वृद्धिः स्याद् उद्वेगस्तु षडङ्गुले ॥ २ ॥ सप्ताङ्गुले गवां वृद्धि निरष्टाङ्गुले मता । नवाङ्गुले पुत्रवृद्धि-र्धननाशो दशाङ्गुले ॥ ३ ॥ एकादशाङ्गुलं विम्बं सर्वकामार्थसाधनम् ।
एतत्प्रमाणमाख्यात-मत ऊर्ध्वं न कारयेत् ॥ ४ ॥"
अब घर में पूजने योग्य प्रतिमा का लक्षण कहता हूँ। एक अंगुल की प्रतिमा श्रेष्ठ, दो अंगुल की धन का नाश करनेवाली, तीन अंगुल की सिद्धि करनेवाली, चार अंगुल की दुःख देनेवाली, पांच अंगुल की धन धान्य और यश की वृद्धि व.रनेवाली, छः अंगुल की उद्वेग करनेवाली, सात अंगुल की गौ श्रादि पशुओं की वृद्धि करनेवाली, आठ अंगुल की हानि कारक, नव अंगुल की पुत्र आदि की वृद्धि करनेवाली, दश अंगुल की धन का नाश करनेवाली और ग्यारह अंगुल की प्रतिमा सब इच्छित कार्य की सिद्धि करनेवाली है । जो यह प्रमाण कहा है इससे अधिक अंगुलवाली प्रतिमा घर में पूजने के लिये नहीं रखना चाहिये । पाषाण और लकड़ी की परीक्षा विवेकविलास में इस प्रकार है
"निर्मलेनारनालेन पिष्टया श्रीफलत्वचा ।
विलिप्तेऽश्मनि काष्ठे वा प्रकटं मण्डलं भवेत् ।।" निर्मल कांजी के साथ बेलवृक्ष के फल की छाल पीसकर पत्थर पर या लकड़ी पर लेप करने से मंडल ( दाग) प्रकट हो जाता है।
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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम्
"मधुभस्मगुडव्योम-कपोतसदृशप्रमैः । माञ्जिष्टैररुणैः पीतैः कपिलैः श्यामलैरपि ॥ चित्रैश्च मण्डलैरेभि-रन्तज़ैया यथाक्रमम् । खद्योतो वालुका रक्त-भेकोऽम्बुगृहगोधिका । दर्दुरः कुकलासश्च गोधाखुसर्पवृश्चिकाः ।
सन्तानविभवप्राण-राज्योच्छेदश्च तत्फलम् ॥" जिस पत्थर या काष्ठ की प्रतिमा बनाना हो, उसी पत्थर या काष्ठ के ऊपर पूर्वोक्त लेप करने से या स्वाभाविक यदि मध के जैसा मंडल देखने में आवे तो भीतर खद्योत जानना । भस्म के जैसा मंडल देखने में आवे तो रेत, गुड़ के जैसा मंडल देखने में आवे तो भीतर लाल मेंडक, आकाशवर्ण का मंडल देखने में आवे तो पानी, कपोत ( कबूतर ) वर्ण का मंडल देखने में आवे तो छिपकली, मँजीठ जैसा देखने में
आवे तो मेंडक, रक्त वर्ण का देखने में आवे तो शरट (गिरगिट ), पीले वर्ण का देखने में आवे तो गोह, कपिलवर्ण का मंडल देखने में आवे तो उंदर, काले वर्ण का देखने में आवे तो सर्प और चित्रवर्ण का मंडल देखने में आवे तो भीतर बिच्छ्र है, ऐसा समझना। इस प्रकार के दागवाले पत्थर वा लकड़ी हो तो संतान, लक्ष्मी, प्राण और राज्य का विनाश कारफ है ।।
"कीलिकाछिद्रसुषिर-त्रसजालकसन्धयः ।
मण्डलानि च गारश्च महादूषणहेतवे ॥" पाषाण या लकड़ी में कीला, छिद्र, पोलापन, जीवों के जाले, सांध, मंडलाकार रेखा या कीचड़ हो तो बड़ा दोष माना है ।
"प्रतिमायां दवरका भवेयुश्च कथञ्चन ।
सदृग्वर्णा न दुष्यन्ति वर्णान्यत्वेऽतिक्षिता ॥" प्रतिमा के काष्ठ में या पाषाण में किसी भी प्रकार की रेखा (दाग) देखने में आवे, वह यदि अपने मूल वस्तु के रंग के जैसी हो तो दोष नहीं है, किन्तु मूल वस्तु के रंग से अन्य वर्ण की हो तो बहुत दोषवाली समझना ।
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वास्तुसारे
कुमारमुनिकृत शिल्परत्न में नीचे लिखे अनुसार रेखाएँ शुभ मानी है। " नन्द्यावर्त्तवसुन्धराधरहय- श्रीवत्सकूर्मोपमाः
"
शङ्खस्वस्तिक हस्तिगोवृषनिभाः शक्रेन्दु सूर्योपमाः ।
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छत्रस्रग्ध्वजलिंगतोरणमृग प्रासादपद्मोपमा,
वज्राभा गरुडोपमाश्च शुभदा रेखाः कपर्दोपमाः ॥ "
पत्थर या लकड़ी में नंद्यावर्त्त, शेषनाग, घोड़ा, श्रीवत्स, कछुआ, शंख, स्वस्तिक, हाथी, गौ, वृषभ, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, छत्र, माला, ध्वजा, शिवलिंग, तोरण, हरिण, प्रासाद ( मन्दिर ), कमल, वज्र, गरुड या शिव की जटा के सदृश रेखा हो तो शुभदायक हैं ।
मूर्ति के किस २ स्थान पर रेखा ( दाग ) न होने चाहिये, उरूको वसुनंदिकृत प्रतिष्ठासार में कहा है कि
"हृदये मस्तके भाले अंशयोः कर्णयोर्मुखे ! उदरे पृष्ठसंलग्ने हस्तयोः पादयोरपि ॥ एतेष्वङ्गेषु सर्वेषु रेखा लाञ्छननीलिका | बिम्बानां यत्र दृश्यन्ते त्यजेत्तानि विचक्षणः ॥ अन्य स्थानेषु मध्यस्था त्रासफाट विवर्जिता । निर्मल स्निग्धशान्ता च वर्णसारूप्यशालिनी || "
हृदय, मस्तक, कपाल, दोनों स्कंध, दोनों कान, मुख, पेट, पृष्ठ भाग, दोनों हाथ और दोनों पग इत्यादिक प्रतिमा के किसी अंग पर या सब अंगों में नीले आदि रंगवाली रेखा हो तो उस प्रतिमा को पंडित लोग अवश्य छोड़ दें । उक्त अंगों के सिवा दूसरे अंगों पर हो तो मध्यम है । परन्तु खराब, चीरा आदि दूषणों से रहित, स्वच्छ, चिकनी और ठंडी ऐसी अपने वर्ण सदृश रेखा हो तो दोषवाली नहीं है । धातु रत्न काष्ठ आदि की मूर्ति के विषय में आचारदिनकर में कहा है कि— "बिम्बं मणिमयं चन्द्र-सूर्यकान्तमणीमयम् । सर्व समगुणं ज्ञेयं सर्वामी रत्नजातिभिः ॥ "
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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम्
(८५.).
चंद्रकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि आदि सब रत्नमणि के जाति की प्रतिमा समस्त गुणवाली है।
"स्वर्णरूप्यताम्रमयं वाच्यं धातुमयं परम् । कांस्यसीसबङ्गमयं कदाचिन्नैव कारयेत् ॥ तत्र धातुमये रीति-मयमाद्रियते क्वचित् ।
निषिद्धो मिश्रधातुः स्याद् रीतिः कैश्चिच्च गृह्यते ॥" सुवर्ण, चांदी और तांबा इन धातुओं की प्रतिमा श्रेष्ठ है । किन्तु काँसी, सीसा और कलई इन धातुओं की प्रतिमा कभी भी नहीं बनवानी चाहिये । धातुओं में पीतल की भी प्रतिमा बनाने को कहा है, किन्तु मिश्रधातु ( कांसी आदि ) की बनाने का निषेध किया है । किसी आचार्य ने पीतल की प्रतिमा बनवाने का कहा है।
"कार्य दारुमयं चैत्ये श्रीपा चन्दनेन वा । बिल्वेन वा कदम्बेन रक्तचन्दनदारुणा॥ पियालोदुम्बराभ्यां वा क्वचिच्छिशिमयापि वा । अन्यदारूणि सर्वाणि बिम्बकार्ये विवर्जयेत् ॥ तन्मध्ये च शलाकायां बिम्बयोग्यं च यद्भवेत् ।
तदेव दारु पूर्वोक्तं निवेश्य पूतभूमिजम् ॥" चैत्यालय में काष्ठ की प्रतिमा बनवाना हो तो श्रीपर्णी, चंदन, बेल, कदंब, रक्तचंदन, पियाल, उदुम्बर ( गूलर ) और क्वचित् शीशम इन वृक्षों की लकड़ी प्रतिमा बनवाने के लिए उत्तम मानी है । बाकी दूसरे वृक्षों की लकड़ी वर्जनीय है । ऊपर कहे हुए वृक्षों में जो प्रतिमा बनने योग्य शाखा हो, वह दोषों से रहित और वृक्ष पवित्र भूमि में ऊगा हुआ होना चाहिये ।
"अशुभस्थाननिष्पन्नं सत्रासं मशकान्वितम् । सशिरं चैव पाषाणं विम्वार्थ न समानयेत् ॥ नीरोगं सुदृढं शुभ्रं हारिद्रं रक्तमेव वा । कृष्णं हरिं च पाषाणं बिम्बकार्ये नियोजयेत् ॥"
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(८६)
वास्तुसारे
अपवित्र स्थान में उत्पन्न होनेवाले, चीरा, मसा या नस आदि दोषवाले, ऐसे पत्थर प्रतिमा के लिये नहीं लाने चाहिये। किन्तु दोषों से रहित मजबूत सफेद, पीला, लाल, कृष्ण या हरे वर्णवाले पत्थर प्रतिमा के लिये लाने चाहिये। समचतुरस्र पद्मासन युक्त मूर्ति का स्वरूप
अन्नुन्नजाणुकंधे तिरिए केसंत-अंचलंते यं । सुत्तेगं चउरंसं पज्जंकासणसुहं बिंबं ॥४॥
दाहिने घुटने से बाँये कंधे तक एक सूत्र, बांये घुटने से दाहिने कंधे तक दूसरा सूत्र, एक घुटने से दूसरे घुटने तक तिरछा तीसरा सूत्र, और नीचे वस्त्र की किनार से कपाल के केस तक चौथा सूत्र । इस प्रकार इन चारों सूत्रों का प्रमाण बराबर हो तो यह प्रतिमा समचतुरस्र संस्थानवाली कही जाती है। ऐसी पर्यकासन (पद्मासन) वाली प्रतिमा शुभ कारक है ॥ ४॥ पर्यकासन का स्वरूप विवेकविलास में इस प्रकार है
"वामो दक्षिणजङ्घोर्वो-रुपयंघ्रिः करोऽपि च ।
दक्षिणो वामजयोर्वो-स्तत्पर्यङ्कासनं मतम् ॥" बैठी हुई प्रतिमा के दाहिनी जंघा और पिण्डी के ऊपर चाँया हाथ और बाँया चरण रखना चाहिए । तथा बाँयी जंघा और पिएडी के ऊपर दाहिना चरण और दाहिना हाथ रखना चाहिये। ऐसे श्रासन को पर्यकासन कहते हैं। प्रतिमा की ऊंचाई का प्रमाण
नवताल हवइ रूवं रूवस्स य बारसंगुलो तालो। अंगुलअट्टहियसयं ऊड्ढं बासीण छप्पन्नं ॥५॥
प्रतिमा की ऊंचाई नव ताल की है। प्रतिमा के ही बारह अंगुल को एक ताल कहते हैं । प्रतिमा के अंगुल के प्रमाण से कायोत्सर्ग ध्यान में खड़ी प्रतिमा नव ताल अर्थात् एक सौ आठ अंगुल मानी है और पद्मासन से बैठी प्रतिमा छप्पन अंगुल मानी है॥५॥
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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम्
(८७)
खड़ी प्रतिमा के अंग विभाग
भालं नासा वयणं गीव हियय नाहि गुज्झ जंघाइं । जाणु श्र पिंडि अचरणा 'इक्कारस ठाण नायव्वा ॥ ६ ॥
ललाट, नासिका, मुख, गर्दन, हृदय, नाभि, गुह्य, जंघा, घुटना, पिण्डी और चरण ये ग्यारह स्थान अंगविभाग के हैं ॥ ६॥ अंग विभाग का मान
चउ पंच वेय रामा रवि दिणयर सूर तह य जिण वेया। जिण वेय 'भायसंखा कमेण इत्र उड्ढरूवेण ॥७॥
ऊपर जो ग्यारह अंग विमाग बतलाये हैं, इनके क्रमशः चार, पांच, चार, तीन, बारह, बारह, बारह, चौवीस, चार, चौवीस और चार अंगुल का मान खड़ी प्रतिमा के है । अर्थात् ललाट चार अंगुल. नासिका पांच अंगुल, मुख चार अंगुल, गरदन तीन अंगुल, गले से हृदय तक बारह अंगुल, हृदय से नाभि तक बारह अंगुल, नाभि से गुह्य भाग तक बारह अंगुल, गुह्य भाग से जानु ( घुटना ) तक चौवीस अंगुल, घुटना चार अंगुल, घुटने से पैर की गांठ तक चौवीस अंगुल, इससे पैर के तल तक चार अंगुल, एवं कुल एक सौ आठ अंगुल प्रमाण खड़ी प्रतिमा का मान है ।। ७॥ पासन से बैठी मूर्ति के अंग विभाग
भालं नासा वयणं गीव हियय नाहि गुज्झ जाणू श्र। श्रासीण-बिंबमानं पुब्वविही अंकसंखाई ॥ ८॥
कपाल, नासिका, मुख, गर्दन, हृदय, नाभि, गुह्य और जानु ये भाठ अंग बैठी प्रतिमा के हैं, इनका मान पहले कहा है उसी तरह समझना । अर्थात् कपाल
१ पाठान्तरे-“भालं नासा वयणं थणसुत्तं नाहि गुज्झ ऊरू अ।
जाणु अ अंधा चरणा बस दह ठाणाणि जाणिज्जा ॥ २ पाठान्तरे-"चड पंच वेग तेरस चउदस दिगनाह तह य जिण वेया।
जिण या भाषसंखा कमेण इस उतरवेश।
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(
स)
वास्तुसारे
चार, नासिका पांच, मुख चार, गला तीन, गले से हृदय तक बारह, हृदय से नामि तक बारह, नाभि से गुह्य ( इन्द्रिय ) तक बारह और जानु (घुटना ) माग चार अंगुल, इमी प्रकार कुल छप्पन अंगुल बैठी प्रतिमा का मान है ॥ ८॥ दिगम्बराचार्य श्री वसुनंदि कृत पूतिष्ठासार में दिगम्बर जिनमूर्ति का स्वरूप इस प्रकार है
"तालमात्रं मुखं तत्र ग्रीवाधश्चतुरङ्गुलम् । कण्ठतो हृदयं यावद् अन्तरं द्वादशाङ्गुलम् ।। तालमात्रं ततो नाभि-नाभिर्मेदान्तरं मुखम् । मेदजान्वतरं तज्ज्ञ-हस्तमात्रं प्रकीर्तितम् ॥ वेदाङ्गुलं भवेज्जानु-र्जानुगुल्फान्तरं करः ।
वेदाङ्गुलं समाख्यातं गुल्फपादतलान्तरम् ।।" मुख की ऊंचाई बारह अंगुल, गला की उंचाई चार अंगुल, गले से हृदय तक का अन्तर बारह अंगुल, हृदय से, नाभी तक का अन्तर बारह अंगुल, नाभि से लिंग तक अन्तर बारह अंगुल, लिंग से जानु तक अन्तर चौवीस अंगुल, जानु (घुटना) की ऊंचाई चार अंगुल, जानु से गुल्फ (पैर की गांठ) तक अंतर चौवीस अंगुल और गल्फ से पैर के तल तक अंतर चार अंगुल, इस प्रकार कायोत्सर्ग खड़ी प्रतिमा की ऊंचाई कुल एक सौ आठ (१०८) अंगुल है ।
"द्वादशाङ्गुलविस्तीर्ण-मायतं द्वादशाङ्गुलम् । मुखं कुर्यात् स्वकेशान्तं त्रिधा तच्च यथाक्रमम् ।। वेदाङ्गलमायतं कुर्याद् ललाटं नासिका मुखम् "
१. मीस्त्री जगन्नाथ अम्बाराम सौमपुरा ने अपना वृहद् शिल्पशास्त्र भाग २ में जो जिन प्रतिमा का स्वरूप बिना बिचार पूर्वक लिखा है वह बिल्कुल प्रामाणिक नहीं है । ऐसे अन्य मूर्तियों के लिये भी जानना।
२. जिन संहिता और रुपमंडन में जिन प्रतिमा का मान दश ताल अर्थात एक सौ बीस (१२.) भंगुल का भी माना है।
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समचतुरस्र पद्मासनस्थ श्वेताम्बर जिनमत्ति का मान.
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समचतुरस्र पद्मासनस्थ दिगंबर जिनमूर्ति का मान.
कायोत्सर्गस्थ श्वे० जिनमूर्ति का मान.
कायोत्सर्गस्थ दि० जिनमूर्ति का मान.
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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम्
(4
)
बारह अंगुल विस्तार में और बारह अंगुल लंबाई में केशांत भाग तक मुख करना चाहिये । उसमें चार अंगुल लंबा ललाट, चार अंगुल लंबी नासिका और चार अंगुल मुख दाढी तक बनाना ।
"केशस्थानं जिनेन्द्रस्य प्रोक्तं पञ्चाङ्गलायतम् ।
उष्णीषं च ततो ज्ञेय-मङ्गुलद्वयमुन्नतम् ॥" जिनेश्वर का केश स्थान पांच अंगुल लंबा करना । उसमें उष्णीष (शिखा) दो अंगुल ऊंची और तीन अंगुल केश स्थान उन्नत बनाना चाहिये । पद्मासन से बैठी प्रतिमा का स्वरूप
"ऊर्ध्वस्थितस्य मानार्द्ध-मुत्सेधं परिकल्पयेत् ।
पर्यङ्कमपि तावत्तु तिर्यगायामसंस्थितम् ॥" कायोत्सर्ग खड़ी प्रतिमा के मान से पद्मासन से बैठी प्रतिमा का मान आधा अर्थात् चौवन (५४) अंगुल जानना । पद्मासन से बैठी प्रतिमा के दोनों घुटने तक सूत्र का मान, दाहिने घुटने से बाँये कंधे तक और बांये घुटने से दाहिने कंधे तक इन दोनों तिरछे सूत्रों का मान, तथा गद्दी के ऊपर से केशांत माग तक लंबे सूत्र का मान, इन चारों सूत्रों का मान बराबर २ होना चाहिये । मूर्ति के प्रत्येक अंग विभाग का मान
मुहकमलु चउदसंगुलु कन्वंतरि वित्थरे दहग्गीवा। छत्तीस-उरपएसो सोलहकडि सोलतणुपिंडं ॥१॥
दोनों कानों के अंतराल में मुख कमल का विस्तार चौदह अंगुल है। गले का विस्तार दस अंगुल, छाती प्रदेश छत्तीस अंगुल, कमर का विस्तार सोलह अंगुल और तनुपिंड (शरीर की मोटाई ) सोलह अंगुल है ॥ ६ ॥
कन्नु दह तिन्नि वित्थरि अड्ढाई हिहि इक्कु प्राधारे । केसंतवड्दु समुसिरु सोयं पुण नयणरेहसमं ॥ १०॥
कान का उदय दश भाग और विस्तार तीन भाग, कान की लोलक अढाई भाग नीची और एक भाग कान का आधार है । केशान्त भाग तक मस्तक के बरापर अर्थात् नयन की रेखा के समानान्तर तक ऊंचा कान बनाना चाहिये ॥१०॥
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(to)
वास्तुसारे
नकसिहागभा एगंतरि चक्खु चउरदीहत्ते ।
दिवदुदइ इक्कु डोलइ दुभाइ भउ हट्टु छद्दीहे ॥ ११ ॥
नासिका की शिखा के मध्य गर्भसूत्र से एक २ भाग दूर आँख रखना चाहिये । आँख चार भाग लंबी और डेढ़ भाग चौड़ी, आँख की काली कीकी एक भाग दो भाग की भृकुटी और आँख के नीचे का ( कपोल ) भाग छः अंगुल लंबा रखना चाहिये ॥ ११ ॥
नक्कु तिवित्थरि दुदए पिंडे नासरिंग इक्कु श्रद्घ सिहा । पण भाय हर दीहे वित्थरि एगंगुलं जाण ॥ १२ ॥
नासिका विस्तार में तीन भाग, दो भाग उदय में, नासिका का अग्र भाग एक भाग मोटा और अर्द्ध भाग की नाक की शिखा रखना चाहिये । होंठ की लंबाई पांच भाग और विस्तार एक अंगुल का जानना ॥ १२ ॥
पण - उदह चउ - वित्थरि सिरिवच्छं बंभसुत्तमज्झम्मि । दिवडूढंगुलु थणवट्टं वित्थरं उंडत्ति नाहेगं ॥ १३ ॥ ब्रह्मसूत्र के मध्य भाग में छाती में पांच भाग के उदयवाला और चार भाग के विस्तारवाला श्रीवत्स करना । डेढ़ अंगुल के विस्तार वाला गोल स्तन बनाना और एक २ भाग विस्तार में गहरी नाभि करना चाहिये ।। १३ ॥
सिरिवच्छ सिहिणकक्खंतर म्मि तह मुसल छ पण अठ्ठ कमे । मुणि-च-रवि-वसु-वेया कुहिणी मणिबंधु जंघ जाणु पये ॥ १४ ॥
श्रीवत्स और स्तन का अंतर छः भाग, स्तन और काँख का अंतर पांच भाग, मल (स्कंध ) आठ भाग, कुहनी सात अंगुल, मणिबंध चार अंगुल, जंघा बारह भाग जानु आठ भाग और पैर की एड़ी चार भाग इस प्रकार सब का विस्तार जानना ।। १४ ।।
थसुत्त होभाए भुयवारसांस उवरि छह कंधे | नाहीउ किरइ व
कंधाय
केस अंताओ ॥ १५ ॥
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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम्
(११)
-
स्तनस्त्र से नीचे के भाग में भुना का प्रमाण बारह भाग और स्तनसूत्र से ऊपर स्कंध छ: भाग समझना । नाभि स्कंध और केशांत माग गोल बनाना चाहिये ॥ १५ ॥
कर-उयर-अंतरेगं चउ-वित्थरि नंददीहि उच्छंगं । जलवहु दुदय तिवित्थरि कुहुणी कुच्छितरे तिनि ॥ १६ ॥
हाथ और पेट का अंतर एक अंगुल, चार अंगुल के विस्तारवाला और नव अंगुल लंबा ऐसा उत्संग ( गोद ) बनाना। पलाठी से जल निकलने के मार्ग का उदर दो अंगुल और विस्तार तीन अंगुल करना चाहिये । कुहनी और कुक्षी का अंतर तीन अंगुल रखना चाहिये ॥ १६ ॥
बंभसुत्ताउ पिंडिय छ-गीव दह-कन्नु दु-सिहण दु-भालं । दुचिबुक सत्त भुजोवरि भुयसंधी अपयसारा ॥ १७ ॥
ब्रह्मसूत्र ( मध्यगर्भसूत्र ) से पिंडी तक अवयवों के अर्द्ध भाग-छ: भाग गला, दश भाग कान, दो भाग शिखा, दो भाग कपाल, दो भाग दाढ़ी, सात भाग भुजा के ऊपर की भुजसंधि और पाठ भाग पैर जानना ॥ १७ ।।
जाणुअमुहसुत्तायो चउदस सोलस अढारपइसारं । समसुत्त-जाव-नाही पयकंकण-जाव छब्भायं ॥ १८॥
दोनों घुटनों के बीच में एक तिरछा सूत्र रखना और नाभि से पैर के कंकण के छः भाग तक एक सीधा समसूत्र तिरछे सूत्र तक रखना । इस समसूत्र का प्रमाण पैरों के कंकण तक चौदह, पिंडी तक सोलह और जानु तक अठारह भाग होता है। अर्थात् दोनों परस्पर घुटने तक एक तिरछा सूत्र रखा जाय तो यह नाभि से सीधे अठारह माग दूर रहता है ।। १८॥
पइसारगब्भरेहा पनरसभाएहिं चरणअंगुठं । दीहंगुलीय सोलस चउदसि भाए कणिडिया ॥ ११ ॥
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। १२ )
वास्तुसारे
चरण के मध्य भाग की रेखा पंद्रह भाग अर्थात् एड़ी से मध्य अंगुली तक पंद्रह अंगुल लंबा, अंगूठे तक सोलह अंगुल और कनिष्ठ (छोटी) अंगुली तक चौदह अंगुल इस प्रकार चरण बनाना चाहिये ।। १६ ।।
करयलगम्भाउ कमे दीहंगुलि नंदे अट्ठ पक्खिमिया। छच्च कणिष्ट्रिय भणिया गीवुदए तिनि नायव्वा ॥२०॥
करतल ( हथेली ) के मध्य भाग से मध्य की लंबी अंगुली तक नव अंगुल, मध्य अंगुली के दोनों तरफ की तर्जनी और अनामिका अंगुली तक आठ २ अंगुल और कनिष्ठ अंगुली तक छः अंगुल, यह हथेली का प्रमाण जानना । गले का उदय तीन भाग जानना ॥ २० ॥
मज्झि महत्यंगुलिया पणदीहे पक्खिमी श्र चउ चउरो। लहु-अंगुलि-भायतियं नह-इकिकं ति-अंगुटुं ॥ २१ ॥
मध्य की बड़ी अंगुली पांच भाग लंबी, बगल की दोनों (तर्जनी और अनामिका ) अंगुली चार २ भाग लंबी, छोटी अंगुली तीन भाग लंबी और अंगूठा तीन भाग लंपा करना चाहिये । सब अंगुलियों के नख एक एक भाग करना चाहिये ॥ २१॥
अंगुट्ठसहियकरयलवट्ट सत्तंगुलस्स वित्थारो। चरणं सोलसदीहे तयद्धि वित्थिन्न चउरुदए ।॥ २२ ॥
अंगूठे के साथ करतलपट का विस्तार सात अंगुल करना । चरण सोलह भंगुल लंबा, पाठ अंगुल चौड़ा और चार अंगुल ऊंचा ( एड़ी से पैर की गांठ तक) करना ॥ २२ ॥
गीव तह कन अंतरि खणे य वित्थारि दिवड्डु उदइ तिगं । अंचलिय अह वित्थरि गद्दिय मुह जाव दीहेण ॥ २३ ॥
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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम्
गला तथा कान के अंतराल भाग का विस्तार डेढ़ अंगुल और उदय तीन अंगुल करना । अंचलिका ( लंगोड ) आठ भाग विस्तार में और लंबाई में गादी के मुख तक लंबा करना ॥ २३ ॥
केसंतसिहा गद्दिय पंचट्ठ कमेण अंगुलं जाण । पउमुड्ढरेहचक्कं करचरण-विहूसियं निच्चं ॥ २४ ॥
केशांत भाग से शिखा के उदय तक पांच भाग और गादी का उदय आठ भाग जानना । पद्म ( कमल ) ऊर्ध्व रेखा और चक्र इत्यादि शुभ चिन्हों से हाथ और पैर दोनों सुशोभित बनाना चाहिये ॥ २४ ॥ ब्रह्मसूत्र का स्वरूप
नक्क सिरिवच्छ नाही समगब्भे बंभसुत्तु जाणेह । तत्तो अ सयलमाणं परिगरबिंबस्स नायव्वं ॥ २५ ॥
जो सूत्र प्रतिमा के मध्य-गर्भ भाग से लिया जाय, यह शिखा, नाक, श्रीवत्स और नाभि के बराबर मध्य में आता है, इसको ब्रह्मसूत्र कहते हैं। अब इसके बाद परिकरवाले बिंब का समस्त प्रमाण जानना ॥ २५ ।। . परिकर का स्वरूप
सिंहासणु विबायो दिवढयो दीहि वित्थरे श्रद्धो। पिंडेण पाउ घडियो रूवग नव अहव सत्त जुयो ॥ २६ ॥
सिंहासन लंबाई में मूर्ति से डेढ़ा, विस्तार में आधा और मोटाई में पाव भाग होना चाहिये। तथा गज सिंह आदि रूपक नव या सात युक्त बनाना चाहिये ॥२६॥ उभयदिसि जक्खजक्खिणि केसरि गय चमर मज्झि-चक्कधरी । चउदस बारस दस तिय छ भाय कमि इथ भवे दीहं ॥ २७॥
सिंहासन में दो तरफ यक्ष और यक्षिणी अर्थात् प्रतिमा के दाहिनी ओर यक्ष और घाँयी मोर यक्षिणी, दो सिंह, दो हाथी, दो चामर धारण करनेवाले और
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वास्तुसारे
मध्य में चक्र को धारण करनेवाली चक्रेश्वरी देवी बनाना। इनमें प्रत्येक का नाप इस प्रकार है-चौदह २ भाग के प्रत्येक यक्ष और यक्षिणी, बारह २ भाग के दो सिंह, दश २ भाग के दो हाथी, तीन २ भाग के दो चँवर करनेवाले, और छ। भाग की मध्य में चक्रेश्वरी देवी, एवं कुल ८४ भाग लम्बा सिंहासन हुमा ॥ २७ ॥
चक्कधरी गरुडंका तस्साहे धम्मचक्क-उभयदिसं। हरिणजुग्रं रमणीयं गद्दियमझम्मि जिणचिराहं ॥ २८ ॥
सिंहासन के मध्य में जो चक्रेश्वरी देवी है वह गरुड की सवारी करनेवाली है, उनकी चार भुजाओं में ऊपर की दोनों भुजाओं में चक्र, तथा नीचे की दाहिनी भुजा में वरदान और बाँयी भुजा में बिजोरा रखना चाहिये। इस चक्रेश्वरी देवी के नीचे एक धर्मचक्र बनाना, इस धर्मचक्र के दोनों तरफ सुन्दर एक २ हरिण बनाना और गादी के मध्य भाग में जिनेश्वर भगवान् का चिन्ह करना चाहिये ॥ २८ ॥
चउ कणइ दुन्नि छज्जइ बारस हथिहिं दुन्नि ग्रह कणए । श्रड अक्खरवट्टीए एवं सीहासणस्सुदयं ॥ २१ ॥
चार भाग का कणपीठ ( कणी), दो भाग का छज्जा, बारह भाग का हायी आदि रूपक, दो भाग की कणी और पाठ भाग अक्षर पट्टी, एवं कुल २८ भाग सिंझसन का उदय जानना ॥ २६ ॥ परिकर के पखवाडे (बगल के भाग) का स्वरूप
गद्दियसम-वसु-भाया तत्तो इगतीस-चमरधारी य । - तोरणसिरं दुवालस इअ उदयं पक्खवायाण ॥३०॥ . प्रतिमा की गद्दी के बराबर आठ भाग चैवरधारी या काउस्सग्गीये की गादी करना, इसके ऊपर इकतीस भाग के चामर धारण करनेवाले देव या काउस्सग ध्यान में खड़ी प्रतिमा करना और इसके ऊपर तोरण के शिर तक बारह भाग रखना, एवं कुल इक्कावन भाग पखवाड़े का उदयमान समझना ॥ ३०॥
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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम् सोलसभाए रूवं धुंभुलिय-समय छहि वरालीय । इन वित्थरि बावीसं सोलसपिंडेण पखवायं ॥ ३१ ॥
सोलह भाग थंभली समेत रूप का अर्थात् दो २ भाग की दो थंभली और बारह भाग का रूप, तथा छह भाग का वरालिका ( वरालक के मुख आदि की
आकति ), एवं कुल पखवाड़े का विस्तार बाईस भाग और मोटाई सोलह भाग है। यह पखवाड़े का मान हुआ ॥३१॥ परिकर के ऊपर के डउला (छत्रवटा ) का स्वरूप- छत्तद्धं दसभायं पंकयनालेग तेरमालधरा ।
दो भाए थंभुलिए तह वंसधर-वीगाधरा ॥ ३२॥ तिलयमज्झम्मि घंटा दुभाय थंभुलिय छच्चि मगरमुहा । इत्र उभयदिसे चुलसी-दीहं डउलस्स जाणेह ॥ ३३ ॥
आधे छत्र का भाग दश, कमलनाल एक भाग, माला धारण करनेवाले भाग तेरह, थंभली दो भाग, बंसी और वीणा को धारण करनेवाले या बैठी प्रतिमा का भाग आठ, तिलक के मध्य में घंटा (घूमटी ), दो भाग थंभली और छः भाग मगरमुख, एवं एक तरफ के ४२ भाग और दूसरी तरफ के ४२ भाग, ये दोनों मिलकर कुल चौरासी भाग डउला का विस्तार जानना ॥ ३२॥३३ ॥
चउवीसि भाइ छत्तो बारस तस्सुदइ अठि संखधरो। छहि वेणुपत्तवल्ली एवं डउलुदये पन्नासं ॥ ३४ ॥
चौवीस भाग का छत्र, इसके ऊपर छत्रत्रय का उदय बारह भाग, इसके ऊपर पाठ भाग का शंख धारण करनेवाला और इसके ऊपर छ: भाग के वंशपत्र और लता, एवं कुल पचास भाग डउला का उदय जानना ॥ ३४ ।।
छत्तत्तयवित्थारं वीसंगुल निग्गमेण दह-भायं । भामंडलवित्थारं बावीसं अट्ठ पइसारं ॥ ३५॥
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(६६)
वास्तुसारे
प्रतिमा के मस्तक पर के छत्रत्रय का विस्तार बीस अंगुल और निर्गम दस भाग करना। भामंडल का विस्तार बाईस भाग और मोटाई पाठ भाग करना ॥ ३५ ॥
मालधर सोलसंसे गइंद अट्ठारसम्मि ताणुवरे । हरिणिंदा उभयदिसं तो अ दुंदुहित्र संखीय ॥ ३६ ॥
दोनों तरफ माला धारण करनेवाले इंद्र सोलह २ भाग के और उनके ऊपर दोनों तरफ अठारह २ भाग के एक २ हाथी, उन हाथियों के ऊपर बैठे हुए हरिण गमेषीदेव बनाना, उनके सामने दुंदुभी बजानेवाले और मध्य में छत्र के ऊपर शंख बजानेवाला बनाना चाहिये ।। ३६ ॥
बिंबद्धि डउलपिंडं छत्तसमेयं हवइ नायव्वं । थणसुतसमादिट्ठी चामरधारीण कायव्वा ॥ ३७॥
छत्रत्रय समेत डउला की मोटाई प्रतिमा से आधी जानना । पखवाड़े में चामर धारण करनेवाले की या काउस्सग ध्यानस्थ प्रतिमा की दृष्टि मूलनायक प्रतिमा के बराबर स्तनपत्र में करना ॥ ३७॥
जइ हुति पंच तित्था इमेहिं भाएहिं तेवि पुण कुज्जा। उस्सग्गियस्स जुलं बिंबजुगं मूलबिंबेगं ॥ ३८ ॥
पखवाड़े में जहां दो चामर धारण करनेवाले हैं, उस ही स्थान पर दो काउस्सग ध्यानस्थ प्रतिमा तथा डउला में जहां वंश और वीणा धारण करनेवाले हैं, वहीं पर पद्मासनस्थ बैठी हुई दो प्रतिमा और एक मूलनायक, इसी प्रकार पंचतीर्थी यदि परिकर में करना हो तो पूर्वात जो भाग चामर वंश और वीणा धारण करने वाले के कहें हैं, उसी भाग प्रमाण से पंचतीर्थी भी करना चाहिये ॥ ३८ ॥ प्रतिमा के शुभाशुभ लक्षण
वरिससयायो उड्ढं जं बिंध उत्तमेहिं संठवियं । विअलंगु वि पूइज्जइ तं विवं निष्फलं न जओ ॥३१॥
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परिकर और तोरण युक्त श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति.
जैन मन्दिर प्राबू ।
समवसरण, जैन मन्दिर, आबू
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अर्द्ध पद्मासन वाली प्राचीन पाजिन मूर्ति
पार्श्वनाथ भगवान की खडी मूर्ति प्राबू .
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गंगा पुगतत्त्वांक में चतुमुख जिन मूर्ति लिखा है. परन्तु अाठ मुख मालूम
( लण्डन म्युजियम)
कायोत्सर्गस्थ दिगम्बर जिन मूर्ति.
(लण्डन म्युजियम)
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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम्
जो प्रतिमा एक सौ वर्ष के पहले उत्तम पुरुषों ने स्थापित की हुई हो, वह यदि विकलांग ( बेडोल ) हो या खंडित हो तो भी उस प्रतिमा को पूजना चाहिये । पूजन का फल निष्फल नहीं जाता ॥ ३९ ॥
मुह-नक-नयण-नाही-कडिभंगे मूलनायगं चयह । आहरण-वत्थ-परिगर-चिराहायुहभगि पूइज्जा ॥ ४०॥
मुख, नाक, नयन, नाभि और कमर इन अंगों में से कोई अंग खंडित हो जाय तो मूलनायक रूप में स्थापित की हुई प्रतिमा का त्याग करना चाहिये । किन्तु आभरण, वस्त्र, परिकर, चिन्ह, और आयुध इनमें से किसी का भंग हो जाय तो पूजन कर सकते हैं ॥४०॥
धाउलेवाइबिंब विअलंगं पुण वि कीरए सज्जं । कहरयणसेलमयं न पुणो सज्जं च कईयावि ॥४१॥
धातु ( सोना, चांदी, पित्तल आदि ) और लेप ( चूना, ईंट, माटी आदि) की प्रतिमा यदि अंग हीन हो जाय तो उसी को दूसरी बार बना सकते हैं । किन्तु काष्ठ, रत्न और पत्थर की प्रतिमा यदि खंडित हो जाय तो उसी ही को कभी भी दूसरी बार नहीं बनानी चाहिये ॥४१॥ आचारदिनकर में कहा है कि
"धातुलेप्यमयं सर्व व्यङ्ग संस्कारमईति । काष्ठपाषाणनिष्पन्नं संस्कारार्ह पुनर्नहि ॥ प्रतिष्ठिते पुनर्बिम्बे संस्कार: स्यान्न कहिचित् । संस्कारे च कृते कार्या प्रतिष्ठा तादृशी पुनः ।। संस्कृते तुलिते चैव दुष्टस्पृष्टे परीक्षिते ।
हृते बिम्बे च लिङ्गे च प्रतिष्ठा पुनरेव हि ।।" धातु की प्रतिमा और ईंट, चूना, मट्टी आदि की लेपमय प्रतिमा यदि विकलांग हो जाय अर्थात खंडित हो जाय तो वह फिर संस्कार के योग्य है । अर्थात उस ही को
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(
८)
वास्तुसोरे
फिर बनवा सकते हैं । परन्तु लकड़ी या पत्थर की प्रतिमा खंडित हो जाय तो फिर संस्कार के योग्य नहीं है । एवं प्रतिष्ठा होने बाद कोई भी प्रतिमा का कभी संस्कार नहीं होता है, यदि कारणवश कुछ संस्कार करना पड़ा तो फिर पूर्ववत् ही प्रतिष्ठा करानी चाहिये । कहा है कि-प्रतिष्ठा होने बाद जिस मूर्ति का संस्कार करना पड़े, तोलना पड़े, दुष्ट मनुष्य का स्पर्श हो जाय, परीक्षा करनी पड़े या चोर चोरी कर ले जाय तो फिर उसी मूर्ति की पूर्ववत् ही प्रतिष्ठा करानी चाहिये । घरमंदिर में पूजने लायक मूर्ति का स्वरूप
पाहाणलेवकट्ठा दंतमया चित्तलिहिय जा पडिमा। अप्परिगरमाणाहिय न सुंदरा पूयमाणगिहे ॥ ४२ ॥
पाषाण, लेप, काष्ठ, दांत और चित्राम की जो प्रतिमा है, वह यदि परिकर से रहित हो और ग्यारह भंगुल के मान से अधिक हो तो पूजन करनेवाले के घर में अच्छा नहीं ॥ ४२ ॥
परिकरवाली प्रतिमा अरिहंत की और बिना परिकर की प्रतिमा सिद्ध की है। सिद्ध की प्रतिमा घरमंदिर में धातु के सिवाय पत्थर, लेप, लकड़ी, दांत या चित्राम की बनी हुई हो तो नहीं रखना चाहिये । अरिहंत की मूर्ति के लिये भी श्रीसकलचन्द्रोपाध्यायकृत प्रतिष्ठाकल्प में कहा है कि
"मल्ली नेमी वीरो गिहमवणे सावए ण पूइज्जइ ।
इगवीसं तित्थयरा संतिगरा पूइया वंदे ॥" मल्लीनाथ, नेमनाथ और महावीर स्वामी ये तीन तीर्थंकरों की प्रतिमा श्रावक को घरमंदिर में न पूजना चाहिये । किन्तु इक्कीस तीर्थंकरों की प्रतिमा घरमंदिर में शांतिकारक पूजनीय और वंदनीय हैं। कहा है कि
"नेमिनाथो वीरमल्ली-नायौ वैराग्यकारकाः। त्रयो वै भवने स्थाप्या न गृहे शुभदायकाः ॥"
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बिम्बपरीक्षा प्रकरणम्
नेमनाथ स्वामी, महावीर स्वामी और मल्लीनाथ स्वामी ये तीनों तीर्थकर वैराग्यकारक हैं, इसलिये इन तीनों को प्रासाद (मंदिर) में स्थापित करना शुभकारक हैं, किन्तु घरमंदिर में स्थापित करना शुभकारक नहीं हैं।
इक्कंगुलाइ पडिमा इक्कारस जाव गेहि पूइज्जा। उड्ढे पासाइ पुणो इअ भणियं पुव्वसूरीहिं ॥ ४३॥
घरमंदिर में एक अंगुल से ग्यारह अंगुल तक की प्रतिमा पूजना चाहिये, इससे अर्थात् ग्यारह अंगुल से अधिक बड़ी प्रतिमा प्रासाद में ( मंदिर में ) पूजना चाहिये ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है ॥ ४३ ॥
नह-अंगुलीअ-बाहा-नासा-पय-भंगिणु कमेण फलं । सत्तुभयं देसभंगं बंधण-कुलनास-दव्वक्खयं ॥४४॥
प्रतिमा के नख, अंगुली, बाहु, नासिका और चरण इनमें से कोई अंग खंडित हो जाय तो शत्रु का भय, देश का विनाश, बंधनकारक, कुल का नाश और द्रव्य का क्षय, ये क्रमशः फल होते हैं ॥४४॥ . पयपीढचिराहपरिगर-भंगे जनजाणभिच्चहाणिकमे ।
छत्तसिरिवच्छसवणे लच्छी-सुह-बंधवाण खयं ॥ ४५ ॥ पादपीठ चिन्ह और परिकर इनमें से किसी का भंग हो जाय तो क्रमशः स्वजन, वाहन और सेवक की हानि हो । छत्र, श्रीवत्स और कान इनमें से किसी का खंडन हो जाय तो लक्ष्मी, सुख और बंधन का क्षय हो ॥ ४५ ॥
बहुदुक्ख वकनासा हस्संगा खयंकरी य नायव्वा । नयणनासा कुनयणा अप्पमुहा भोगहाणिकरा ॥ ४६॥
यदि प्रतिमा वक्र (टेढी ) नाकवाली हो तो बहुत दुःखकारक है। इस्व (छोटे) अवयववाली हो तो क्षय करनेवाली जानना। खराब नेत्रवाली हो तो नेत्र का विनाशकारक जानना और छोटे मुखवाली हो तो भोग की हानिकारक जानना ॥१६॥
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(१००)
वास्तुसारे
कडिहीणायरियहया सुयबंधवं हणइ हीणजंघा य । हीणासण रिद्धिहया धणक्खया हीणकरचरणा ॥४७॥
प्रतिमा यदि कटि हीन हो तो प्राचार्य का नाशकारक है। हीन जंघावाली हो तो पुत्र और मित्र का क्षय करे । हीन आसनवाली हो तो रिद्धि का विनाशकारक है। हाथ और चरण से हीन हो तो धन का क्षय करनेवाली जानना ॥ ४७॥
उत्ताणा अत्थहरा वंकग्गीवा सदेसभंगकरा। अहोमुहा य सचिंता विदेसगा हवइ नीचुच्चा ॥४८॥
प्रतिमा यदि ऊर्ध्व मुखवाली हो तो धन का नाशकारक है, टेढी गरदनवाली हो तो स्वदेश का विनाश करनेवाली है। अधोमुखवाली हो तो चिन्ता उत्पन्न करनेवाली और ऊंच नीच मुखवाली हो तो विदेशगमन करानेवाली जानना ॥४८॥
विसमासण-वाहिकरा रोरकरराणायदव्वनिप्पन्ना। हीणाहियंगपडिमा सपक्खपरपक्खकट्टकरा ॥ ४१ ॥
प्रतिमा यदि विषम आसनवाली हो तो व्याधि करनेवाली है। अन्याय से पैदा किये हुए धन से बनवाई गई हो तो वह प्रतिमा दुष्काल करनेवाली जानना । न्यूनाधिक अंगवाली हो तो स्त्रपक्ष को और परपक्ष को कष्ट देनेवाली है ॥ ४६॥
पडिमा रउद्द जा सा करावयं हंति सिप्पि अहियंगा। दुब्बलदव्वविणासा किसोअरा कुणइ दुभिक्खं ॥ ५० ॥
प्रतिमा यदि रौद्र ( भयानक ) हो तो करानेवाले का और अधिक अंग वाली हो तो शिल्पी का विनाश करे । दुर्बल अंगवाली हो तो द्रव्य का विनाश करे और पतली कमरवाली हो तो दुर्भिक्ष करे ।। ५० ॥
उड्ढमुही धणनासा अप्पूया तिरिअदिहि विन्नेया। अइघट्टदिष्टि असुहा हवइ अहोदिडि विग्धकरा ॥५१॥
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विम्वपरीक्षा प्रकरणम्
प्रतिमा यदि ऊर्ध्व मुखवाली हो तो धन का नाश करनेवाली है। तिरछी दृष्टिवाली हो तो अपूजनीय रहे । अति गाढ दृष्टिवाली हो तो अशुभ करने वाली है और अधोदृष्टि हो तो विघ्नकारक जानना ॥ ५१ ॥
चउभवसुराण आयुह हवंति केसंत उप्परे जइ ता। करणकरावणथप्पणहाराण प्पाणदेसहया ॥ ५२ ॥
चार निकाय के ( भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक ये चार योनि में उत्पन्न होने वाले ) देवों की मूर्ति के शस्त्र यदि केश के ऊपर तक चले गये हों तो ऐसी मूर्ति करने वाले, कराने वाले और स्थापन करने वाले के प्राण का और देश का विनाशकारक होती है ॥ ५२॥
___ यह सामान्यरूप से देवों के शस्त्रों के विषय में कहा है, किन्तु यह नियम सब देवों के लिये हो ऐसा मालूम नहीं पड़ता, कारण कि भैरव, भवानी, दुर्गा, काली श्रादि देवों के शस्त्र माथे के ऊपर तक चले गये हैं, ऐसा प्राचीन मूर्तियों में देखने में आता है, इसीसे मालूम होता है कि ऊपर का नियम शांत वदनवाले देवों के विषय में होगा। रौद्र प्रकृतिवाले देवों के हाथों में लोहू का खप्पर या मस्तक प्राय: करके रहते हैं, ये असुरों का संहार करते हुए देख पड़ते हैं, इसलिये शस्त्र उठायें रहने से माथे के ऊपर जा सकते हैं तो यह दोष नहीं माना होगा, परन्तु ये देव भी शान्तिचित्त होकर बैठे हों ऐसी स्थिति की मूर्ति बनवाई जाय तो इनके शस्त्र उठायें न रहने से माथे ऊपर नहीं जा सकते, इसलिये उपरोक्त दोष बतलाया मालूम होता है ।
चउवीसजिण नवग्गह जोइणि-चउसट्टि वीर-बावन्ना । चवीसजक्खजक्खिणि दह-दिहवइ सोलस-विज्जुसुरी ॥५३॥ नवनाह सिद्ध-चुलसी हरिहर बंभिंद दाणवाईणं । वणंकनामश्रायुह वित्थरगथाउ जाणिजा ॥ ५४ ॥ इति परमजैनश्रीचन्द्राङ्गज ठक्कुर ‘फेरु' विरचिते वास्तुसारे
बिम्बपरीक्षाप्रकरणं द्वितीयम् ।
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( १०२)
वास्तुसारे
चौवीस जिन, नवग्रह, चौंसठ योगिनी, पावन वीर, चौवीस यक्ष, चौवीस यक्षिणी, दश दिक्पाल, सोलह विद्यादेवी, नव नाथ, चौरासी सिद्ध, विष्णु, महादेव, ब्रह्मा, इन्द्र और दानव इत्यादिक देवों के वर्ण, चिह्न, नाम और आयुध आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन अन्य * ग्रंथों से जानना चाहिये ॥ ५३॥ ५४॥
अथ प्रासाद-प्रकरणं तृतीयम् ।
भणियं गिहलक्खणाइ-विंबपरिक्खाइ-सयलगुणदोसं । संपइ पासायविही संखेवणं णिसामेह ॥ १॥
समस्त गुण और दोष युक्त घर के लक्षण और प्रतिमा के लक्षण मैंने पहले कहा है । अब प्रासाद (मंदिर ) बनाने की विधि को संक्षेप से कहता हूँ, इसको सुनो ॥ १ ॥
पढमं गड्डाविवरं' जलंतं यह ककरतं कुणह। कुम्मनिवेसं यह खुरस्सिला तयणु सुत्तविही ॥ २ ॥
प्रासाद करने की भूमि में इतना गहरा खात खोदना कि जल पाजाय या कंकरवाली कठिन भूमि आ जाय । पीछे उस गहरे खोदे हुए खात में प्रथम मध्य में कूर्मशिला स्थापित करना, पीछे आठों दिशा में आठ खुरशिला स्थापित करना । इसके बाद सूत्रविधि करना चाहिये ॥ २ ॥
* उपरोक्त देवों में से २४ जिन, ६ ग्रह, २४ यक्ष. २४ यक्षिणी, १६ विद्यादेवी और १० दिग्पाल का स्वरूप इसी ग्रन्थ के परिशिष्ट में दे दिया है, बाकी के देवों का स्वरूप मेरा अनुवादित 'रूपमंडन' ग्रन्थ जो अब छपनेबाला है उसमें देखो।
, 'गड्डावरयं' । २ 'भारियध्वं' 'नायव्वं' इति पाठान्तरे ।
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प्रासाद प्रकरणम्
(१०३)
कुशिला का प्रमाण प्रासादमण्डन में कहा है कि
"अर्धाङ्गलो भवेत् कूर्म एकहस्ते सुरालये । अर्धाङ्गलात् ततो वृद्धिः कार्या तिथिकरावधिः ॥ एकत्रिंशत्करान्तं च तदर्द्धा वृद्धिरिष्यते । ततोछुपि शतान्तिं कुर्यादङ्गुलमानतः ॥ चतोंशाधिका ज्येष्ठा कनिष्ठा हीनयोगतः । सौवर्णरौप्यजा वापि स्थाप्या पञ्चामृतेन सा ॥"
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में आधा अंगुल की कूर्मशिला स्थापित करना । क्रमशः पंद्रह हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद में प्रत्येक हाथ आधे २ अंगुल की वृद्धि करना। अर्थात् दो हाथ के प्रासाद में एक अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद में डेढ अंगुल, इसी प्रकार प्रत्येक हाथ आधा २ अंगुल बढाते हुए पंद्रह हाथ के प्रासाद में साढे सात अंगुल की कूर्म-शिला स्थापित करें। आगे सोलह हाथ से इकतीस हाथ तक पाव २ अंगुल बढाना, अर्थात् सोलह हाथ के प्रासाद में पौंणे
आठ अंगुल, सत्रह हाथ के प्रासाद में आठ अंगुल, अठारह हाथ के प्रासाद में सवा आठ अंगुल, इसी प्रकार प्रत्येक हाथ पाव २ अंगुल मढ़ावें तो इकतीस हाथ के प्रासाद में साढे ग्यारह अंगुल की कूर्मशिला स्थापित करें।
आगे बत्तीस हाथ से पचास हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाथ आध २ पाव अंगुल अर्थात् एक २ जब की कू मशिला बढाना । अर्थात् बत्तीस हाथ के प्रासाद में साढ़े ग्यारह अंगुल और एक जव, तेत्तीस हाथ के प्रासाद में पौंणे बारह अंगुल, इसी प्रकार पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में पौणे चौदह अंगुल और एक जब की बड़ी कूर्मशिला स्थापित करें। जिस मान की कूर्मशिला आवे उसमें अपना चौथा भाग जितना अधिक बढावे तो ज्येष्ठमान की और अपना चौथा भाग जितना घटादे तो कनिष्ठ मान की कूर्मशिला होती है। यह कूर्मशिला सुवर्ण या चांदी की बनाकर पंचामृत से स्नान करवाकर स्थापित करना चाहिये ।
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(१०४ )
वास्तुसारे
कूर्मशिला और नंदादिशिला का स्वरूप
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-
नेट
उस कूर्मशिला का स्वरूप विश्वकर्मा कृत क्षीरार्णव ग्रन्थ में बतलाया है कि कूर्मशिला के नव भाग करके प्रत्येक भाग के ऊपर पूर्वादि दिशा के सृष्टिक्रम से लहर, मच्छ, मेंडक, मगर, ग्रास, पूर्णकुंभ, सर्प और शंख ये आठ दिशाओं के भागों में और मध्य भाग में कछुवा बनाना चाहिये । कूर्मशिला
को स्थापित करके पीछे उसके ऊपर
पार - एक नाली देव के सिंहासन तक रखी जाती है, उसको प्रासाद की नाभि कहते हैं ।
प्रथम कूर्मशिला को मध्य में स्थापित करके पीछे ओसार में नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता, अजिता, अपराजिता, शुक्ला, सौभागिनी और धरणी ये नव खुरशिला कूर्मशिला को प्रदक्षिणा करती हुई पूर्वादि सृष्टिक्रम से स्थापित करना चाहिये । नबवीं धरणी'शिला को मध्य में कूर्मशिला के नीचे स्थापित करना चाहिये । इन नन्दा आदि शिलाओं के ऊपर अनुक्रम से वज्र, शक्ति, दंड, तलवार, नागपास, ध्वजा, गदा और त्रिशुल इस प्रकार दिग्पालों का शस्त्र बनाना चाहिये और धरणी शिला के ऊपर विष्णु का चक्र बनाना चाहिये । शिला स्थापन करने का क्रम
"ईशानादग्निकोणाचा शिला स्थाप्या प्रदक्षिणा ।
मध्ये कूर्मशिला पश्चाद् गीतवादित्रमङ्गलैः ॥" प्रथम मध्म में सोना या चांदी की कूर्मशिला स्थापित करके पीछे जो आठ खुर शिला हैं, ये ईशान पूर्व अग्नि आदि प्रदक्षिण क्रम से गीत वाजींत्र की मांगलिक ध्वनि पूर्वक स्थापित करें।
१ कितनेक आधुनिक मिस्त्री लोग धरणी शिला को ही कूर्मशिला कहते हैं।
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प्रासाद प्रकरणम्
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( १०५) प्रासाद के पीठ का मान
पासायाश्रो श्रद्धं तिहाय पायं च पीढ-उदओ अ। तस्सद्धि निग्गमो होइ उववीटु जहिच्छमाणं तु ॥ ३॥
प्रासाद से आधा, तीसरा या चौथा भाग पीठ का उदय होता है। उदय से आधा पीठ का निर्गम होता है। उपपीठ का प्रमाण अपनी इच्छानुसार करना चाहिये ॥ ३ ॥ पीठ के थरों का स्वरूप
अड्डथरं' फुल्लिअओ जाडमुहो कणउ तह य कयवाली। - गय-अस्स-सीह-नर-हंस-पंचथरइं भवे पीठं ॥ ४ ॥ इति पीठः ॥
अड्डथर, पुष्पकंठ, जाड्यमुख ( जाड्यंबो), कणी और केवाल ये पांच थर सामान्य पीठ में अवश्य होते हैं। इनके ऊपर गजथर, अश्वथर सिंहथर, नरथर, और हंसथर इन पांच थरों में से सब या न्यूनाधिक यथाशक्ति बनाना चाहिये । सामान्य पीठ का स्वरूपPYAARTHPRADABAATRADIOMPARISHAD ग्रारम्प
केवाल
अन्तरमन
जाइमभ।
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, 'भथरं' इति पाठान्सरे।
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(१०६)
वास्तुसारे
पांच थर युक्त महापीठ का स्वरूप
काय कराया जा सकता किमान यासपहा.
केवाला
कगी।
COPYRICSXEPISOR
KERSIA-
-रम-E-REK
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सिरीविजयो महापउमो नंदावतो अ लच्छितिलओ अ। नरवेअ कमलहंसो कुंजरपासाय सत्त जिणे ॥५॥
श्रीविजय, महापद्म, नंद्यावर्त, लक्ष्मीतिलक, नरवेद, कमलहंस और कुंजर ये सात प्रासाद जिन भगवान के लिये उत्तम हैं ॥ ५ ॥
बहुभेया पासाया अस्संखा विस्सकम्मणा भणिया । तत्तो श्र केसराई पणवीस भणामि मुलिल्ला ॥ ६ ॥
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प्रासाद प्रकरणम्
( १०७) विश्वकर्मा ने अनेक प्रकार के प्रासाद के असंख्य भेद बतलाये हैं, किन्तु इनमें अति उत्तम केशरी आदि पच्चीस प्रकार के प्रासादों को मैं ( फेरु) कहता हूँ ॥६॥ 'पच्चीस प्रकार के प्रासादों के नाम---
केसरि अ सव्वभदो सुनंदणो नंदिसालु नंदीसो । तह मंदिरु सिरिवच्छो अमिअब्भवु हेमवंतो अ॥७॥ हिमकूडु कईलासो पुहविजओ इंदनीलु महनीलो। भूधरु अ रयणकूडो वइडुज्जो पउमरागो अ॥ ८॥ वज्जंगो मुउडुज्जलु अइरावउ रायहंसु गरुडो अ। वसहो अ तह य मेरु एए पणवीस पासाया ॥ ९॥
केशरी, सर्वतोभद्र, सुनंदन, नंदिशाल, नंदीश, मन्दिर, श्रीवत्स, अमृतोद्भव, हेमवंत, हिमकूट, कैलाश, पृथ्वीजय, इंद्रनील, महानील, भूधर, रत्नकूड, वैडूर्य, पद्मराग, वनांक, मुकुटोज्वल, ऐरावत, राजहंस, गरुड, वृषभ और मेरु ये पच्चीस प्रासाद के क्रम रा नाम है ॥ ७-८-६ ॥ पच्चीस प्रासादों के शिखरों की संख्या
पण अंडयाइ-सिहरे कमेण चउ वुड्ढि जा हवइ मेरु । मेरुपासायअंडय-संखा इगहियसयं जाण ॥ १०॥
पहला केशरी प्रासाद के शिखर ऊपर पांच अंडक (शिखर के आसपास जो छोटे छोटे शिखर के आकार के रखे जाते हैं उनको अंडक कहते हैं, ऐसे प्रथम केशरी प्रासाद में एक शिखर और चार कोणे पर चार अंडक हैं। ) पीछे क्रमशः चार २ अंडक मेरुप्रासाद तक बढ़ाते जावें तो पच्चीसवाँ मेरु प्रासाद के शिखर पर कुल एक सौ एक अंडक होते हैं ॥ १० ॥
इन पच्चीस प्रासादों का सचित्र सविस्तरवर्णन मेरा अनुवादित 'प्रासादमण्डन' ग्रन्थ जो अब छपनेबाला है उसमें देखो।
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(१०८)
वास्तुसारे - जैसे केशरी प्रासाद में शिखर समेत पांच अंडक, सर्वतोभद्र में नव, सुनंदन प्रासाद में तेरह, नंदिशाल में सत्रह, नंदीश में इक्कीस, मन्दिरप्रासाद में पच्चीस, श्रीवत्स में उनत्तीस, अमृतोद्भव में तैंतीस, हेमंत में सैंतीस, हेमकूट में इकतालीस, कैलाश में पैंतालीस, पृथ्वीजय में उन-पचास, इन्द्रनील में त्रेपन, महानील में सत्तावन, भूधर में इकसठ, रत्नकूड में पैंसठ, वैडूर्य में उनसत्तर (६६), पद्मराग में तिहत्तर, वज्रांक में सतहत्तर, मुकुटोज्वल में इक्यासी, ऐरावत में पचासी, राजहंस में नेयासी,गरुड में तिराणवे, वृषभ में सत्तानवे और मेरुप्रासाद के ऊपर एकसौ एक शिखर होते हैं। दीपार्णवादि शिल्प ग्रंथों में चतुर्विंशति जिन आदि के प्रासाद का स्वरूप तल आदि के
भेदों से जो बतलाया है, उसका सारांश इस प्रकार है
१ कमलभूषणप्रासाद (ऋषभजिनप्रासाद)-तल भाग ३२ । कोण भाग ३, कोणी भाग १, प्रतिकर्ण भाग ३, कोणी भाग १, उपरथ भाग ३, नंदी भाग १, भद्रार्द्ध भाग ४=१६+१६=३२ ।
२ कामदायक (अजितवल्लम) प्रासाद-तलमाग १२ । कोण २, प्रतिकर्ण २, भद्रार्द्ध २-६+६=१२।
३ शम्भववल्लभप्रासाद-तल भाग है। कोण १६, कोणी प्रतिकर्ण १, नंदी , भद्रार्द्ध १६-४६+४-६ ।
४ अमृतोद्भव (अभिनंदन) प्रासाद-तल भाग ६ । कोण आदि का विभाग ऊपर मुजब ।
५ क्षितिभूषण (सुमतिवल्लभ) प्रासाद-तल भाग १६ । कोण २, प्रतिकर्ण २, उपरथ २, भद्रार्द्ध २८+८=१६ ।
६ पद्मराग (पद्मप्रभ) प्रासाद-तल भाग १६ । कोण आदि का विभाग ऊपर मुजब ।
७ सुपार्श्ववल्लभप्रासाद-तल भाग १० । कोण २, प्रतिकर्ण १६, भद्रार्द्ध १६-५+५=१०।
___८ चंद्रप्रभप्रासाद-तल भाग ३२ । कोण ५, कोणी १, प्रतिकर्ण ५, नंदी १, भद्रार्द्ध ४=१६+ १६-३२।
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प्रासाद प्रकरणम्
( १०६) ६ पुष्पदंत प्रासाद-तल भाग १६ । कोण २, प्रतिकर्ण २, उपरथ २, भद्रार्द्ध २८+८=१६ ।
१० शीतलजिन प्रासाद- तल भाग २४ । कोण ४, प्रतिकर्ण ३, भद्रार्द्ध ५=१२+१२-२४ ।
११ श्रेयांसजिन प्रासाद-तल भाग २४ । कोण आदि का विभाग ऊपर मुजब ।
१२ वासुपूज्य प्रासाद-तल भाग २२। कोण ४, कोणी १, प्रतिकर्ण ३, नंदी १, मद्रार्द्ध २-११+११=२२ ।
. १३ विमलवल्लभ (विष्णुवल्लभ) प्रासाद-तल माग २४ । कोण ३, कोणी १, प्रतिकर्ण ३, नंदी १, भद्राई ४=१२+१२=२४ ।
१४ अनंतजिन प्रासाद-तल माग २०। कोण ३, प्रतिकर्ण ३, नंदी १, भद्राद्धे ३=१० + १०=२०।
१५ धर्मविवर्द्धन प्रासाद-तल भाग २८ । कोण ४, कोणी १, प्रतिकर्ण ४ नंदी १, भद्रार्द्ध ४=१४+१४२८ ।
१६ शांतिजिन प्रासाद-तल भाग १२ । कोण २, कोणी ३, प्रतिकर्ण १६, नंदी, भद्रार्द्ध १६-६+६=१२।
१७ कुंथुवल्लभ प्रासाद-तल भाग ८ । कोण १, प्रतिकर्ण १, नंदि. भद्रार्द्ध १६४+४=1
१८ अरिनाशन प्रासाद-तल भाग ८ । कोण भाग २, भद्रार्द्ध २=४ +४==
१६ मन्लीवल्लभ प्रासाद- तल भाग १२ । कोण २, कोणी , प्रतिकर्ण १६, नंदी ३, भद्रार्द्ध १६६+६=१२ ।
२० मनसंतुष्ट ( मुनिसुव्रत ) प्रासाद-तल भाग १४ । कोण २, प्रतिकर्ण२, मद्रार्द्ध माग ३-७+७=१४ ।
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। ११०)
वास्तुसारे २१ नमिवल्लभ प्रासाद-उल भाग १६ । कोण ३, प्रतिकर्ण २, भद्रार्द्ध भाग ३=८+८=१६।
२२ नेमिवल्लभ प्रासाद-तल भाग २२ । कोण २, कोणी १, प्रतिकर्ण २, कोणी १, उपरथ २, नंदिका १, भद्रार्द्ध २=११ + ११=२२ ।।
२३ पाचवल्लभ प्रासाद-तल भाग २८ । कोण ४, कोणी २, प्रतिकर्ण ३, नंदिका १, भद्रार्द्ध ४=१४+१४ = २८ ।
२४ वीरविक्रम ( वीरजिनवल्लभ ) प्रासाद-तल भाग २४ । कोण ३, कोणी १, प्रतिकर्ण ३, नंदी १, भद्रार्द्ध ४% १२+१२ = २४ । प्रासाद संख्या
एएहि उवज्जंती पासाया विविहसिहरमाणाओ। नव सहस्स छ सय सत्तर वित्थारगंथाउ ते नेया ॥ ११ ॥
अनेक प्रकार के शिखरों के मान से नव हजार छ: सौ सत्तर (६६७० ) प्रासाद उत्पन्न होते हैं । उनका सविस्तर वर्णन अन्य ग्रन्यों से जानना ॥ ११॥ प्रासादतल की भाग संख्या
चउरंसंमि उ खित्ते अट्ठाइ दु वुड्ढि जाव बावीसा । भायविराडं एवं सव्वेसु वि देवभवणेसु ॥ १२॥
समस्त देवमन्दिर में समचौरस मूलगम्भारे के तलभाग का आठ, दश, बारह, चौदह, सोलह, अठारह, बीस या बाईस भाग करना चाहिये ॥ १२॥ प्रासाद का स्वरूप ---
चउकूणा चउभदा सब्बे पासाय हुंति नियमेण । कूणस्सुभयदिसेहिं दलाई पडिहोंति भद्दाइं ॥ १३ ॥ पडिरह वोलिंजरया नंदीसुकमेण ति पण सत्त दला। पल्लवियं करणिक अवस्स भद्दस्स दुण्हदिसे ॥ १४ ॥
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प्रासाद प्रकरणम्
( १११ )
चार कोना और चार भद्र ये समस्त प्रासादों में नियम से होते हैं। कोने के
दोनों तरफ प्रतिभद्र होते हैं ॥ १३ ॥
प्रतिकर्ण
उपरथ
कर्ण-रेखा
ओसार
कर्या-रेखा
समदल
प्रासाद तल
प्रतिफण
देखा-कर्ण
ओसार
रेखा-कणे
यह प्रासाद का नक्शा प्रासाद मंडन और अपराजित यदि ग्रंथों के आधार से सम्पूर्ण अवयवों के
के साथ दिया गया है, उसमें से
इच्छानुसार बना सकते हैं ।
प्रतिरथ, वोलिंजर और नंदि इनका मान क्रम से तीन, पांच और साढ़े तीन भाग समझना ।
भद्र की दोनों तरफ पल्लविका और कर्णिका अवश्य करके होते हैं ॥ १४ ॥
दो भाय 'हव कृणो कमेण पाऊण जा भवे गंदी | पायं एग दुसड्ढं पल्लवियं करणिकं भदं ॥ १५ ॥
दो भाग का कोना, पीछे क्रम से पाव २ भाग न्यून नंदी तक करना । पाव भाग, एक भाग और भढ़ाई भाग ये क्रम से पल्लव, कर्णिका और भद्र का मान समझना ।। १५ ॥
भद्दद्धं दसभायं तस्साओ मूलनासियं एगं ।
पणाति त य सवाति य कमेण एयंपि पडिरहाईसु ॥ १६ ॥
भद्रार्द्ध का दश भाग करना, उनमें से एक भाग प्रमाण की शुकनासिका करना । पौने तीन, तीन और सवा तीन ये क्रम से प्रतिरथ आदि का मान समझना ॥ १६ ॥
१ 'कुणओ हुइ' इति पाठान्तरे २ 'ऽहलेहं सुकमेण नाथवं ।
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( ११२)
वास्तुसारे
प्रासाद के अंग
कूणं पडिरह य रहं भदं मुहभद्द मूलअंगाई। नंदीकरणिक पल्लव तिलय तवंगाइ भूसणयं ॥१७॥इति विस्तरः।
कोना, प्रतिरथ, रथ, भद्र और मुखभद्र ये प्रासाद के अंग हैं। तथा नंदी, कर्णिका, पल्लव, तिलक और तवंग आदि प्रासाद के भूषण हैं ॥ १७ ॥ मण्डोवर के तेरह थर
खुर कुंभ कलस कइवलि मच्ची जंघा य छज्जि उरजंघा । भरणि सिरवट्टि छज्ज य वइराडु पहारु तेर थरा ॥१८॥ इगतिय दिवड्दु तिसुकमि पणसड्ढाइग दु दिवड्ड दिवड्ढो अ। दो दिवड्डु दिवड्दु भाया पणवीसं तेर थरमाणं ॥१९॥
खुर, कुंभ, कलश, केवाल. मंची, जंघा, छजि, उरजंघा, भरणी, शिरावटी, छज्जा, वेराडु और पहारू ये मण्डोवर के उदय के तेरह थर हैं ॥ १८॥
उपरोक्त तेरह थरों का प्रमाण क्रमशः एक, तीन, डेढ़, डेढ़, डेढ़, साढ़े पांच, एक, दो, डेढ़, डेढ़, दो, डेढ़ और डेढ़ हैं। अर्थात् पीठ के ऊपर खुरा से लेकर छाद्य के अंत तक मंडोवर के उदय का पच्चीस भाग करना. उनमें नीचे से प्रथम एक भाग का खुरा, तीन भाग का कुंभ, डढ़ भाग का कलश, डेढ़ भाग का केवाल, डेढ़ माग की मंची, साढ़े पांच भाग की जंघा, एक भाग की छाजली, दो भाग की उरजंघा, डेढ़ भाग की भरणी, डेढ़ भाग की शिगवटी, दो भाग का छज्जा, डेढ़ भाग का वेराडु और डेढ़ भाग का पहारु इस प्रकार थर का मान है ॥ १६ ॥
२५भागमंडोबर।
विराष्ट्र
छना
करावरी
Ladki
Kau
उर.
जम
--
214
....
कलश
उर
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प्रासाद प्रकरणम् प्रासादमण्डन में नागरादि चार प्रकार के मंडोवर का स्वरूप इस प्रकार कहा है१-नागर जाति के मंडोवर का स्वरूप
"वेदवेदेन्दुभक्ते तु छाद्यान्तो पीठमस्तकात् । खुरका पञ्चभागः स्याद् विंशतिः कुम्भकस्तथा ॥१॥ कलशोऽष्टौ द्विसाई तु कर्त्तव्यमन्तरालकम् । कपोतिकाष्टौ मञ्ची च कर्चव्या नवमागिका ॥२॥ त्रिंशत्पश्चयुता जङ्घा तिथ्यंशा उद्गमो भवेत् । वसुभिर्भरणी कार्यों दिग्भागैश्च शिरावटी ॥३॥ अष्टांशोर्वा कपोताली द्विसार्द्धमन्तरालकम् ।
छाद्यं त्रयोदशांशैश्च दशभागैर्विनिर्गमम् ॥ ४ ॥" प्रासाद की पीठ के ऊपर से छज्जा के अन्त्य भाग तक मंडोवर के उदय का १४४ भाग करना । उनमें प्रथम नीचे से खुर पांच भाग का, कुंभ बीस भाग का, कलश आठ भाग का, अंतराल (अंतरपत्र या पुष्पकंठ ) ढाई भाग का, कपोतिका (केवाल ) आठ भाग की, मञ्ची नव भाग की, जंघा पैंतीस भाग की, उद्गम ( उरुजंघा ) पंद्रह भाग का, भरणी पाठ माग की, शिरावटी दश माग की, कपोतालि (केवाल ) पाठ भाग की, अंतराल (पुष्पकंठ) ढाई भाग का और छज्जा तेरह भाग का करना । छज्जा का निर्गम ( निकासू) दश भाग का करना । २-मेरु जाति के मंडोवर का स्वरूप
"मेरुमण्डोवरे मञ्ची भरण्यूर्वेऽष्टभागिका । पञ्चविंशतिका जंघा उद्गमश्च त्रयोदशः ॥५॥
अष्टांशा भरणी शेषं पूर्ववत् कल्पयेत् सुधीः ।" मेरु जाति के प्रासाद के मंडोवर में मञ्ची और भरणी के ऊपर शिरावटी ये दोनों आठ २ भाग की करना । जंघा पच्चीत भाग की, उद्गम ( उरुघा) तेरह भाग की और भरणी आठ भाग की करना । बाकी के थरों का भाग नागर जाति के मंडोवर की तरह समझना । कुल १२६ भाग मंडोवर का जानना ।
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( १५५ )
वास्तुसारे ३-सामान्य मंडोवर का स्वरूप
"सप्तभागा भवेन्मञ्ची कूटं छाद्यस्य मस्तके ॥६॥ षोडशांशाः पुनर्जेङ्घा भरणी सप्तभागिका ।। शिरावटी चतुभांगा पद: स्यात् पञ्चभागिकः ॥७॥ सूर्योशेः कुटछाद्यं च सर्वकामफलप्रदम् ।।
कुंभकस्य युगांशेन स्थावराणां प्रवेशकम् ॥८॥ 'सामान्य मंडोवर में मची सात भाग की करना । छज्जा के ऊपर कूट का छाद्य करना । जंघा सोलह भाग की, भरणी सात भाग की, शिरावटी चार भाग की, केवाल पांच भाग की और छज्जा बारह भाग का करना । बाकी के थरों का मान मेरु जाति के मण्डोवर के मुआफिक समझना । यह मण्डोवर सब काये में फलदायक है । ४-अन्य प्रकार से मंडोवर का स्वरूप
"पीठतश्छाद्यपर्यन्तं सप्तविंशतिभाजितम् । द्वादशानां खुरादीनां भागसंख्या क्रमेण च ॥ स्यादेकवेदसाोद्धे-सार्द्धसा ष्टभित्रिभिः ।
सार्द्धसार्द्धार्द्धभागैश्च द्विसार्द्धमंशनिर्गमम् ॥" पीठ के ऊपर से छज्जा के अन्त्य भाग तक मंडोवर के उदय का सत्ताईस भाग करना। उनमें खुर आदि बारह थरों की भाग संख्या क्रमशः इस प्रकार हैखुर एक भाग, कुंम चार भाग, कलश डेढ भाग, पुष्पकंठ आधा भाग, केवाल डेढ भाग, मंची डेढ भाग, जंघा आठ भाग, ऊरुजंघा तीन भाग, भरणी डेढ भाग, केवाल डेढ भाग, पुष्पकंठ आधा भाग और छजा ढाई भाग, इस प्रकार कुल २७ भाग के मंडोवर का स्वरूप है। छज्जा का निर्गम एक भाग करना ।
अहमदाबाद निवासी मिस्त्री जगन्नाथ अंबाराम सोमपुरा ने बृहद् शिल्प शास्त्र नामक एक पुस्तक महा अशुद्ध और बिना विचार पूर्वक लिखी है उसके प्रथम भाग में सामान्य मंडोवर और प्रकारान्तर मंडोघर के भाग मूल श्लोक के मुश्राफिक नहीं है । जैसे- 'शिरावटी चतुर्भागा' मूल है, उसका अर्थ मिस्त्रीजी ने 'शिरावटी पाठ भाग की करना' लिखा है। प्रकारान्तर मंडोवर में कुंभा चार भाग का है, इसमें श्र 'चार भाग का कुंभा करना किन्तु उसमें से एक भाग का खुरा करना' लिखते हैं. एवं भाषान्तर में ढाई भाग का छजा लिखते हैं तो नकशे में दो भाग का छज्जा बतलाते हैं. इस प्रकार सारी पुस्तक में ही कई जगह भूल कर दी है, इसके समाधान के लिये पत्र द्वारा पूछा गया था तो संतोषप्रद जवाब नहीं मिला।
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प्रासाद प्रकरणम्
१५)
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प्रकारान्तरेमंडोवर-भाग२७
..
....
...
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--
-..
-
सामान्य मंडोवर-भाग ११०
६................
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.
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-
. ---
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मेलडोवर-भाग१२.
३
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-भरात
अंतरान बसंह
मागरादि मंडोवर-भागm
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वास्तुसारे प्रासाद ( देवालय ) का मान
पासायस्स पमाणं गणिज सहभित्तिकुंभगथरायो । तस्स य दस भागायोदो दो वित्ती हि रसगब्भे ॥२०॥
बाहर के भाग से कुंभा के थर से दीवार के सहित प्रासाद का प्रमाण गिनना चाहिये । जो मान आवे इसका दश भाग करना, इनमें दो २ भाग की दीवार और छः भाग का गर्भगृह ( गंभारा ) करना चाहिये ॥ २० ॥ प्रासाद के उदय का प्रमाण
इग दु ति चउ पण हत्थे पासाइ खुराउ जा पहारूथरो। नव सत्त पण ति एगं अंगुलजुत्तं कमेणुदयं ॥२१॥
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद की ऊंचाई एक हाथ और नव अंगुल, दो हाथ के विस्तारवाले प्रासाद की ऊंचाई दो हाथ और सात अंगुल, तीन हाथ के विस्तारवाले प्रासाद की ऊंचाई तीन हाथ और पांच अंगुल, चार हाथ के विस्तार वाले प्रासाद की ऊंचाई चार हाथ और तीन अंगुल, पांच हाथ के विस्तार वाले प्रासाद की ऊंचाई पांच हाथ और एक अंगुल है । यह खुरा से लेकर पहारू थर तक के मंडोवर का उदयमान समझना ॥२१॥ प्रासादमण्डन में भी कहा है कि
"हस्तादिपञ्चपर्यन्तं विस्तारेणोदयः समः ।
स क्रमाद् नवसप्तेषु-रामचन्द्राङ्गुलाधिकम् ॥" एक से पांच हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद की ऊंचाई विस्तार के बराबर करना अर्थात् क्रमशः एक, दो, तीन, चार और पांच हाथ करना, परन्तु इनमें क्रम से नव, सात, पांच, तीन और एक अंगुल जितना अधिक समझना ।
इच्चाइ खबाणते पडिहत्थे चउदसंगुलविहीणा । इन उदयमाण भणियं अथो य उड्ढं भवे सिहरं ॥२२॥
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प्रासाद प्रकरणम
( ११७ )
पांच हाथ से अधिक पचास हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद का उदय करना हो तो प्रत्येक हाथ चौदह २ अंगुल हीन करना चाहिये अर्थात् पांच हाथ से अधिक विस्तारवाले प्रासाद की ऊंचाई करना हो तो प्रत्येक हाथ दश २ अंगुल की वृद्धि करना चाहिये । जैसे-छः हाथ के विस्तारवाले प्रासाद की ऊंचाई ५ हाथ और ११ अंगुल, सात हाथ के प्रासाद की ऊंचाई ५ हाथ और २१ अंगुल, आठ हाथ के प्रासाद की ऊंचाई ६ हाथ और ७ अंगुल, इत्यादि क्रम से पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद की ऊंचाई २३ हाथ और १६ अंगुल होती है । यह प्रासाद का अर्थात् मंडोवर का उदयमान कहा । इसके ऊपर शिखर होता है || २२ ||
प्रासादमण्डन में अन्य प्रकार से कहा है
"पश्वादिदशपर्यन्तं त्रिंशद्यावच्छतार्द्धकम् । हस्ते हस्ते क्रमाद् वृद्धि-र्मनुसूर्या नवाङ्गुला ॥"
पांच से दश हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद का उदय करना हो तो प्रत्येक हाथ चौदह २ अंगुल की, ग्यारह से तीस हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद का उदय करना हो तो प्रत्येक हाथ बारह २ अंगुल की और इकतीस से पचास हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद का उदय करना हो तो प्रत्येक हाथ नव २ अंगुल की वृद्धि करना चाहिये ।
शिखरों की ऊंचाई
दूणु पाऊणु भूमजु नागरु सतिहाउ दिवदु सप्पाउ । दाविsहिरो विड्ढो सिरिखच्छो पऊण दूगो ॥ २३॥
प्रासाद के मान से अमज जाति के शिखर का उदय पौने दुगुणा (१३), नागर जाति के शिखर का उदय अपना तीसरा भाग युक्त ( १ ), डेढ़ा (१३), या सवाया ( ११ ) । द्राविड़ जाति के शिखर का उदय डेढा (१३) और श्रीवत्स शिखर का उदय पौने दुगुना (
) है ॥ २३ ॥
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वास्तुसारे
( १९३)
रेखमंदिर के शिखर का स्वरूप
...-शिखर-.-.-------
शिखर की गोलाई करने का प्रकार ऐसा है कि-दोनों कर्ण-रेखा के मध्य के विस्तार से चार गुणा व्यासार्द्ध मानकर, दोनों बिन्दु से दो वृत्त खिंचा जाय तो शिखर की गोलाई कमल की पंखडी जैसी अच्छी बनती है।
प्रतिकणे- उपरप
कर्ण-रेवा
उमंग
प्रतिकर्ण - उपरम
कर्ण. रेखा
-
शिखरों की रचना
छजउड उवरि तिहु दिसि रहियाजुअबिंब-उवरि-उरसिहरा । कूणेहिं चारि कूडा दाहिण वामग्गि 'दो तिलया ॥२४॥
छज्जा के ऊपर तीनों दिशा में रथिका युक्त बिम्ब रखना और इसके ऊपर उरु शिखर ( उरुशृंग ) करना । चारों कोने के ऊपर चार कूट ( खिखरा-अंडक ) और इसके दाहिनी तथा बाई तरफ दो तिलक बनाना चाहिये ॥ २४ ॥
उरसिहरकूडमज्झे सुमूलरेहा य उवरि चारिलया ।
अंतरकूणेहिं रिसी श्रावलसारो अ तस्सुवरे ॥२५॥ १ 'दुदु' इति पाठान्तरे।
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प्रासाद प्रकरणम्
प्रामलसार कलश का स्वरूप
आम लसारिका
उरुशिखर और कूट के मध्य में प्रासाद की मूलरेखा के ऊपर चार लताएँ करना। लता के ऊपर चारों कोने में चार ऋषि रखना और इन ऋषियों के ऊपर आमलसार कलश रखना ।। २५ ॥ मामलसार कलश का स्वरूप'पडिरह-बिकन्नमज्झे अामलसारस्स वित्थरद्धदये ।
गीवंडयचंडिकामलसारिय पऊण सवाउ इक्किक्के ॥२६॥
दोनों कर्ण के मध्य भाग में प्रतिरथ जितने आमलसार कलश का विस्तार करना और विस्तार से आधा उदय करना । जितना उदय हो उसका चार भाग करना, उनमें पौने भाग का गला, सवा भाग का
सला अंडक (मामलसार का गोला ), एक भाग की चंद्रिका और एक भाग की आमलसारिका करना ॥ २६ ॥ प्रासादमण्डन में कहा है कि
"रथयोरुभयोर्मध्ये वृत्तमामलसारकम् । उच्छ्रयो विस्तरार्द्धन चतुर्भागैर्विभाजितः॥ ग्रीवा चामलसारस्तु पादोना च सपादकः ।
चन्द्रिका भागमानेन भागेनामलसारिका ॥" दोनों रथिका के मध्य भाग जितनी आमलसार कलश की गोलाई करना, मामलसार के विस्तार से आधी ऊँचाई करना, ऊँचाई का चार भाग करके पौने भाग का गला, सवा भाग का मामलसार, एक भाग की चंद्रिका और एक भाग की आमलसारिका करना।
"पडिरह-बिकन्न मज्झे प्रामलसारस्स वित्थरो होइ । तस्सद्धेण य उदो तं मज्झे ठाण चत्तारि ।। गीवंडयचंडिका आमलसारिय कमेण तब्भागा। पाऊणु सवाईउ इगेगो आमलसारस्स एस विहि ॥" इति पाठान्तरे ।
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(१२०)
वास्तुलारे
श्रामलसारयमज्झे चंदणखट्टासु सेयपट्टचुत्रा । तस्सुवरि कणयपुरिसं घयपूरतो य वरकलसो ॥२७॥
आमलसार कलश के मध्य भाग में सफेद रेशम के वस्त्र से ढका हुआ चंदन का पलंग रखना। इस पलंग के ऊपर 'कनकपुरुष ( सोने का प्रासाद पुरुष) रखना और इसके पास घी से भरा हुआ तांबे का कलश रखना, यह क्रिया शुभ दिन में करना चाहिये ॥ २७ ॥
पाहणकहिट्टमयो जारिसु पासाउ तारिसो कलसो । जहसत्ति पइट्ठ पच्छा कणयमो रयणजडियो अ॥२८॥
पत्थर, लकड़ी या ईंट उनमें से जिसका प्रासाद बना हो, उसी का ही कलश भी बनाना चाहिये । अर्थात् पत्थर का प्रासाद बना हो तो कलश भी पत्थर का, लकड़ी का प्रासाद हो तो कलश भी लकड़ी का और ईंट का प्रासाद बना हो तो कलश भी ईंट का करना चाहिये । परन्तु प्रतिष्ठा होने के बाद अपनी शक्ति के अनुसार सोने का या रत्न जड़ित का भी करवा सकते हैं ॥२८॥ शुकनास का मान
छज्जाउ जाव कंधं इगवीस विभाग करिवि तत्तो अ । नवाइ जावतेरस दीहुदये हवइ सउणासो ॥२१॥
छजा से स्कंध तक के ऊंचाई का इक्कीस भाग करना, उनमें से नव, दश, ग्यारह, बारह व तेरह भाग बराबर लंबा उदय में शुकनास करना ॥ २६ ॥
उदयद्धि विहिन पिंडो पासायनिलाडतिकं च तिलउच्च । तस्सुवरि हवइ सीहो मंडपकलसोदयस्त समा ॥३०॥
उदय से आधा शुकनास का पिंड (मोटाई) करना। यह प्रासाद के ललाटत्रिकका तिलक माना जाता है। उसके ऊपर सिंह मंडप के कलश का उदय बराबर रखना । अर्थात् मंडप की ऊंचाई शुकनास के सिंह से अधिक नहीं होनी चाहिये ॥३०॥
कनकपुरुष का मान भागे की ११ वीं गाथा में कहा है।
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प्रासाद प्रकरणम्
( १२२) समरांगणसूत्रधार में कहा है कि
"शुकनासोच्छ्रितरूज़ न कार्या मण्डपोच्छ्रितिः।" शुकनास की ऊंचाई से मंडप की ऊंचाई अधिक नहीं करना चाहिये, किन्तु बराबर या नीची करना चाहिये । प्रासादमण्डन में भी कहा है कि
"शुकनाससमा घण्टा न्यूना श्रेष्ठा न चाधिका ।" शुकनास के बराबर मडंप का कलश करना, या नीचा करना अच्छा है, परन्तु ऊंचा रखना अच्छा नहीं । मंदिर में लकड़ी कैसी वापरना
सुहयं इग दारुमयं पासायं कलस-दंड-मकडिग्रं ।
सुहकह सुदिट्ट कीरं सीसिमखयरंजणं महुवं ॥३१॥ ... प्रासाद ( मन्दिर ), कलश, ध्वजादंड और ध्वजादंड की पाटली ये सब एक ही जात की लकड़ी के बनायें जाय तो सुखकारक होते हैं। साग, केगर, शीसम खेर, अंजन और महुआ इन वृक्षों की लकड़ी प्रासादिक बनाने के लिये शुभ मानी है ॥ ३१ ॥
नीरतलदलविभत्ती भद्दविणा चउरसं च पासायं । फंसायारं सिहरं करंति जे ते न नंदति ॥३२॥
पानी के तल तक जिस प्रासाद का खात खोदा हो, ऐसा समचौरस प्रासाद यदि मद्र रहित हो, तथा फांसी के आकार के शिखरवाला हो, ऐमा मन्दिर जो मनुष्य करावे वह मनुष्य सुखपूर्वक आनन्द में नहीं रहता ।। ३२ ॥ कनकपुरुष का मान
श्रद्धंगुलाइ कमसो पायंगुलवुढिकणयपुरिसो । कीरइ धुव पासाए इगहत्थाई खवाणंते ॥ ३३ ॥
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( १२२)
पास्तुसारे एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में कनकपुरुष आधा अंगुल का करना चाहिये । पीछे प्रत्येक हाथ पांव २ अंगुल बड़ा बनाना चाहिये । अर्थात् दो हाथ के प्रासाद में पौना अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद में एक अंगुल, चार हाथ के प्रासाद में सवा भंगुल इत्यादिक क्रम से पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में पौने तेरह अंगुल का कनकपुरुष बनाना चाहिये ॥ ३३ ।। ध्वजादंड का प्रमाण
इग हत्थे पासाए दंडं पउणंगुलं भवे पिंडं । श्रद्धंगुलवुढिकमे जाकरपन्नास-कन्नुदए ॥ ३४॥
___ एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में ध्वजादंड पौने भंगुल का मोटा बनाना चाहिये । पीछे प्रत्येक हाथ
आधे २ अंगुल क्रम से बढ़ाना चाहिये । अर्थात् दो हाथ के प्रासाद में सवा अंगुल का, तीन हाथ के प्रासाद में पौने दो अंगुल का, चार हाथ के प्रासाद में सवा दो अंगुल का, पांच हाथ के प्रासाद में पौने तीन भंगुल का, इसी क्रम से पचाम हाय के विस्तारवाले प्रासाद में सवा पचीस अंगुल का मोटा ध्वजादंड करना चाहिये। तथा कर्ण के उदय जितना लंबा वजादंड करना चाहिये ॥ ३४ ॥
D0
1840
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ध्वजा3
प्रासादमण्डन में कहा है कि
"एकहस्ते तु प्रासादे दण्डः पादोनमङ्गुलम् ।
कुर्यादाङ्गुला वृद्धि-वित् पञ्चाशद्धस्तकम् " एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में पौने अंगुल का मोटा ध्वजादंड करना, पीछे पचास हाथ तक प्रत्येक हाथ माधे २ अंगुल मोटाई में पढ़ाना चाहिये ।
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प्रासाद प्रकरणम्
(१२३)
ध्वजादंड की ऊंचाई इस प्रकार है
"दण्डः कार्य स्तृतीयांश शिलातः कलशावधिम् ।
मध्योऽष्टांशेन हीनांशो ज्येष्ठात् पादोनः कन्यसः॥" खुरशिला से कलश तक ऊंचाई के तीन भाग करना, उनमें से एक तीसरा माग जितना लंबा ध्वजादंड करना, यह ज्येष्ठ मान का ध्वजादंड होता है। यदि ज्येष्ठ मान का पाठवां भाग ज्येष्ठ मान में से कम करें वो मध्यम मान का और चौथा भाग कम करें तो कनिष्ठ मान का ध्वजादंड होता है। प्रकारान्तर से ध्वजादण्ड का मान
"प्रासादव्यासमानेन दण्डो ज्येष्ठः प्रकीर्तितः ।
मध्यो हीनो दशांशेन पञ्चमांशेन कन्यसः ॥" प्रासाद के विस्तार जितना लंबा ध्वजादंड करें तो यह ज्येष्ठमान का होता है। यही ज्येष्ठमान के दंड का दशवा भाग ज्येष्ठमान में से घटा दें तोमध्यम मान का और पांचवां भाग घटा दें तो कनिष्ठमान का ध्वजादंड होता है। ध्वजादण्ड का पर्व (खंड) और चूड़ी का प्रमाण
"पर्वमिर्विषमैः कार्यः समग्रन्थी सुखावहः।" दंड में पर्व (खंड) विषम रखें और गांठ (चूडी) सम रखें तो यह सुखकारक है। ध्वजादंड के ऊपर की पाटली का मान
"दण्डदैर्घ्यषडाशेन मर्कट्यर्द्धन विस्तृता ।
श्रद्धचन्द्राकृतिः पार्श्वे घण्टोऽर्द्ध कलशस्तथा ।" दंड की लंबाई का छठा भाग जितनी लंबी मर्कटी (पाटली) करना और लंबाई से आधा विस्तार करना । पाटली के मुख भाग में दो अर्ध चन्द्र का आकार करना। दो तरफ घंटी लगाना और ऊपर मध्य में कलश रखना। अर्द्ध चन्द्र के भाकारवाला भाग पाटली का मुख माना है। यह पाटली का मुख और प्रासाद का मुख एक दिशा में रखना और मुख के पिछाड़ी में ग्वजा लगानी चाहिये।
इसी प्रकरण की २३ वीं गाथा में मरी (पाटली) का मान प्रासाद का माठवां भाग माना है।
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(१२४ )
: घास्तुसारे ..
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ध्वजा का मान
णिप्पन्ने वरसिहरे धयहीणसुरालयम्मि असुरठिई। तेण धयं धुव कीरई दंडसमा मुक्खसुक्खकरा ॥३५॥
सम्पूर्ण बने हुए देवमन्दिर के अच्छे शिखर पर ध्वजा न हो तो उस देव मन्दिर में असुरों का निवास होता है । इसलिये मोक्ष के सुख को करनेवाली दंड के बराबर लम्बी ध्वजा अवश्य करना चाहिये ॥३॥ प्रासादमण्डन में कहा है कि
जा दण्डप्रमाणेन दैाऽष्टांशेन विस्तरा ।
नानावर्णा विचित्राद्या त्रिपञ्चाग्रा शिखोत्तमा ॥" ध्वजा के वस्त्र दंड की लम्बाई जितना लम्बा और दंड का आठवां भाग जितना चौड़ा.अनेक प्रकार के वर्षों से सुशोभित करना, तथा ध्वजा के अंतिम भाग में तीन या पांच शिखा करना, यह उत्तम ध्वजा मानी गई है। द्वार मान
'पासायस्स दुवारं 'हत्थंपइ सोलसंमुलं उदए। , 'जा हत्थ चउक्का हुँति तिगदुग वुड्ढि कमाडपन्नासं ॥३६॥
प्रासाद के द्वार का उदय प्रत्येक हाथ सोलह अंगुल का करना, यह घृद्धि चार हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद तक समझना अर्थात् चार हाथ के विस्तार वाले प्रासाद के द्वार का उदय चौंसठ अंगुल समझना। पीछे क्रमशः तीन २ और दो २ अंगुल की वृद्धि पचास हाथ तक करना चाहिये ॥३६॥ प्रासादमंडन में नागरादि प्रासाद द्वार का मान इसी प्रकार कहा है
"एकहस्ते तु प्रासादे द्वारं स्यात् षोडशांगुलम् । षोडशांगुलिका वृद्धि-यावद्धस्तचतुष्टयम् ॥
..पासायाभोः । २. 'हत्थापइः। ३.'नवपंचम विस्थारे अहवा,पिहुलाउ दूणुदये' । इति प्राङ्गास्सरे ।
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प्रासाद प्रकरणम्
(१२५) अष्टहस्तान्तकं यावद् दीर्घ वृद्धिर्गुणाङ्गला । द्वयङ्गला प्रतिहस्तं च यावद्धस्तशतार्द्धकम् ॥ यानवाहनपर्यत द्वारं प्रासादसमनाम् ।
दैयोर्द्धन पृथुत्वे स्याच्छोभनं तत्कलाधिकम् ॥" __ एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में सोलह अंगुल द्वार का उदय करना । पीछे चार हाथ तक सोलह २ अंगुल की वृद्धि, पांच से आठ हाथ तक तीन २ अंगुल की वृद्धि और आठ से पचास हाथ तक दो २ अंगुल की वृद्धि द्वार के उदय में करना चाहिये । पालकी, रथ, गाड़ी, पलंग (मांचा), मंदिर का द्वार भौर घर का द्वरि ये सब लंबाई से प्राधा चौड़ा करना, यदि चौड़ाई में बढ़ाना हो तो लंबाई का सोलहवां भाग बढाना ।
उदयद्धिवित्थरे बारे आयदोसविसुद्धए । अंगुलं सड्ढमद्धं वा 'हाणि वुड्ढी न दूसए ॥ ३७॥
उदय से आधा द्वार का विस्तार करना। द्वार में ध्वजादिक आय की शुद्धि के लिये द्वार के उदय में आधा या डेढ अंगुल न्यूनाधिक किया जाय तो दोष नहीं है ॥ ३७॥
निल्लाडि बारउत्ते बिंवं साहेहि हिहि पडिहारा। कूणेहिं अदिसिवइ जंघापडिरहइ पिक्खणयं ॥ ३८ ॥ .
दरवाजे के ललाट भाग की ऊंचाई में बिंब ( मूर्ति ) को, द्वारशाख में नीचे प्रतिहारी, कोने में आठ दिग्पाल और मंडोवर के जंघा के थर में तथा प्रतिरथ में नाटक करती हुई पुतलिएँ रखना चाहिये ॥ ३८॥ विम्बमान
पासायतुरियभागप्पमाणबिंब स उत्तमं भणियं । रावट्टरयणविद्दम-धाउमय जहिच्छमाणवरं ॥ ३१ ॥ , 'कुज्झा हिणं तहाहिय' । इति पाठान्तरे।
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( १२६)
- वास्तुसारे प्रासाद के विस्तार का चौथा भाग प्रमाण जो प्रतिमा हो वह उत्तम प्रतिमा कहा है। किन्तु राजपट्ट ( स्फटिक ), रत्न, प्रवाल या सुवर्णादिक धातु की प्रतिमा का मान अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं ॥ ३९ ॥ विवेकविलास में कहा है कि
"पासादतुर्येभागस्य समाना प्रतिमा मता । उत्तमायकृते सा तु कायकोनाधिकागाला ॥ अथवा स्वदशांशेन हीनस्याप्यधिकस्य वा ।
कार्या प्रासादपादस्य शिल्पिभिः प्रतिमा समा ॥" प्रासाद के चौथे भाग के प्रमाण की प्रतिमा करना, यह उत्तम लाभ की प्राप्ति के लिये है, परन्तु चौथे भाग में एक अंगुल न्यून या अधिक रखना चाहिये। या प्रासाद के चौथे भाग का दश भाग करना, उनमें से एक भाग चौथे भाग में हीन करके या बढ़ा करके उतने प्रमाण की प्रतिमा शिल्पकारों को बनानी चाहिये । वसुनंदिकृत प्रतिष्ठासार में कहा है कि
"द्वारस्याष्टांशहीनः स्यात् सपीठः प्रतिमोच्छ्रयः ।
तत् त्रिभागो भवेत् पीठं द्वौ मागौ प्रतिमोच्छ्रयः ।।" द्वार का आठ भाग करना, उनमें से ऊपर के आठवें भाग को छोड़कर बाकी सात भाग प्रमाण पीठिका सहित प्रतिमा की ऊंचाई होनी चाहिये । सात भाग-का तीन भाग करना, उनमें से एक भाग की पीठिका (पवासन ) और दो भाग की प्रतिमा की 'ऊंचाई करना चाहिये। प्रासादमएडन में कहा है कि
"तृतीयांशेन गर्भस्य प्रासादे प्रतिमोत्तमा ।
मध्यमा स्वदशांशोना पञ्चांशोना कनीयसी ॥" प्रासाद के गर्भगृह का तीसरा भाग प्रमाण प्रतिमा बनाना उत्तम है। प्रतिमा का दशवां भाग प्रतिमा में घटाकर उतने प्रमाण की प्रतिमा करें तो मध्यममान की, और पांचवां भाग न्यून प्रतिमा करें तो कनिष्ठमान की प्रतिमा समझना ।
यह ऊंचाई खपी मूर्ति के लिये है, यदि बैठी मूर्ति हो तो दो भाग का पवासन और एक भाग की मूर्ति रखना चाहिये ।
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प्रासाद प्रकरणम्
( १२७)
प्रतिमा की दृष्टि का प्रमाण
दसभाय यदुवारं" उदुंबर-उत्तरंग-मज्झेण । पढमसि सिवदिट्ठी बीए सिरसत्ति जाणेह ॥ ४०॥
मन्दिर के मुख्य द्वार के देहली और उत्तरंग के मध्य भाग का दश भाग करना । उनमें नीचे के प्रथम भाग में महादेव की दृष्टि, दूसरे भाग में शिवशक्ति (पार्वती ) की दृष्टि रखना चाहिये ॥ ४० ॥
सयणासणसुर-तईए लच्छीनारायणं चउत्थे अ। - वाराहं पंचमए छठंमे लेवचित्तस्स ॥४१॥
तृतीय भाग में शेषशायी (विष्णु ) की दृष्टि, चौथे भाग में लक्ष्मीनारायण की दृष्टि, पंचम भाग में बाराहावतार की दृष्टि, छठे भाग में लेप और चित्रमय प्रतिमा की दृष्टि रखना चाहिये ।। ४१॥
सासणसुरसत्तमए सत्तमसत्तंसि वीयरागस्स ।
चंडिय-भइरव-अडसे नवमिदा छत्तचमरधरा ॥ ४२ ॥ ___ सातवें भाग में शासनदेव (जिन भगवान के यन और यक्षिणी) की दृष्टि, यहीं सातवें भाग के दश भाग करके उनका जो सातवाँ भाग वहीं पर वीतरागदेव की दृष्टि,
आठवें भाग में चंडीदेवी और भैरव की दृष्टि और नववे भाग में छत्र चामर करने वाले इंद्र की दृष्टि रखना चाहिये ॥ ४२ ॥
दसमे भाए सुन्नं जक्खागंधव्वरक्खसा जेण । हिट्ठाउ कमि ठविजइ सयल सुराणं च दिट्ठी अ॥ ४३ ॥
ऊपर के दशवें भाग में किसी की दृष्टि नहीं रखना चाहिये, क्योंकि वहां यक्ष, गांधर्व और राक्षसों का निवास माना है । समस्त देवों की दृष्टि द्वार के नीचे के क्रम से रखना चाहिये ॥४३॥
'कडूवारं' इति पाठान्तरे ।
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(१८)
वास्तुसारे
प्रकारान्तर से दृष्टि का प्रमाण
भागह भणंतेगे सत्तमसत्तंसि दिष्ठि 'अरिहंता । गिहदेवालु पुणेवं कीरइ जह होइ वुड्ढिकरं ॥ ४४ ॥
कितनेक प्राचार्यों का मत है कि मंदिर के मुख्य द्वार के देहली और उत्तरंग के मध्य भाग का आठ भाग करना । उनमें भी ऊपर का जो सातवाँ माग, उसका फिर आठ भाग करके, इसी के सातवें मांग (गजांश ) पर अरिहंत की दृष्टि रखना चाहिये । अर्थात् द्वार के ६४ भाग करके, ५५ वें भाग पर वीतरागदेव की दृष्टि रखना चाहिये । इसी प्रकार गृहमंदिर में भी करना चाहिये कि जिससे लक्ष्मी आदि की वृद्धि हो ॥४४॥
प्रासादमण्डन में भी कहा है कि
"प्रायभागे भजेद द्वार-मष्टममतस्त्यजेत । सप्तमसप्तमे दृष्टि-वृषे सिंहे ध्वजे शुभा ॥"
द्वार की ऊंचाई का आठ भाग करके ऊपर का माठवाँ भाग छोड़ देना, पीछे मात भाग का फिर आठ भाग करके, इसीका जो सातवाँ भाग गजाय, उसमें दृष्टि रखना चाहिये । या सातवें भाग के जो आठ भाग किये हैं, उनमें से वृष, सिंह या ध्वज आय में अर्थात् पांचवां, तीसरा या पहला भाग में भी दृष्टि रख सकते हैं । दि० वसुनंदिकृत प्रतिष्ठासार में कहा है कि
"विभज्य नवधा द्वारं तत् षड्भागानधस्त्यजेत् ।। ___ ऊर्ध्वद्वौ सप्तमं तद्वद् विभज्य स्थापयेद् दृशाम् ॥"
द्वार का नव भाग करके नीचे के छः भाग और ऊपर के दो भाग को छोड़ दो, बाकी जो सातवा भाग रहा, उसका भी नव भाग करके इसी के सातवें भाग पर प्रतिमा की दृष्टि रखना चाहिये ।
'भरहता' इति पाठान्तरे ।
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प्रासाद प्रकरणम्
(१२६)
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देवों का दृष्टिद्वार
-
उत्तरंग धर्व राक्षसयतकीष्टि
इंद्र की धि
-जिन अविहंत राष्टि
-
चंडी भैरवदी दृष्टि -
-
जनयक्षयक्षिणी दृष्टि वीतरागकी रि
लेप और विजयी
प्रमाtra
१-प्रथम प्रकार से देवों का दृष्टि स्थान ।
वाराहावतारकी
यह प्रकार प्रायः सब आचार्यों को अधिक माननीय है । २-अन्य प्रकार से देवों का दृष्टि स्थान ।
लक्ष्मीनारायण की
शेषशायीकी दृष्टि
पानी की दृष्टि
RSSES
शिवदृष्टि
-
Vा देहली
(HEMA
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( १३०)
वास्तुसारे गर्भगृह में देवों की स्थापना
गब्भगिहड्ढ-पणंसा जक्खा पढमंसि देवया बीए । जिणकिराहरवी तइए बंभु चउत्थे सिवं पणगे ॥ ४५ ॥
प्रासाद के गर्भगृह के आधे का पांच भाग करना, उनमें प्रथम भाग में यक्ष, दूसरे भाग में देवी, तीसरे भाग में जिन, कृष्ण और सूर्य, चौथे भाग में ब्रह्मा और पांचवें भाग में शिव की मूर्ति स्थापित करना चाहिये ।। ४५ ।।
नहु गम्भे ठाविज्जइ लिंगं गम्भे चइज्ज नो कहवि । तिलश्रद्धं तिलमित्तं ईसाणे किंपि आसरिओ॥४६॥
महादेव का लिंग प्रासाद के गर्भ (मध्य) में स्थापित नहीं करना चाहिये । यदि गर्भ भाग को छोड़ना न चाहें तो गर्भ से तिल आधा तिलमात्र भी ईशानकोण में हटाकर रखना चाहिये ॥ ४६ ॥
भित्तिसंलग्गबिंब उत्तमपुरिसं च सव्वहा असुहं । चित्तमयं नागायं हवंति एए 'सहावेण ॥ ४७ ॥
दीवार के साथ लगा हुआ ऐसा देवबिंब और उत्तम पुरुष की मूर्ति सर्वथा अशुभ मानी है। किन्तु चित्रमय नाग मादि देव तो स्वाभाविक लगे हुए रहते हैं, उसका दोष नहीं ॥ ४७ ॥ जगती का स्वरूप
जगई पासायंतरि रसगुणा पच्छा नवगुणा पुरओ। दाहिण-वामे तिउणा इअ भणियं खित्तमझायं ॥ ४८ ॥
जगती (मंदिर की मर्यादित भूमि) और मध्य प्रासाद का अंतर पिछले भाग में प्रासाद के विस्तार से छः गुणा, आगे नव गुणा, दाहिनी और बायीं ओर तीन २ गुणा होना चाहिये । यह क्षेत्र की मर्यादा है।॥४८॥ . 'समासेय' इति पाठान्तरे।
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प्रासाद प्रकरणम्
( १३१) प्रासादमण्डन में जगती का स्वरूप विशेषरूप से कहा है कि
"प्रासादानामधिष्ठानं जगती सा निगद्यते ।
यथा सिंहासनं राज्ञां प्रासादानां तथैव च ॥ १॥"
प्रासाद जिस भूमि में किया जाय उस समस्त भूमि को जगती कहते हैं। अर्थात् मंदिर के निमित्त जो भूमि है उस समस्त भूमि भाग को जगती कहते हैं । जैसे राजा का सिंहासन रखने के लिये अमुक भूमि भाग अलग रखा जाता है, वैसे प्रासाद की भूमि समझना ॥१॥
"चतुरस्रायतेऽष्टासा वृत्ता वृत्तायता तथा ।
जगती पञ्चधा प्रोक्ता प्रासादस्यानुरूपतः ॥ २॥" समचौरस, लंबचौरस, आठ कोनेवाली, गोल और लंबगोल, ये पांच प्रकार की जगती प्रासाद के रूप सदृश होती है। जैसे-समचौरस प्रासाद को समचौरस जगती, लंगचौरस प्रासाद को लंबचौरस जगती इसी प्रकार समझना ॥ २ ॥
"प्रासादपृथुमानाच्च त्रिगुणा च चतुर्गुणा ।
क्रमात् पञ्चगुणा प्रोकना ज्येष्ठा मध्या कनिष्ठका ।। ३॥" प्रासाद के विस्तार में जगनी तीन गुणी, चार गुणी या पांच गुणी करना । त्रिगुणी कनिष्ठमान, चतुगुणी मध्यममान और पांच गुणी जेष्ठमान की जगती है ।। ३ ।।
"कनिष्ठे कनिष्ठा ज्येष्ठे ज्येष्ठा मध्यमे मध्यमा ।
प्रासादे जगती कार्या स्वरूपा लक्षणान्विता ॥ ४॥" कनिष्ठमान के प्रासाद में कनिष्ठमान जगती, ज्येष्ठमान के प्रासाद में ज्येष्ठमान जगती और मध्यमान प्रासाद में मध्यममान जगती। प्रासाद के स्वरूप जैसी जगती करना चाहिये ॥४॥
"रससप्तगुणाख्याता जिने पर्यायसंस्थिते ।
द्वारिकायां च कर्तव्या तथैव पुरुषत्रये ॥ ५॥" च्यवन, जन्म, दीचा, केवल और मोक्ष के स्वरूपवाले देवकुलिका युक्त जिनप्रासाद में छ. या सात गुणी जगती करना चाहिये । उसी प्रकार द्वारिका प्रासाद और त्रिपुरुष प्रासाद में भी जानना ।। ५॥
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( १)
पास्तुसारे "मण्डपानुक्रमेणैव सपादांशेन साईवः।
द्विगुणा वायता कार्या स्वहस्तायतनविधिः ॥६॥" मण्डप के क्रम से सवाई डेढी या दुगुनी विस्तारवाली जगती करना चाहिये ।
"त्रिद्वकभ्रमंसयुक्ता ज्येष्ठा मध्या कनिष्ठका ।
उच्छायस्य त्रिभागेन भ्रमणीनां समुच्छयः ॥७॥" तीन भ्रमणीवाली ज्येष्ठा, दो भ्रमणीवाली मध्यमा और एक भ्रमणीवाली कनिष्ठा जगती जानना । जगती की ऊंचाई का तीन भाग करके प्रत्येक भाग भ्रमणी की ऊंचाई जानना ॥ ७॥
"चतुष्कोणैस्तथा सूर्य-कोणैर्विशतिकोणकैः ।
__ अष्ठाविंशति-पत्रिंशत्-कोणैः स्वस्य प्रमाणतः॥ ८॥" जगती चार कोनावाली, बारह कोनावाली, बीस कोनावाली, अट्ठाइस कोनावाली और छत्तीस कोनावाली करना अच्छा है ॥८॥
"प्रासादाद्वार्कहस्तान्ते व्यंशे द्वाविंशतिकरात् ।
द्वात्रिंशचतुर्थांशे भूतांशोच्च शतार्द्धके ॥ ६॥" बारह हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को प्रासाद के तीसरे भाग अर्थात् प्रत्येक हाथ ८ अंगुल, बाईस से बत्तीस हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को चौथे भाग अर्थात् प्रत्येक हाथ छः अंगुल और तेंतीस से पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को पांचवें भाग जगती ऊंची बनाना चाहिए ॥ ४॥
"एक हस्ते करेणैव सार्द्धद्वयंशाश्चतुष्करे ।
सूर्यजैनशतान्तिं क्रमाद् द्वित्रियुगांशकैः ॥१०॥" एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को एक हाथ ऊंची जगती, दो से चार हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद को ढाईवें भाग, पांच से बारह हाथ तक के प्रासाद को इसरे भाग, तेरह से चौवीस हाथ के प्रासाद को तीसरे भाग और पचीस से पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद को चौथे माग जगती ऊंची करना चाहिये ॥१०॥
"तदुच्छ्राय मजेत् प्राज्ञः त्वष्टाविंशतिभिः पदैः। त्रिपदो जाड्यभस्य द्विपदं कर्णिकं तथा ॥११॥ पनपत्रममायुक्ता त्रिपदा सरपत्रिका । द्विपदं खुरकं कुर्यात् सप्तभागं च कुंभकम् ॥ १२ ॥
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जगती के उदय का स्वरूप-
जगती में देवकुलिका न करना हो तो किला (ग.) अवश्य बनाना चाहिये ।
1111
प्रासाद] प्रकरणम्
मंडोवर
1. PERO 912:
प्रासाद पीठ
..........
BIB
'जंगति पीठ'
( १३३)
- जीवराज औकारी..
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-
-
( १३४ )
वास्तुसार "कलशत्रिपदो प्रोक्तो भागेनान्तरपत्रकम् ।
कपोताली त्रिभागा च पुष्पकण्ठो युगांशकम् ॥ १३ ॥" जगती की ऊंचाई का अट्ठाईस भाग करना। उनमें तीन भाग का जाड्यकुंभ, दो भाग की कणी. पद्मपत्र सहित तीन भाग की ग्रास पट्टी, दो भाग का खुरा, सात भाग का कुंभा, तीन माग का कलश, एक भाग का अंतरपत्र, तीन भाग केवाल और चार भाग का पुष्पकंठ करना ॥ ११-१२-१३ ॥
"पुष्पकाज्जाडयकुंभस्य निर्गमस्याष्टभिः पदैः।।
कर्णेषु च दिशिपालाः प्राच्यादिषु प्रदक्षिणे ॥ १४ ॥" पुष्पकंठ से जाड्यकुंभ का निर्गम आठ भाग करना । पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिण क्रम से दिक्पालों को कर्ण में स्थापित करना ॥ १४ ॥
"प्राकारैर्मण्डिता कार्या चतुर्भिारमण्डपैः ।
मकरैर्जलनिष्कासैः सोपान-तोरणादिभिः ॥१५॥ जगती किला ( गढ़ ) से सुशोभित करना, चारों दिशा में एक २ द्वार बलाणक (मंडप) समेत करना जल निकलने के लिये मगर के मुखवाले परनालें करना, द्वार आगे तोरण और सीढिएँ करना ॥ १५ ॥ प्रासाद के मंडप का क्रम
पासाय कमलबग्गे गूढक्खयमंडवं तयो छकं । पुण रंगमंडवं तह तोरणसबलाणमंडवयं ॥४१॥
प्रासादकमल (गंभारा) के आगे गूढमंडप, गूढमंडप के भागे छः चौकी, छः चौकी के आगे रंगमंडप, रंगमंडप के आगे तोरण युक्त बलाणक (दरवाजे के ऊपर का मंडप ) इस प्रकार मंडप का क्रम है ।। ४६ ।। प्रासादमंडन में भी कहा है कि"गूढास्त्रिकस्तथा नृत्यं क्रमेण मंडपास्त्रयम् । जिनस्याग्रे प्रकर्त्तव्याः सर्वेषां तु बलानकम् ।"
जिन भगवान के प्रासाद के आगे गूढमंडप, उसके आगे त्रिक तीन (नव चौकी) और उसके आगे नृत्यमंडप (रंगमंडप),ये तीन मंडप करना चाहिये, तथा उन सबके आगे वलानक (दरवाजे पर का मंडप) सब मंदिरों में करना चाहिये ।
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प्रासाद प्रकरणम्
( १३५)
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( १३६ )
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समस्त सांगोपांग युक्त रेख मन्दिर के उदय का स्वरूप
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प्रासाद प्रकरणम् दाहिणवामदिसेहिं सोहामंडपगउक्खजुश्रसाला । गीयं नट्टविणोयं गंधव्वा जत्थ पकुणंति ॥ ५० ॥
प्रासाद के दाहिनी और बायीं तरफ शोभामंडप और गवाक्ष (झरोखा) युक्त शाला बनाना चाहिये कि जिसमें गांधर्वदेव गीत. नृत्य व विनोद करते हुए हो ॥५०॥ मंडप का मान
पासायसमं बिउणं दिउड्ढयं पऊणदूण वित्थारो। ...'सोवाण ति पण उदए चउदए चउकीओ मंडवा हुंति ॥५१॥
- प्रासाद के बराबर, दुगुणा, डेढा या पौने दुगुना विस्तारवाला मंडप करना चाहिये । मंडप में सीढी तीन या पांच करना और मंडप में चौकीएँ बनाना ।।५।। स्तम्भ का उदयमान
कुंभी-थंभ-भरण-सिर-पट्ट इग-पंच-पऊण-सप्पायं । इग इअ नव भाय कमे मंडववट्टाउ अद्धदए ॥५२॥
मंडप की गोलाई से आधा स्तंभ का उदय करना, उसी उदय का नव भाग करना, उनमें एक भाग की कुंभी, पांच भाग का स्तंभ, पौने भाग का भरणा, सवा भाग का शिरावटी (शरु) और एक भाग का पाट करना चाहिये ॥ ५२॥ मर्कटी कलश और स्तंभ का विस्तार---
पासाय-अट्टमंसे पिंडं मकडिअ-कलस-थंभस्म । दसमंसि बारसाहा सपडिग्धउ कलसु पउणदूणुदये ॥५३॥
प्रासाद के आठवें भाग के प्रमाणवाले मर्कटी ( ध्वजादंड की पाटली), कलश और स्तंभ का विस्तार करना, प्रासाद के दशवें भाग की द्वारशाखा करनी। कलश के विस्तार से कलश की ऊंचाई पौने दुगुनी करना ॥ ५३॥ 1 'सोवाणतिन्नि उदए' र 'दिवड्दुदये। इति पाठान्तरे ।
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(law)
angart
मंदिर में कैसे २ रूपवाले या सादे स्तंभ रखे जाते हैं, उनमें से कितनेक स्तंभों का स्वरूप
DELE
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बाजारा
३भाग:
प्रासाद प्रकरणम् कलश के उदय का प्रमाण प्रासादमंडन में कहा है कि
"ग्रीवापीठं भवेद् भागं त्रिभागेनाण्डकं तथा।
____कर्णिका भागतुल्येन त्रिमागं बीजपूरकम् ।।" कलश का स्वरूप
कलश का गला और पीठ का उदय एक २ भाग, अंडक अर्थात् Searn कलश के मध्य भाग का उदय तीन भाग, कर्णिका का उदय एक
भाग और बीजोरा का उदय तीन भाग । एवं कुल नव भाग कलश
के उदय के हैं। प्रक्षालन आदि के जल निकलने की नाली का मान
जलनालियाउ फरिसं करंतरे चउ जवा कमेणुचं । जगई अ भित्तिउदए छज्जइ समचउदिसेहिं पि ॥ ५४॥
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में जल निकलने की नाली का उदय चार जव करना। पीछे प्रत्येक हाथ चार २ जव उदय में बढाना । जगती के उदय में और दीवार (मंडोवर) के छज्जे के ऊपर चारों दिशा में जलनालिका करना चाहिये ।। ५४ ॥ प्रासादमंडन में कहा है कि
___ "मंडपे ये स्थिता देवा-स्तेषां वामे च दक्षिणे । . : प्रणालं कारयेद् धीमान् जगत्यां चतुरो दिशः ॥"
मंडप में जो देव प्रतिष्ठित हों उनके प्रक्षालन का पानी जाने की नाली बाँयी और दक्षिण ये दो दिशा में बनावें, तथा जगती की चारों दिशा में नाली करें । कौन २ वस्तु समसूत्र में रखना
पाइपट्टस्स हिटं छज्जइ हिडं च सव्वसुत्तेगं । उदुंबर सम कुंभि अ थंभ समा थंभ जाणेह ॥ ५५ ॥ .
पाट के नीचे और छज्जा के नीचे सब समसूत्र में रखना चाहिये । देहली के बराबर सब कुंभी और स्तंभ के बराबर सब स्तंभ करना चाहिये ।। ५५ ॥
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वास्तुसारे
मंदिर की द्वारशाखा, देहली और शंखावटी का स्वरूप
पंचगाखा
समशाररा
सतशाता
اسمه لمه سی تی
मानवावा
पा
शाखा
सात गारवा
नर शाखा
वारसा
पंच शाखा
मत शाखा
----देडली भाग
वासभा-11 मंधारकमा माम भा..]
am
इनका सविस्तर वर्णन प्रासादमंडन जो अब अनुवाद पूर्वक छपनेवाला है उसमें देखो | अहमदाबाद वाले मिस्त्री जगन्नाथ अंबाराम सोमपुरा का लिखा हुआ महा शुद्ध बृहद् शिल्पशास्त्र में देहली और शंखावटी के नकशे का भाग अशुद्ध लिखा है। मिस्त्रीजी खुद भाषा में तीन भाग लिखते हैं, और नकशे में चार भाग बतलाते हैं । मालूम होता है कि मिस्त्रीजी ने कुछ नशा करके पुस्तक लिखी होगी ।
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प्रासाद प्रकरणम्
चोवीस जिनालय का क्रम
अग्गे दाहिण-वामे अट्टजिणिंदगेह चउवीसं । मूलसिलागाउ इमं पकीरए जगइ मज्झम्मि ॥ ५६ ॥ चौवीस जिनालयवाला मन्दिर करना हो तो बीच के मुख्य मन्दिर के सामने, दाहिनी और बाँयीं तरफ इन तीनों दिशाओं में आठ आठ देवकुलिका (देहरी) जगती के भीतर करना चाहिये ॥ ५६ ।। चौवीस जिनालय में प्रतिमा का स्थापन क्रम
रिसहाई-जिणपंती सीहदुवारस्स दाहिणदिसाओ। ठाविज्ज सिटिमग्गे सव्वेहिं जिणालए एवं ॥ ५७ ॥
देवकुलिका में सिंहद्वार के दक्षिण दिशा से ( अपनी बाँयीं ओर से ) क्रमशः ऋषभदेव आदि जिनेश्वर की पंक्ति सृष्टिमार्ग से ( पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इस क्रम से ) स्थापन करना । इस प्रकार समस्त जिनालय में समझना ॥ ५७ ॥
चउवीसतित्थमज्झे जं एगं मूलनायगं हवइ । पंतीइ तस्स ठाणे सरस्सई ठवसु निभंतं ॥५८ ॥
चौवीस तीर्थंकरों में से जो कोई एक मूलनायक हो, उस तीर्थंकर की पंक्ति के स्थान में सरस्वती देवी को स्थापित करना चाहिये ॥ ५८ ॥ बापन जिनालय का क्रम
चउतीस वाम--दाहिण नव पुट्टि अट्ठ पुरओ अ देहरयं । मूलपासाय एगं बवागणजिनालये एवं ॥ ५९॥ चौंतीस देहरी बीच प्रासाद के बाँयीं और दक्षिण तरफ अर्थात् दोनों बगल में सत्रह सत्रह देहरी, नव देहरी पिछले भाग में, आठ देहरी आगे तथा एक मध्य का मुख्य प्रासाद, इस प्रकार कुल बावन जिनालय समझना चाहिये ॥ ५९॥
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(.१५२ )
वास्तुसारे बहत्तर जिनालय का क्रम
पणवीसं पणवीसं दाहिण-वामेसु पिठि इक्कारं ।
दह अग्गे नायव्वं इअ बाहत्तरि जिणिदालं ॥ ६० ॥ . मध्य मुख्य प्रासाद के दाहिनी और बायीं तरफ पच्चीस पच्चीस, पिछाडी ग्यारह, आगे दस और एक बीच में मुख्य प्रासाद, एवं कुल बहत्तर जिनालय जानना ॥६०॥ शिखरबद्ध लकड़ी के प्रासाद का फल
अंग विभूसण सहिअं पासायं सिहरबद्ध कट्ठमयं । नहु गेहे पूइज्जइ न धरिज्जइ किंतु जत्तु वरं ॥ ६१ ॥
कोना, प्रतिरथ और भद्र आदि अंगवाला, तथा तिलक तवंगादि विभूषण वाला शिखरबद्ध लकड़ी का प्रासाद घर में नहीं पूजना चाहिये और रखना भी नहीं चाहिये । किन्तु तीर्थ यात्रा में साथ हो तो दोष नहीं ।। ६१॥
जत्त कए पुणु पच्छा ठविज्ज रहसाल अहव सुरभवणे । जेण पुणो तस्सरिसो करेइ जिणजत्तवरसंघो ॥ ६२ ॥ तीर्थ यात्रा से वापिस आकर शिखरबद्ध लकड़ी के प्रासाद को रथशाला या देवमन्दिर में रख देना चाहिये कि फिर कभी उसके जैसा जिन यात्रा संघ निकालने में काम आवे ॥ ६२॥ गृहमन्दिर का वर्णन
गिहदेवालं कीरइ दारुमयविमाणपुष्फयं नाम । उववीढ पीठ फरिसं जहुत्त चउरंस तस्सुवरि ॥६३ ॥
पुष्पक विमान के आकार सदृश लकड़ी का घर मंदिर करना चाहिये। उपपीठ, पीठ और उसके ऊपर समचौरस फरश आदि जैसा पहले कहा है वैसा करना ॥६३॥
चउ थंभ चउ दुवारं चउ तोरण चउ दिसेहिं छज्जउडं । - पंच कणवीरसिहरं एग दु ति बारेगसिहरं वा ॥ ६४ ॥
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प्रासाद प्रकरणम्
(१७) चारों कोने पर चार स्तंभ, चारों दिशा में चार द्वार और चार तोरण, चारों मोर छज्जा और कनेर के पुष्प जैसा पांच शिखर (एक मध्य में गुम्मन, उसके चार कोणे पर एक एक गुमटी) करना चाहिये। एक द्वार या दो द्वार या तीन द्वार वाला और एक शिखर ( गुम्मज) वाला भी बना सकते हैं ॥ ६४ ॥
अह भित्ति छज्ज उवमा सुरालयं आउ सुद्ध कायव्वं । समचउरंसं गब्भे तत्तो असवायउ उदएसु ॥६५॥ दीवार और छज्जा युक्त गृहमंदिर बराबर शुभ आय मिला कर करना चाहिये। गर्भ भाग समचौरस और गर्भ भाग से सवाया उदय में करना चाहिये ।। ६५ ।। - गब्भाओ हवइ छज्जु सवाउ सतिहाउ दिवड्दु वित्थारे ।
वित्थाराओ सवाओ उदयेण य निग्गमे श्रद्धो ॥ ६६ ॥ ___ गर्भ भाग से छज्जा का विस्तार सवाया, अपना तीसरा भाग करके सहित १४ या डेढा होना चाहिये । गर्म के विस्तार से उदय में सवाया और निर्गम आधा होना चाहिये ।। ६६ ॥
छज्जउड थंभ तोरण जुअ उवरे मंडओवमं सिहरं। आलयमज्झे पडिमा छज्जय मज्झम्मि जलवढें ॥ ६७॥
छज्जा, स्तंभ और तोरण युक्त घर मंदिर के ऊपर मण्डप के शिखर के सदृश शिखर अर्थात् गुम्मज करना । गृहमंदिर के मध्य भाग में प्रतिमा रखें और छज्जा में जलवट बनावें ॥ ६७ ॥
गिहदेवालयसिहरे धयदंडं नो करिज्जइ कयावि । आमलसारं कलसं कीरइ इश्र भणिय सत्येहिं ॥ ६८॥
घरमंदिर के शिखर पर ध्वजादंड कभी भी नहीं रखना चाहिये । किन्तु श्रामलसार कलश ही करना चाहिये ऐसा शास्त्रों में कहा है ।। ६८ ॥
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वास्तुसारे
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पंथकार प्रशस्ति
सिरि-धंधकलस-कुल-संभवेण चंदासुएण फेरेण । कनाणपुर-ठिएण य निरिक्खिउं पुवसत्थाई ॥ ६१ ॥ सपरोवगारहेऊ नयण मुणि रामचंद्र' वरिसम्मि । विजयदशमीइ रइअं गिहपडिमालक्खणाईणां ॥ ७० ॥ इति परमजैनश्रीचन्द्राङ्गजठक्कर फेरुविरचिते वास्तुसारे
प्रासादविधिप्रकरणं तृतीयम् । श्री धंधकलश नामके उत्तम कुल में उत्पन्न हुए मेठ चंद्र का सुपुत्र 'फेरु' ने कल्याणपुर (करनाल) में रहकर और प्राचीन शास्त्रों को देखकर स्वपर के उपकार के लिये विक्रम संवत् १३७२ वर्ष में विजयदशमी के दिन यह घर, प्रतिमा और प्रासाद के लक्षण युक्त वास्तुसार नामका शिल्पग्रंथ रचा ॥ ६६ । ७०॥
नन्दाष्टनिधिचन्द्रे च वर्षे विक्रमराजतः ।
ग्रन्थोऽयं वास्तुसारस्य हिन्दीभाषानुवारितः॥ इति सौराष्ट्रराष्ट्रान्तर्गत पादलिप्तपुरनिवासिना पण्डितभगवानदासाख्या जैनेनानुवादितं गृह-बिम्ब-प्रासादप्रकरणत्रययुक्तं वास्तुसारनामकं
प्रकरणं समाप्तम् ।
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जैन कीर्तिस्तम्म. चौतोडगढ,
बादशवाउनका तकावराजालहान
यशप्रताप
जैन गुरुमात. जगढ़गुरु श्री हीरविजयसरि. प्राब
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सभा मण्डप के छत का भं तरी दृश्य जैन मन्दिर प्राबू
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अनुपम नकशीवाला एक गवाक्ष (ताक) जैन मन्दिर (पाबू)
नकशीदार स्तंम और गवाक्ष का दृश्य जैन मन्दिर (प्राबू)
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गज अश्वनर घोर हँस थर बाला कणपीठ.
तथा रूप बाला मंडाबर का सुबर दृश्य. श्री जगत् शरण जी का मन्दिर प्रामेर (जयपुर)
मनोहर कारिगरी बाला मन्डोवर.
जैन मन्दिर प्राबू ।
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लूणवसही जैन मन्दिर का भीतरी दृश्य प्राबू ।
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जगत्शरण जी के मन्दिर का निमजला शिखर .आमेर (जयपुर)
जगत्शरणजी के मन्दिर में गरूड़ जी का मंडप आमेर (जयपुर)
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नरतिहावतार की मृत । जैन मन्दिर प्राबू
जेसलमेर के जैन मन्दिर के सांभरण का सुन्दर दृश्य
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जैन मन्दिर का भीतरी दृश्य, प्राबू
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सभामगडपका भौतरी दृश्य श्राव
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परिशिष्ट
वज्रलेपमंदिर आदि की अधिक मजबूती के लिये प्राचीन जमाने में जो दीवाल आदि के ऊपर लेप किया जाता था, वह बृहत्संहिता में वज्रलेप के नाम से इस प्रकार प्रसिद्ध है
भामं तिन्दुकमाम कपित्थकं पुष्पमपि च शाल्मल्याः । बीजानि शल्लकीनां धन्वनवल्को वा चेति ॥ १॥ एतः सलिलद्रोणः काथयितव्योऽष्टभागशेषश्च । अवतार्योऽस्य च कल्को द्रव्यरेतः समनुयोज्यः ॥२॥ श्रीवासकरसगुग्गुलुभल्लातककुन्दुरूकसर्जरसैः ।
मतसीविल्वैश्च युतः कल्कोऽयं वज्रलेपाख्यः ॥ ३ ॥ टी-तिन्दुकं तिन्दुकफलं, आममपक्वम् । कपित्यकं कपित्यकफलमामेव । शाल्मल्याः शाल्मलिवृक्षस्य च पुष्पम् । शल्लकीनां शल्लकीवृक्षाणां बीजानि । धन्वनवलको धन्वनवृक्षस्य वल्कस्त्वक् । वचा च । इत्येवं प्रकारः । एतैर्द्रव्यैः सह सलिलद्रोण: क्वार्थयितव्यः । द्रोणः पलशतद्वयं षट्पञ्चाशदधिकम् । यावदष्टभागावशेषो भवति, द्वात्रिंशत्पलानि अवशिष्यन्त इत्यर्थः । ततोऽष्टभागावशेषोऽवतार्योऽवतारणीयो ग्राह्य इत्यर्थः । अस्य चाष्टभागशेषस्वतद्रव्यैवेक्ष्यमाणः कल्पश्चूर्णः समनुयोज्यो विधातव्यः । तच्चूर्णसंयुक्त कार्य इत्यर्थः । कैः इत्याह-श्रीवासकेति श्रीवासकः प्रसिद्धवृक्षनिर्यासः। रसो बोलः, गुग्गुलुः प्रसिद्धः, भल्लातकः प्रसिद्ध एव। कुन्दुरुको देवदारुवृक्षनिर्यासः । सर्जरसः सर्जरसवृक्षनिर्यासः । एतैः तथा अतसी प्रसिद्धा । बिल्वं श्रीफलं एतैश्च युतः समवेतः । अयं कल्को वज्रलेपाख्यः, वज्रलेपेत्याख्या नाम यस्य ।।१।२।३।।
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पास्तुलारे कच्चे तेंदुफल, कच्चे कैथफल, सेमल के पुष्प, शालवृक्ष के बीज धामनवृक्ष की छाल, और बच इन औषधों को बगवर लेकर एक द्रोण भर पानी में अर्थात २५६ पल-१०२४ तोला पानी में डाल कर क्वाथ बनावें । जब पानी आठवां भाग रह जाय, तब नीचे उतार कर उसमें श्रीवासक ( सरो) वृक्ष का गोंद, हीराबोल, गुग्गुल, भीलवा, देवदारु का गोंद ( कुंदुरु), राल, अलसी और बेलफल, इन बरावर औषधों का चूर्ण डाल देने से वज्रलेप तैयार होता है । वत्रलेप का गुण
प्रासादहयंवलभी-लिङ्गप्रतिमासु कुज्यकूपेषु ।
सन्तप्तो दातव्यो वर्षसहस्रायुतस्थायी ॥४॥ प्रासादो देवप्रासादः । हर्म्यम् । बलमी वातायनम् । लिङ्गं शिवलिङ्गम् । प्रतिमार्चा । एतासु तथा कुड्येषु भित्तिषु । कूपेषूदकोद्गारेषु । सन्तप्तोऽत्युप्णो दातव्यो देयः। वर्षसहस्रायुतस्थायी भवति । वर्षाणां सहस्रायुतं वर्षकोटिं तिष्ठतीत्यर्थः ॥४॥
उक्त वज्रलेप देवमंदिर, मकान, बरमदा, शिवलिंग, प्रतिमा ( मूर्ति ), दीवार और कूआँ इत्यादि ठिकाने बहुत गरम २ लगाने से उन मकान आदि की करोड़ वर्ष की स्थिति रहती है।
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चौबीस तीर्थंकरों के अनुक्रमसे लांछन१ घन-बैल २ हाथी । ३ घोड़ा
Y वानर
पाच
६पझ-कमल
७ स्वस्तिक
चंद्रमा
९ मगर
१०श्रीवत्स
११ गेंडा
१२ जैसा
१३ सुअर
17सीवाना-बान
१६हरण
७ बकरा
१८नंदावन
१९ कलश
२० कछुआ
२२ शंख
२३सपे
२.सित
१नील कमल GOOD
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जिनेश्वर देव और उनके शासन देवों का स्वरूप जिनेश्वर देव और उनके शासन देवों का स्वरूपजिनेश्वर देव और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप निर्वाणकलिका, प्रवचनसारोद्धार, आचारदिनकर, त्रिषष्टीशलाकापुरुषचरित्र आदि ग्रंथों में निम्न प्रकार है। उनमें प्रथम आदिनाथ
और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तत्राचं कनकावदातवृषलाञ्छनमुत्तराषाढाजातं धनराशिं चेति । तथा तत्तीर्थोत्पन्नगोमुखयक्षं हेमवर्ण गजवाहनं चतुर्भुजं वरदाचसूत्रयुतदक्षिणपाणिं मातुलिङ्गपाशान्वितवामपाणिं चेति। तथा तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नामप्रतिचक्राभिधानां यक्षिणी हेमवर्णा, गरूडवाहनामष्टभुजां वरदपाणचक्रपाशयुक्तदक्षिणकरां धनुर्वज्रचक्राङ्कुशवामहस्ता चेति ॥ १॥
प्रथम 'आदिनाथ' (ऋषभदेव ) नामके तीर्थंकर सुवर्ण के वर्ण जैसी कान्तिवाले हैं, उनको वृषभ (बैल) का चिन्ह है तथा जन्म नक्षत्र उत्तराषाढा और धनराशि है।
उनके तीर्थ में 'गोमुख' नामका यक्ष सुवर्ण के वर्णवाला, 'हाथी की सवारी करनेवाला, चार भुजावाला, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और माला, बाँयीं हाथों में बीजोरा और पाश ( फांसी) को धारण करनेवाला है।
उन्हीं आदिनाथ के वीर्थ में अप्रतिचक्रा ( चक्रेश्वरी) नामकी देवी सुवर्ण के वर्णवाली, 'गरुड़ की सवारी करनेवाली, 'आठ भुजावाली. दाहिनी चार भुजाओं में वरदान, बाण, फांसी और चक्र बाँयी चार भुजाओं में अनुष्य, वज्र, चक्र और अंकुश को धारण करनेवाली है ।
, प्राचारदिनकर में हाथी और बैल ये दो सवारी माना है।
१ सिद्धाचन आदि कईएक जगह सिंह की सवारी और चार भुजाबाली भी देखने में आती है। एवं श्रीपाल रास में सिंहारूढा मानी है।
रूपमंडन और वसुनंदिकृत प्रतिष्टासार में बारह और चार भुजावाली भी मानी हैं--पाठ भुजा में चक्र, दो भुजा में वज्र, एक भुजा में बीजोरा और एक में वरदान । चार भुजावाली में ऊपर के दोनों हाथों में और नीचे के दो हाथ वरदान और बीजारा युक्त माना है।
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(१४ )
वास्तुसारे दूसरे अजितनाथ और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
- द्वितीयमजितस्वामिनं हेमाभं गजलाञ्छनं रोहिणीजातं वृषराशि चेति । तथा तत्तीर्थोत्पन्नं महायक्षाभिधानं यक्षेश्वरं चतुर्मुखं श्यामवर्ण मातङ्गवाहनमष्टपाणिं वरदमुद्गराक्षसूत्रपागान्वितदक्षिणपाणिं बीजपूरकाभयाङ्कुशशक्तियुक्त वामपाणिपल्लवं चेति । तथा तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नामजिताभिधानां यक्षिणी गौरवर्णा लोहासनाधिरूढां चतुर्भुजां वरदपाशाधिष्ठितदक्षिणकरां वीजपूरकाङ्कुशयुक्तवामकरां चेति ॥ २॥
__ दूसरे 'अजितनाय' नामके तीर्थकर हैं, उनके शरीर का वर्ण सुवर्ण वर्ण का है, वे हाथी के लांछनवाले हैं, गहिणी नक्षत्र में जन्म है और वृष राशि है।
उनके तीर्थ में 'महायर' नामका यक्ष चार मुखबाला, कृष्ण वर्ण का, हाथी के उपर सवारी करनेवाला. आठ भुजावाला, दाहिनी चार भुजाओं में वरदान मुद्गर, माला और फांसी को धारण करने वाला, बाँयी चार भुजाओं में बीजोरा, अभय, अंकुश और शक्ति को धारण करनेवाला है।
उन्हीं अजितनाथदेव के तीर्थ में 'अजिता' (अजितबला) नामकी यतिणी गौरवर्णवाली 'लोहासन पर बैठनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और पाश ( फांसी) को धारण करनेवाली, बाँयीं दो भुजाओं में बीजोग और अंकुश को धारण करनेवाली है ॥२॥ तीसरे संभवनाथ और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा तृतीयं सम्भवनाथं हेमाभं अश्वलाञ्छनं मृगशिरजातं मिथुनराशिं चेति । तस्मिंस्तीर्थे समुत्पन्न त्रिमुखयक्षेश्वरं त्रिमुखं त्रिनेत्रं श्यामवर्ण मयूरवाहनं षड्भुजं नकुलगदाभययुक्तदक्षिणपाणिं मातुलिङ्गानागाचसूत्रान्वितवामहस्तं चेति। तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां दुरितारिदेवी गौर
. प्राचारादिनकर में गौ की सवारी माना है। दे० ला० सूरत में जो 'चतुर्विंशतिजिनानंद स्तुति सचित्र छपी है, उसमें बकरे का वाहन दिया है, वह अशुद्ध मालूम होता है।
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जिनेश्वर देव और उनके शासन देवों का स्वरूप (१४६ ) वर्षा मेषवाहनां चतुर्भुजां वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकरां फलाभयान्वितवामकरां चेति ॥ ३ ॥
तीसरे 'सम्भवनाथ' नामके तीर्थंकर हैं, उनका वर्ण सुवर्ण वर्ण का है, घोड़े के लांछन वाले हैं, जन्म नक्षत्र मृगशिर और मिथुन राशि है । - उनके तीर्थ में 'त्रिमुख' नामका यक्ष, तीन मुख, तीन तीन नेत्रवाला, कृष्ण वर्ण का, मोर की सवारी करनेवाला, छः भुजावाला. दाहिनी तीन भुजाओं में नौला, गदा और अभय को धारण करनेवास, बायीं तीन भुजाओं में बीजोरा, 'सांप और माला को धारण करनेवाला है ।
उन्हीं के तीर्थ में दुरितारि' नामकी देवी गौर वर्णवाली, मीढा की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और माला, बायीं दो भुजाओं में फल और अभय को धारण करनेवाली है ॥ ३ ॥ . चौथे अभिनंदनजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा चतुर्थमभिनन्दनजिनं कनकद्युतिं कपिलाञ्छनं श्रवणोत्पन्नं मकरराशिं चेति। तत्तीर्थोत्पन्नमीश्वरयक्ष श्यामवर्ण गजवाहनं चतुर्भुजं मातुलिङ्गाचसूत्रयुतदक्षिणपाणिं नकुलाङ्कुशान्वितवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां कालिकादेवीं श्यामवर्णा पद्मासनां चतुर्भुजां वरदपाशाधिष्ठितदचिणभुजां नागाङ्कुशान्वितवामकरां चेति ॥ ४ ॥
____ अभिनंदन नामके चौथे तीर्थकर हैं, उनके शरीर का वर्ण सुवर्ण वर्ण का है, बंदर का लाञ्छन है, जन्म नक्षत्र श्रवण और मकर राशि है।
उनके तीर्थ में 'ईश्वर' नामके यक्ष कृष्णवर्ण का, हाथी की सवारी करने वाला, चार भुजावाला, दाहिनी दो भुजाओं में बीजोरा और माला, बाँयीं दो भुजाओं में न्यौला और अंकुश को धारण करनेवाला है।
१त्रिपष्टीशलाका पुरुष चरित्र में 'रस्सी' धारण करनेवाला माना है।
२ चतुर्विशतिजिनेन्द्र चरित्र में 'फणिभृद्' सर्प लिखा है। 'चतुर्विशतिजिनस्तुति' जो दे० ला. सूरत में सचित्र छपी है उसमें 'फल' के ठिकाने फलक ( ढाल ) दिया है, वह अशुद्ध है क्योंकि ऐसा सर्वत्र देखने में आता है कि एक हाथ में खड्ग हो तो दूसरे हाथ में ढाल होती है । परन्तु खड्ग न हो तो ढाल भी नहीं होनी चाहिये । ढाल का सम्बन्ध खङ्ग के साथ है। ऐसी कई जगह भूल की है।
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( १५०)
वास्तुसारे उनके तीर्थ में 'कालिका' नामकी यक्षिणी कृष्णवर्ण की, पद्म ( कमल ) पर बैठी हुई, चार भुजावाली दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और फांसी, बॉयीं दो भुजाओं में नाग और अंकुश को धारण करनेवाली है ॥ ४ ॥ पांचवें सुमतिनाथजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा पञ्चमं सुमतिजिनं हेमवर्ण क्रौञ्चलाञ्छनं मघोत्पन्नं सिंहराथि चेति । तत्तीर्थोस्पन्नं तुम्बरुयक्षं श्वेतवर्ण गरुडवाहनं चतुर्भुजं वरदशक्तियुतदक्षिणपाणिं नागपाशयुक्तवामहस्तं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां महाकाली देवीं सुवणेवी पद्मवाहनां चतुर्भुजां वरदपाशाधिष्ठितदक्षिणकरां मातुलिङ्गाङ्कुशयुक्तवामभुजां चेति ॥ ५ ॥
सुमतिनाथजिन नामके पांचवें तीर्थकर हैं, उनके शरीर का वर्ण सुवर्ण वर्ण का है, क्रौंच पक्षी का लाञ्छन है, जन्म नक्षत्र मघा और सिंह राशि है।
__उनके तीर्थ में 'तुंवरु' नामका यक्ष सफेद वर्ण का, गरुड़ पर सवारी करने वाला, चार भुजावाला, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और शक्ति, 'बाँयीं दो भजात्रों में नाग और पाश को धारण करनेवाला है।
उनके तीर्थ में 'महाकाली' नामकी देवी सुवर्ण वर्णवाली, कमल का बाइन वाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और पाश, बाँयीं दो भुजाओं में बीजोरा और अंकुश को धारण करनेवाली है ॥ ५॥ छटे पद्मप्रभजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा षष्ठं पद्मप्रभं रक्तवर्ण कमललाञ्छनं चित्रानक्षत्रजातं कन्याराशिं चेति। तत्तीर्थोत्पन्न कुसुमं यक्ष नीलवर्ण कुरङ्गवाहनं चतुर्भुज फलाभययुक्तदक्षिणपाणिं नकुलाचसूत्रयुक्तवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नामच्युता देवीं श्यामवर्णा नरवाहनां चतुर्भुजां वरदवाणान्वितदक्षिण करा कामु काभययुतवामहस्तां चेति ॥ ६॥
पद्मप्रभ नामके छठे तीर्थकर हैं, उनके शरीर का वर्ण लालवर्ण का है, कमल का लाञ्छन है, जन्म नक्षत्र चित्रा और कन्या राशि है।
१ प्रवचनसारोद्धार आचारदिनकर और निषष्टीचरित्र में बायीं दो भुजाओं में शस्त्र गदा और
मागपाश मामा है।
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जिनेश्वर देव और उनके शासन देवों का स्वरूप
( १५१ )
उनके तीर्थ में 'कुसुम' नामका यक्ष नीलवर्ण का, हरिण की सवारी करने वाला, चार भुजावाला, दाहिनी दो भुजाओं में फल और अभय बाँयीं दो भुजाओं में न्यौला और माला को धारण करनेवाला है ।
उनके तीर्थ में 'अच्युता' ( श्यामा ) नामकी देवी कृष्ण वर्णवाली, पुरुष की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और बाण, बाँयी दो भुजाओं में धनुष और अभय को धारण करनेवाली है ॥ ६ ॥
सातवें सुपार्श्वजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा सप्तमं सुपार्श्व हेमवर्ण स्वस्तिकलाञ्छनं विशाखोत्पन्नं तुलाराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं मातङ्गयक्षं नीलवर्षं गजवाहनं चतुर्भुजं बिल्वपाशयुक्त दक्षिणपाणिं नकुलका कुशान्वितवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां शान्तादेवीं सुवर्णवर्णा गजवाहनां चतुर्भुजां वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकर शूलाभययुतवामहस्तां चेति ॥ ७ ॥
सुपार्श्वजिन नाम के सातवें तीर्थंकर हैं, उनके शरीर का वर्ण सुवर्ण वर्ण का है, स्वस्तिक लांबन है, जन्म नक्षत्र विशाखा और तुला राशि है ।
उनके तीर्थ में 'मातंग' नामका यक्ष नीलवर्ण का, हाथी की सवारी करने वाला, चार भुजावाला, दाहिनी दो भुजाओं में बिलु फल और पाश ( फांसी), बाँयी दो जाओ में 'न्यौला और अंकुश को धारण करनेवाला है ।
उनके तीर्थ में 'शान्ता' नामकी देवी सुवर्ण वर्णवाली, हाथी के ऊपर सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और माला, बाँयीं दो भुजाओं में शूली और अभय को धारण करनेवाली है ॥ ७ ॥
१ दे० ला० सूरत में छपी हुई च० विं० जि० स्तुति में फल के ठिकाने ढाल बनाया है वह अशुद्ध है । २ आचारदिनकर में दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और पाश, बाँयीं दो भुजानों में बीजोरा और अंकुश धारण करना माना है ।
३ श्राचारदिनकर में 'वज्र' लिखा है ।
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(१५२)
वास्तुसारे आठवें चंद्रप्रभजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथाष्टमं चन्द्रप्रभजिनं धवलवर्ण चन्द्रलाञ्छनं अनुराधोत्पन्नं वृश्चिकराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं विजययक्षं हरितवर्ण त्रिनेत्रं हंसवाहनं विभुजं दक्षिणहस्ते चक्र वामे मुद्गरमिति। तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां भृकुटिदेवी पीतवर्णा वराह (बिडाल ?) वाहनां चतुर्भुजां खड्गमुद्गरान्वितदक्षिणभुजा फलकपरशुयुतवामहस्तां चेति ॥८॥
चंद्रप्रभजिन नामके आठवें तीर्थंकर हैं, उनके शरीर का वर्ण सफेद है, चंद्रमा का लांछन है, जन्म नक्षत्र अनुराधा और वृश्चिक राशि है।
उनके तीर्थ में 'विजय' नामका यक्ष 'हरावर्ण वाला, तीन नेत्रवाला, हंस की सवारी करनेवाला, दो भुजावाला, दाहिनी भुजा में चक्र और बाँयें हाथ में मुद्गर को धारण करनेवाला है।
उनके तीर्थ में 'भृकुटि' (ज्याला ) नामकी देवी पीले वर्ण की, वराह या बिलाव (?) की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में खड्ग और मुद्गर, बाँयीं दो भुजाओं में ढाल और फरसा को धारण करनेवाली है ॥८॥
नववें सुविधिजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप... तथा नवमं सुविधिजिनं धवलवर्ण मकरलाञ्छनं मूलनक्षत्रजातं धनराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नमजितयक्षं श्वेतवर्ण कूर्मवाहनं चतुर्भुजं मातुलिङ्गाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणपाणिं नकुलकुन्तान्वितवामपाणिं चेति। तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां सुतारादेवी गौरवर्णा वृषवाहनां चतुर्भुजा वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणभुजां कलशाङ्कुशान्वितवामपाणिं चेति॥६॥
१ प्राचारदिनकर में श्यामवर्ण लिखा है । २ चतु० जि. चरित्र में खड्ग लिखा है। . २ प्राचारदिनकर प्रवचनसारोद्धार आदि ग्रंथों में 'वरालक' नामके प्राणी विशेष की सवारी माना है। त्रिषष्टि चरित्र में तथा चतु० जि. चरित्र में हंस वाहन लिखा है। दिगंबराचार्य ने महामहिष (भैसा) की सवारी माना है।
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१ आदिनाथ (ऋषभदेव) के शासनदेव और देवी
१- गोमुख यक्ष
१- बकेश्वरी देवी
(
२ अजितनाथ के शासनदेव और देवी२- महायस
२-अजितबला देवी
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३ संभवनाथ के शासनदेव और देवी
३ -निमुख यक्ष
२- दुरितारि देवी
४ अभिनंदनजिन के शासनदेव और देवी
ईश्वर यक्ष
४- कालीदेवी
ACTO
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५ सुमतिनाथ के शासनदेव और देवी५- तुंबस यक्ष्य
५- महाकाली देवी
६ पद्मप्रभजिन के शासनदेव और देवी
६- कुसुम यक्ष
६अच्युता-श्यामा
देवी
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७ सुपार्श्वजिन के शासनदेव और देवी७- मातंग यक्ष ७-शान्तादेवी
८चन्दप्रभुजिन के शासनदेव और देवी
८ - विजय यक्ष
८- ज्वाला करी देवी
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जिनेश्वर देव और उनके शासन देयों का स्वरूप (१५३ ) सुविधिजिन नामके नववें तीर्थंकर हैं, उनके शरीर का वर्ण सफेद है, मगर का लांछन, जन्म नक्षत्र मूल और धन राशि है।
उनके तीर्थ में 'अजित' नामका यक्ष सफेद वर्ण का, कछुए की सवारी करने वाला, चार भुजावाला दाहिनी दो भुज ओं में बीजोरा और माला, बॉयीं दो भुजाओं में न्यौला और भाला को धारण करनेवाला है ।
उनके तीर्थ में 'सुतारा' नामकी देवी गौरवर्ण की, वृषभ (बैल ) की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और माला; बाँथीं दो भुजाओं में कलश और अंकुश को धारण करनेवाली है ॥ ६॥ दशवें शीतलजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा दशमं शीतलनाथं हेमाभं श्रीवत्सलाञ्छनं पूर्वाषाढोत्पन्नं धनराशि चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नं ब्रह्मयक्षं चतुर्मुखं त्रिनेत्रं धवलवर्ण पद्मासनमष्टभुजं मातुलिङ्गमुद्गरपाशाभययुक्तदक्षिणपाणिं नकुलकगदाङ्कुशाक्षसूत्रान्वितवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां अशोकां देवीं मुद्गवर्णा पद्मवाहनां चतुर्भुजां वरदपाशयुक्तक्षिणकरां फलाङ्कुशयुक्तबामकरां चेति ॥ १० ॥
___ शीतलजिन नाम के दसवें तीर्थंकर हैं, उनका वर्ण सुवर्ण वर्ण का है, श्रीवत्स का लाञ्छन, जन्म नक्षत्र पूर्वाषाढा और धनु राशि है ।
उनके तीर्थ में 'ब्रह्मयक्ष' नाम का यक्ष चार मुखवाला, प्रत्येक मुख तीन २ नेत्रवाला, सफेद वर्ण का, कमल के आसनवाला, आठ भुजा वाला, दाहिने चार हार्थों में बीजोग, गुद्गर, पाश, और अभय; बाँयें चार हाथों में न्यौला, गदा अंकुश और माला को धारण करनेवाला है।
उनके तीर्थ में 'अशोका' नाम की देवी. मूंग के वर्णवाली, कमल के आसन वाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और पाश; बाँयी दो भुजाओं में 'फल और अंकुश को धारण करनेवाली है ॥ १० ॥
। दे० ला० सूरत में छपी हुई च० वि० जि० स्तु० में ढाल बना दिया है, यह मशव है।
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। १५४ )
पास्तुसारे ग्यारहवें श्रेयांसजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथैकादशं श्रेयांसं हेमवर्ण गण्डकलाञ्छनं श्रवणोत्पन्नं मकरराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नमीश्वरयक्षं धवलवर्ण त्रिनेत्र वृषभवाहनं. चतुर्भुज मातुलिङ्गगदान्वितदक्षिणपाणिं नकुलाक्षसूत्रयुक्तवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां मानवी देवीं गौरवर्णा सिंहवाहनां चतुर्भुजां वरदमुद्गरान्वितदक्षिणपाणिं कलशाङ्कुशयुक्तवामकरां चेति ॥ ११ ॥
श्रेयांसजिन नाम के ग्यारहवें तीर्थंकर हैं, उनके शरीर का वर्ण सुवर्ण वर्ण का है, खद्गी का लाञ्छन है, जन्म नक्षत्र श्रवण और मकर राशि है ।
__उनके तीर्थ में 'ईश्वर' नाम का यक्ष सफेद वर्णवाला, तीन नेत्रवाला, बैल की सवारी करनेवाला, चार भुजावाला, दाहिनी दो भुनाओं में बीजारा और गदा; बाँधी दो भुजाओं में न्यौला और माला को धारण करनेवाला है।
उनके तीर्थ में 'मानवी' ( श्रीवत्सा) नामकी देवी गौरवर्णवाली, सिंह की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और 'मुद्गर, बाँयीं दो भुजाओं में 'कलश और अंकुश को धारण करनेवाली है ॥ ११ ॥
बारहवें वासुपूज्यजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
___ तथा द्वादशं वासुपूज्यं रक्तवर्ण महिषलाञ्छनं शतभिषजि जातं कुम्भराशिं चेति । तत्तीर्थोस्पन्नं कुमारया श्वेतवर्ण हंसवाहनं चतुर्भुजं मातुलिङ्गवाणान्वितदक्षिणपाणिं नकुलकधनुर्युक्तवामपाणिं चेति । तस्मिनेव तीर्थे समुत्पन्नां प्रचण्डादेवी श्यामवर्णा अश्वारूढां चतुर्भुजां वरदशक्तियुक्तदक्षिणकरा पुष्पगदायुक्तवामपाणिं चेति ॥ १२ ॥
वासुपूज्यजिन नामके बारहवें तीर्थकर हैं, उनके शरीर का वर्ण लाल है, मैंसा के लाञ्छनवाले हैं, जन्मनक्षत्र शतभिषा और कुंभराशि है।
उनके तीर्थ में 'कुमार' नाम का यक्ष सफेद वर्णवाला, हंस की सवारी करनेवाला, चार भुजावाला, दाहिनी दो भुजाओं में बीजोरा और बाण को; बांयें दो हाथों में न्यौला और धनुष को धारण करनेवाला है ।
, प्रवचनसारोद्धार में पाश ( फांसी ) लिखा है । २ विपष्टि ग्रंथ में कुलिश ( वन ) लिखा है।
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जिनेश्वर देव और उनके शासन देवों का स्वरूप
( १५५ )
उनके तीर्थ में 'प्रचण्ड' (प्रवरा ) नाम की देवी कृष्ण वर्णवाली, घोड़े पर सवारी करने वाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और शक्ति; बाँयीं दो भुजाओं में पुष्प और गदा को धारण करनेवाली है ॥ १२ ॥
तेरहवें विमल जिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
नकुलचक्र
तथा त्रयोदशं विमलनाथ कनकवर्ण वराहलाञ्छनं उत्तर भाद्रपदाजातं मीनराशि चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं षण्मुखं यक्षं श्वेतवर्ण शिखिवाहनं द्वादशभुजं फलचक्रबाणखङ्गपाशात सूत्रयुक्त दक्षिणपाणिं, धनुः फलकाङ्कुशाभययुक्त वामपाणि चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां विदितां देवीं हरितालवर्णा' पद्मारूढां चतुर्भुजां बाणपाशयुक्त दक्षिणपाणिं धनुर्नागयुक्तवामपाणिं चेति ॥ १३ ॥
विमलजिन नाम के तेरहवें तीर्थंकर सुवर्ण वर्णवाले हैं, सूअर के लांछनवाले हैं, जन्म नक्षत्र उत्तराभाद्रपदा और मीन राशि है ।
उनके तीर्थ में ' मुख' नाम का यक्ष सफेद वर्ण का, मयूर की सवारी करनेवाला, बारह भुजावाला, दाहिनी छः भुजाओं में 'फल, चक्र, बाण, खड्ग, पाश और माला बाँयीं छः भुजाओं में न्यौला, चक्र, धनुष, ढाल, अंकुश और अभय को धारण करनेवाला है ।
उनके तीर्थ में 'विदिता' ( विजया ) नाम की देवी हरताल के वर्णवाली, कमल के आसनवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में बाण और पाश तथा दो भुजाओं में धनुष और सांप को धारण करनेवाली है ॥ १३ ॥ चौदहवें अनन्तजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा चतुर्दशं अनन्तं जिनं हेमवर्ण श्येनलाञ्छनं स्वाति नक्षत्रोत्पन्नं तुलाराशिं चेति । ततीर्थोत्पन्नं पातालयक्षं त्रिमुखं रक्तवर्ण मकरवाहनं षड्भुजं पद्मखड्गपाशयुक्तदक्षिणपाणिं नकुलफलकाच सूत्रयुक्तवामपाणिं १] दे० ला० सूरत में च० विं० जि० स्तुति में यहां भी फल के ठिकाने ढाल दिया है, उसको
भूल है ।
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वास्तुसारे चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां अङ्कुशां देवीं गौरवर्णी पद्मवाहनां चतुभुजां खड्गपाशयुक्तक्षिणकरां चर्मफलकाङ्कुशयुतवामहस्तां चेति ॥ १४ ॥
अनन्तजिन नाम के चौदहवें तीर्थंकर हैं, उनके शरीर का वर्ण सुवर्ण रंग का है, श्येन (बाज) पक्षी के लाञ्छनवाले, जन्म नक्षत्र स्वाति और तुला राशि वाले हैं ।
उनके तीर्थ में 'पाताल' नाम का यक्ष, तीन मुखवाला, लाल वणेवाला, मगर के वाहनवाला, छ: भुजावाला, दाहिनी तीन भुजाओं में कमल, खड्ग और पाश; बायीं तीन भुजाओं में न्यौला, ढाल और माला को धारण करनेवाला है।
___ उन्हीं के तीर्थ में 'अंकुशा' नाम की देवी गौर वर्णवाली, कमल के वाहन वाली, ' चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में खड्ग और पाश; बाँयें दो भुजाओं में ढाल और अंकुश को धारण करनेवाली है ॥ १४ ॥ पन्द्रहवें धर्मनाथजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा पञ्चदशं धर्मजिनं कनकवर्ण वज्रलाञ्छनं पुष्योत्पन्नं कर्कराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं किन्नरयक्षं त्रिमुखं रक्तवर्ण कूर्मवाहनं षडभुजं बीजपूरकगदाभययुक्तदक्षिणपाणिं नकुलपद्माक्षमालायुक्तवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थो समुत्पन्नां कन्दर्पा देवी गौरवर्णा मत्स्यवाहनां चतुर्भुजां उत्पलाङ्कुशयुक्तदक्षिणकरां पद्माभययुक्तवामहस्तां चेति ॥ १५ ॥
धर्मनाथजिन नाम के पन्द्रहवें तीर्थंकर हैं, ये सुवर्ण वर्णवाले, वन के लाञ्छनवाले जन्म नक्षत्र पुष्य और कर्क राशिवाले हैं।
उनके तीर्थ में 'किन्नर' नाम का यक्ष, तीन मुखवाला, लाल वर्णवाला, कछुए का वाहनवाल', छ: भुजावाला, दाहिनी भुजाओं में बीजोरा, गदा और अभय; बॉयीं हाथों में न्योला, कमल और माला को धारण करनेवाला है।
उन्हीं के तीर्थ में 'कंदर्पा' ( पन्नगा ) नाम की देवी, गौर वर्णवाली, मछली के वाहनवाली, चार भुजावाली, दाहिनी भुजाओं में कमल और अंकुशः बाँयाँ भुजाओं में पम और अभय को धारण करनेवाली है ॥ १५ ॥
१-चतु. वि. जि. चरित्र में दाहिने हाथ में दाल और बायें हाथ में अंकुश, इस प्रकार दो हाथवाली माना है।
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ह सुविधिजिन के शासनदेव और देवी
S-अनित यस
९-चुनारा देवी
१० शतिलाजिन के शासनदेव और देवी
- ब्रह्मयक्ष
१०- अशोका देवी
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११ श्रेयांसजिन के शासनदेव और देवी
११ - ईश्वर यक्ष
११ - मानवी श्रीवत्ता) देनी
१२ वामुपज्याजिन के शासनदेव और देवी
१२- कुमार यक्ष
१२ - प्रचंडा (प्रवरा ) देवी
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१३ विमलनाथ के शासनदेव और देवी
१३ - षण्मुरव यक्ष.
१३ विदिता (विजया) देवी
१४ अनन्तनाथ के शासनदेव और देवी
१४- पातालयक्ष
१४- अंकुशा देवी
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१५ धर्मनाथ के शासनदेव और देवी
14- किनर यक्ष
१५- कंदपो (पन्ना) देवी
हो
१६ शान्तिनाथ के शासनदेव और देवी
१६-गरड यक्ष
१६- निवाणी देवी
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जिनेश्वर देव और उनके शासन देवों का स्वरूप (१५७ ) सोलहवें शान्तिजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा षोडशं शान्तिनाथं हेमवर्ण मृगलाञ्छनं भरण्यां जातं मेषराथि चेति । तत्तीर्थोत्पन्न गरुडयक्षं वराहवाहनं क्रोडवदनं श्यामवर्ण चतुर्भुजं बीजपूरकपद्मयुक्तदक्षिणपाणिं नकुलाक्षसूत्रवामपाणिं चेति। तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां निर्वाणी देवीं गौरवर्णा पद्मासनां चतुर्भुजां पुस्तकोत्पलयुक्तक्षिणकरां कमण्डलुकमलयुतवामहस्तां चेति ॥ १६ ॥
शान्तिजिन नाम के सोलहवें तीर्थकर हैं, ये सुवर्ण वर्ण वाले, हरिण के लाञ्छनवाले, जन्मनक्षत्र भरणी और मेष राशिवाले हैं ।
___ उनके तीर्थ में 'गरुड' नाम का यक्ष 'सूअर के वाहनवाला, सूअर के मुखवाला, कृष्णवर्णवाला, चार भुजावाला, दाहिनी दो भुजाओं में बीजोरा और कमल, बांयें दो हाथों में न्यौला और माला को धारण करनेवाला है।
उन्हीं के तीर्थ में 'निर्वाणी' नाम की देवी गौरवर्णवाली, कमल के वाहनवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुनाओं में पुस्तक और कमल; बाँयीं भुजाओं में कमंडलु और कमल को धारणकरनेवाली है ॥ १६ ॥ सत्रहवें कुंथुजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा सप्तदशं कुन्थुनाथं कनकवर्ण छागलाञ्छनं कृत्तिकाजातं वृषभराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं गन्धर्वयक्ष श्यामवर्ण हंसवाहनं चतुर्भुजं वरद पाशान्वितदक्षिणभुजं मातुलिङ्गाङ्कुशाधिष्ठितवामभुजं चेति। तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां चला देवी गौरवर्णा मयूरवाहनां चतुर्भुजां बीजपूरकशूलान्वितदक्षिणभुजां मुषुण्ढिपद्मान्वितवामभुजां चेति ॥ १७ ॥
__ कुन्थुजिन नाम के सत्रहवें तीर्थंकर हैं, ये सुवर्ण वर्णवाले, बकरे के लाञ्छनवाले, जन्मनक्षत्र कृत्तिका और वृष राशिवाले हैं ।
१त्रिषष्टीशलाका पुरुष चरित्र में 'हाथी' की सवारी लिखा है। २प्राचारदिनकर में सुवर्ण वर्णवाली लिखा है।
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वास्तुसारे उनके तीर्थ में 'गंधर्व' नाम का यक्ष कृष्ण वर्णवाला, हंस के वाहनवाला, चार भुजावाला, दाहिनी भुजाओं में वरदान और पाश, बाँयीं भुजाओं में बीजोरा और अंकुश को धारण करनेवाला है ।
उन्हीं के तीर्थ में 'चला' (अच्युता) नाम की देवी 'गौरवर्णवाली, मोर के वाहनवाली, चार भुजावाली, दाहिने हाथों में बीजोरा और शूली को बाँयी हाथों में लोहे की कीले लगी हुई गोल "लकड़ी और कमल को धारण करनेवाली है ॥ १७ ॥ अठारहवें अरनाथ और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा अष्टादशमं अरनाथं हेमाभं नन्द्यावर्त्तलाञ्छनं रेवतीनक्षत्रजातं मीनराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं यक्षेन्द्रयक्षं षण्मुखं त्रिनेत्रं श्यामवर्ण शङ्खवाहनं द्वादशभुजं मातुलिंगवाणखड्गमुद्गरपाशाभययुक्तदक्षिणपाणिं नकुलधनुश्चर्मफलकशूलाङ्कुशाक्षसूत्रयुक्तवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुस्पन्नां धारिणीं देवीं कृष्णवर्णी चतुर्भुजां पद्मासनां मातुलिङ्गोत्पलान्वितदक्षिणभुजां पाशाक्षसूत्रान्वितवामकरां चेति ॥ १८ ॥
अठारहवें 'अरनाथ' नाम के तीर्थकर हैं, वे सुवर्म वर्णवाले, नन्दावर्त के लाञ्छनवाले, जन्मनक्षत्र रेवती और मीन राशिवाले हैं। . उनके तीर्थ में 'यक्षेन्द्र' नाम का यक्ष छः मुखवाला, प्रत्येक मुख तीन २ नेत्रवाला, कृष्ण वर्णवाला, शंख का वाहनवाला, बारह भुजावाला, दाहिने हाथों में बीजोरा, बाण. खड्ग, मुद्गर, पाश और अभय; बांयें हाथों में न्यौला, धनुप, ढाल, शूल, अंकुश और माला को धारण करनेवाला है ।
उन्हीं के तीर्थ में 'धारिणी' नाम की देवी कृष्ण वर्णवाली, चार भुजावाली, कमल के प्रासनवाली, दाहिनी भुजाओं में बीजोरा और कमल, बांयीं भुजाओं में "पाश और माला को धारण करनेवाली है ॥ १८ ॥
१ श्रा० दि० और प्र० सा० में 'सुवर्ण वर्णवाली' माना है। २ 'मुषुण्ढी स्याद् दारुमयी वृत्तायाकीलसंचिता' इति हैमकोशे । । प्रवचनसारोद्धार निषष्टीशलाकापुरुषचरित्र भौर भाचारदिनकर में 'पद्म' लिखा है।
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जिनेश्वरदेव और उनके शासनदेवों का स्वरूप - उन्नीसवें मल्लिजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथैकोनविंशतितममल्लिनाथ प्रियङ्गुवर्ण कलशलाञ्छनं अश्विनीनक्षत्रजातं मेषराशिं चेति । तत्तीयों स्पन्नं कुबेरयक्षं चतुर्मुखमिन्द्रायुधवणे गरुडवदनं गजवाहनं अष्टभुजं वरदपरशुशूलाभययुक्तदक्षिणपाणिं बीजपूरकशक्तिमुद्गराक्षसूत्रयुक्तवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थो समुत्पन्नां वैरोट्यां देवी कृष्णवर्णा पद्मासनां चतुर्भुजां वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकरां मातुलिंगशक्तियुतवामहस्तां चेति ॥ १६ ॥ - मल्लिनाथ नामके उन्नीसवें तीर्थंकर हैं, ये प्रियंगु ( हरे ) वर्णवाले, कलश के लाञ्छनवाले, जन्मनक्षत्र, अश्विनी और मेष राशिवाले हैं।
उनके तीर्थ में 'कुबेर' नामका यक्ष चार मुखवाला, इंद्र के आयुध के वर्णवाला ( पंचरंगी ), गरुड़ के जैसा मुखवाला, हाथी की सवारी करनेवाला, माठ भुजा वाला, दाहिनी भुजाओं में वरदान, फरसा, शूल और अभय को; बाँयीं भुजाओं में बीजोरा, शक्ति, मुद्गर और माला को धारण करनेवाला है ।
___उन्हीं के तीर्थ में 'वैरोट्या' नामकी देवी कृष्ण वर्णवाली, कमल के वाहन वाली, चार भुजा वाली, दाहिने भुजाओं वरदान और माला; बाँयीं भुजाओं में बीजोरा और शक्ति को धारण करनेवाली है ॥ १६ ॥
बीस मुनिसुव्रतजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप. तथा विंशतितमं मुनिसुव्रतं कृष्णवर्ण कूर्मलाञ्छनं श्रवणजातं मकरराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं वरुणयक्षं चतुर्मुखं त्रिनेत्रं धवलवर्ण वृषभवाहनं जटामुकुटमण्डितं अष्टभुजं मातुलिंगगदावाणशक्तियुतदक्षिणपाणिं नकुलकपद्मधनुःपरशुयतवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां नरदत्तां देवी गौरवर्णा भद्रासनारूढां चतुभुजां वरदाक्षसूत्रयुतदक्षिणकरां बीजपूरकशूलयुतवामहस्तां चेति ॥ २० ॥
मुनिसुव्रतजिन नामके बीसवें तीर्थकर हैं, ये कृष्ण वर्णवाले, कछुए के लांछनवाले, जन्म नक्षत्र श्रवण और मकर राशिवाले हैं।
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( १६०)
धास्तुसारे उनक तीर्थ में 'वरुण' नामका यक्ष चार मुखवाला, प्रत्येक मुख तीन २ नेत्र वाला, सफेद' वर्णवाला, बैल के वाहनवाला, शिरपर जटा के मुकुट से सुशोभित,
आठ भुजावाला. दाहिनी भुजाओं में बीजोरा, गदा, बाण और शक्ति को, बाँयाँ भुजाओं में न्यौला, कमल', धनुष और फरसा को धारण करनेवाला है ।
उन्हीं के तीर्थ में 'नरदत्ता' नामकी देवी गौर वर्णवाली, भद्रासन पर बैठी हुई, चार भुजावाली, दाहिनी भुनाओं में वरदान और माला; बाँयीं भुजाओं में बीजोरा और शूल को धारण करनेवाली है ॥ २० ॥ इक्कीसवें नमिजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथैकविंशतितमं नमिजिनं कनकवण नीलोत्पललाञ्छनं अश्विनीजातं मेषराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं भृकुटियक्षं चतुर्मुखं त्रिनेत्रं हेमवर्ण वृषभवा. हनं अष्टभुजं मातुलिङ्गशक्तिमुद्गराभययुक्तदक्षिणपाणिं नकुलपरशुवज्राक्षसूत्रवामपाणिं चेति। नमेर्गान्धारीदेवी श्वेतां हंसवाहनां चतुर्भुजां वरदखङ्गयुक्तदक्षिणभुजद्रयां बीजपूरकुंभ( कुन्त ? )युतवामपाणिव्यां चेति ॥२१॥
नमिजिन नामके इक्कीसवें तीर्थकर हैं, ये सुवर्ण वर्णवाले, नील कमल के लांछनवाले, जन्म नक्षत्र अश्विनी और मेष राशिवाले हैं।
उनके तीर्थ में 'भृकुटि' नामक यक्ष चार मुखवाला, प्रत्येक मुख तीन २ नेत्रवाला, सुवण वर्णवाला, बैल का वाहनवाला, आठ भुजावाला, दाहिने हाथों में बीजोरा, शक्ति, मुद्गर और अभय; बाँयीं हाथों में न्यौला, फरसा, वज्र और माला को धारण करनेवाला है।
उन्हीं के तीर्थ में 'गांधारी' नामकी देवी सफेद वर्णवाली, हंस के वाहनवाली, चार भुजावाली, दाहिनी भुजाओं में वरदान और तलवार, बाँयीं भुजाओं में बीजोरा और कुभकलश ( भाला? ) को धारण करनेवाली है ॥ २१ ॥
। प्रवचनसारोद्धार में कृष्णवर्ण लिखा है । २० वि० जि. चरित्र में माला लिखा है। ३ प्रवचनसारोद्धार और प्राचारदिनकर में सुवर्ण वर्ण लिखा है
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१७ कुंथुनाथ के शासनदेव और देवी
१७ - गंधर्व यक्ष
१०. बलादेवी
१८ अरनाथ के शासनदेव और देवी
१- यतेन्द्र यस
१८ - धारिणी देवी
ALTR
SENT
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१६ मल्लिनाथ के शासनदेव और देवी
१९ - कुबेर यक्ष १९ - वैशेट्या देवी
२० मुनिसुब्रताजेन के शासनदेव और देवी
२०-वरुण यक्ष
२० - नरदत्ता देवी
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२१ नमिनाथजिन के शासनदेव और देवी
२१- कुटियक्ष
२१- गांधारी देवी.
२२ नेमिनाथजिन के शासनदेव और देवी
२२ - गोमेध यक्ष
२२- अम्बिका देवी
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२३ पार्श्वनाथजिनके शासनदेव और देवी२३ - पार्श्व यक्ष
२३ पद्मावतीदेवी
२४ महावीरजिनके शासनदेव और देवी
२४- मातंग यस
२४- सिहायिका देवी
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जिनेश्वरदेव और उनके शासनदेवों का स्वरूप
बाईसवें नेमिनाथ और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा द्वाविंशतितमं नेमिनाथं कृष्णवर्ष शङ्खलाञ्छनं चित्राजातं कन्याराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं गोमेधयक्षं त्रिमुखं श्यामवर्ण पुरुषवाहनं षड्भुजं मातु लिङ्गपरशुचकान्वितदक्षिणपाणिं नकुलकशूलशक्तियुतवामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां कूष्माण्डीं देवीं कनकवर्ण सिंहवाहनां चतुर्भुजां मातु लिङ्गपाशयुक्तदक्षिणकरां पुत्रांकुशान्वितवामकरां चेति ॥ २२ ॥
नेमनाथ जिन बाईसवें तीर्थंकर हैं, ये कृष्ण वर्णवाले, शंख का लांछन वाले, जन्म नक्षत्र चित्रा और कन्या राशिवाले हैं ।
( १६१ )
उनके तीर्थ में 'गोमेध' नामका यच, तीन मुखवाला, कृष्ण वर्णवाला, पुरुष की सवारी करनेवाला, छः भुजावाला, दाहिनी भुजाओं में बीजोरा, फरसा और चक्र; हाथों में न्यौला, शूल और शक्ति को धारण करनेवाला है ।
उन्हीं के तीर्थ में 'कुष्माण्डी' पर 'अम्बिका' नामकी देवी, सुवर्ण वर्णवाली, सिंह की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिने हाथों में 'बीजोरा और पाश; बाँयें हाथों में पुत्र और अंकुश को धारण करनेवाली है ।। २२ ।।
तेईसवें पार्श्वनाथ और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा त्रयोविंशतितमं पार्श्वनाथं प्रियंगुवर्ण फणिलाञ्छनं विशाखाजातं तुलाराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं पार्श्वयक्षं गजमुखमुरगफणामण्डित शिरसं श्यामवर्ण कूर्मवाहनं चतुर्भुजं बीजपूर कोर गयुतदक्षिणपाणिं नकुलकाहियुत वामपाणिं चेति । तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां पद्मावतीं देवीं कनकवर्णा कुर्कुटवाहनां चतुर्भुजां पद्मपाशा न्वितदक्षिणकरां फलांकुशाधिष्ठित वामकरां चेति ॥ २३ ॥
पार्श्वनाथ जिन नामके तेईसवें तीर्थंकर हैं, ये प्रियंगु ( हरे) वर्णवाले, सांप के लांछन वाले, जन्म नक्षत्र विशाखा और तुला राशि वाले हैं ।
१ प्रवचनसारोद्धार त्रिषष्टी शलाका पुरुषचरित्र और श्राचारदिनकर में 'श्राम्रलुंबी' लिखा है । २१
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( १६२)
वास्तुलारे उनके तीर्थ में 'पार्श्व' नामका यक्ष हाथी के मुखवाला, शिर पर साँप की फणीवाला, कृष्ण वर्णवाला, कछुए की सवारी करनेवाला, चार भुनावाला, दाहिनी भुजाओं में बीजोरा और साँप बाँयीं भुजाओं में न्यौला और साँप को धारण करनेवाला है।
उन्हीं के तीर्थ में 'पद्मावती' नामकी देवी सुवर्ण वर्णवाली, 'मुर्गे की सवारी करनेवाली, चार भुनावाली, दाहिनी भुजाओं में कमल और पाश; बाँयीं भुजाओं में फल और अंकुश को धारण करनेवाली है ॥ २३ ॥ . चौवीसवें महावीरजिन और उनके यक्ष यक्षिणी का स्वरूप
तथा चतुर्विशतितमं वर्धमानस्वामिनं कनकप्रभ सिंहलाञ्छनं उत्तराफाल्गुन्यां जातं कन्याराशिं चेति । तत्तीर्थोत्पन्नं मातङ्गयक्ष श्यामवर्ण गजवाहनं विभुजं दक्षिणे नकुलं वामे बीजपूरकमिति । तत्तीर्थोत्पन्नां सिद्धायिका हरितवर्णा सिंहवाहनां चतुर्भुजां पुस्तकाभययुक्तदक्षिणकरां मातुलिङ्गवीणान्वितवामहस्तां चेति ॥ २४ ॥
वर्द्धमान स्वामी ( महावीर स्वामी) नामके चौवीसवें तीर्थकर हैं, ये सुवर्ण वर्णवाले, सिंह के लांछनवाले, जन्म नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी और कन्या राशिवाले हैं।
उनके तीर्थ में 'मातंग' नामका यक्ष कृष्ण वर्णवाला, हाथी की सवारी करनेवाला, दो भुजावाला, दाहिने हाथ में न्यौला और बायीं हाथ में बीजोरा को धारण करनेवाला है।
उन्हीं के तीर्थ में 'सिद्धायिका' नामकी देवी हरे वर्णवाली, 'सिंह की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी भुजाओं में पुस्तक और अभय, 'बायीं भुजाओं में बीजोरा और बीणा को धारण करनेवाली है ॥ २४ ॥
१ प्राचारदिनकर में 'गदा' लिखा है ।
२ प्रवचनसारोद्धार त्रिषष्टीशलाका पुरुषचरित्र और प्राचारदिनकर में-'कुर्कुटोणवाहनां' अर्थात कर्कट जाति के 'सांप' की सवारी लिखा है।
३ च० वि० जि० चरित्र में हाथी का वाहन लिखा है। १ श्राचारदिनकर में बायें हाथों में पाश और कमल धारण करना लिखा है।
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सोलह विद्यादेवी का स्वरूप । प्रथम रोहिणीदेवी का स्वरूप
आद्यां रोहिणीं धवलवर्णा सुरभिवाहनां चतुर्भुजामक्षसूत्रवाणान्वितदक्षिणपाणिं शङ्खधनुर्युक्तवामपाणिं चेति ॥१॥
प्रथम 'रोहिणी' नामक विद्यादेवी सफेद वर्णवाली, कामधेनु गौ पर सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में माला और वाण तथा बाँयीं भुनाओं में शंख और धनुष को धारण करनेवाली है ॥ १॥ दूसरी प्रज्ञप्तिदेवी का स्वरूप
प्रज्ञप्तिं श्वेतवर्णा मयूरवाहनां चतुर्भुजां वरदशक्तियुक्तदक्षिणकरा मातुलिंगशक्तियुक्तवामहस्तां चेति ॥२॥
'प्रज्ञप्ति' नामकी विद्यादेवी सफेद वर्णवाली, मोर पर सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और शक्ति तथा बाँयीं भुजाओं में बीजोरा और शक्ति को धारण करनेवाली है ॥ २॥
आचारदिनकर में दो हाथवाली माना है, एक हाथ में शक्ति और दूसरे हाथ में कमल धारण करनेवाली माना है। तीसरी वज्रशृङ्खलादेवी का स्वरूप
वज्रशृंखलां शंखावदातां पद्मवाहनां चतुर्भुजा वरदश्रृंखलान्वितदक्षिणकरां पद्मशृंखलाधिष्ठितवामकरां चेति ॥ ३॥
'वज्रशृंखला' नामकी विद्यादेवी शंख के जैसी सफेद वर्णवाली, कमल के आसनवाली, चार भुजावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और साँकल तथा बाँयीं भुजाओं में कमल और साँकल को धारण करनेवाली है ॥ ३॥
आचारदिनकर में सुवर्ण वर्णवाली और दो भुनावाली, एक हाथ में साँकल और दूसरे हाथ में गदा धारण करनेवाली माना है।
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( १६४)
वास्तुसारे चौथी वांकुशी देवी का स्वरूप
वज्राङ्कुशां कनकवर्णा गजवाहनां चतुर्भुजां वरदवज्रयुतदक्षिणकरां मातुलिङ्गाङ्कुशयुक्तवामहस्तां चेति ॥ ४ ॥
_ 'वज्रांकुशा' नामकी विद्यादेवी सुवर्ण के जैसी कान्तिवाली, हाथी की सवारी करनेवाली, चार भुनावाली, दाहिनी दो भुजाओं में वरदान और वन तथा बाँयीं भुजाओं में बीजोरा और अंकुश को धारण करनेवाली है ॥ ४ ॥
___ आचारदिनकर में चार हाथ क्रमशः तलवार, वज्र, ढाल और भाला युक्त माना है। पांचवीं अप्रतिचक्रादेवी का स्वरूप
अप्रतिचक्रां तडिद्वर्षा गरुडवाहनां चतुर्भुजां चक्रचतुष्टयभूषितकरां चेति ॥५॥
'अप्रतिचक्रा' नामकी विद्यादेवी बीजली के जैसी चमकती हुई कान्तिवाली, गरुड की सवारी करनेवाली और चारों ही भुजाओं में चक्र को धारण करनेवाली है।। ५॥ छट्ठी पुरुषदत्तादेवी का स्वरूप
पुरुषदत्तांकनकावदातांमहिषीवाहनां चतुर्भुजां वरदासियुक्तदक्षिणकरां मातुलिङ्गखेटकयुतवामहस्तां चेति ॥ ६ ॥
'पुरुषदत्ता' नामकी विद्यादेवी सुवर्ण के जैसी कान्तिवाली, भैंस की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी भुजाओं में वरदान और तलवार तथा बाँयीं भुजाओं में बीजोरा और ढाल को धारण करनेवाली है ॥ ६ ॥
आचारदिनकर में तलवार और ढाल युक्त दो हाथवाली माना है । सातवीं कालीदेवी का स्वरूप
काली देवीं कृष्णवर्णी पद्मासनां चतुर्भुजां अक्षसूत्रगदालंकृतदक्षिणकरा वजाभययुतवामहस्तां चेति ॥७॥
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विद्यादेवियों का स्वरूप
१ रोहिणी देवी
३ वज्र श्रृंखला देवी
२ प्रज्ञप्ति देवी
४ वज्रांकुशा देवी
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बिद्यादेवियों का स्वरूप
५ अप्रतिचका देवी
६ पुरषदत्तादेवी
७ काली देवी
महाकाली
देनी
বলব
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विद्यादेवियों का स्वरूप
९ गौरी देवी
१० गांधारीदेवी
११ सास्त्रादेवी (महज्चाला)
१२ मानवी देवी
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विद्यादेवियों का स्वरूप
१३ वैरोटया देवी
१५ मानसी देवी
१४ अच्छुरता देवी
१६ महामानसी देवी
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सोलह विद्यादेवी का स्वरूप
____ 'काली' नामकी विद्यादेवी कृष्ण वर्णवाली, कमल के आसनवाली, चार भुजावाली, दाहिनी भुजाओं में अक्षमाला और गदा तथा बाँयीं भुजाओं में वज्र और अभय को धारण करनेवाली है ॥ ७ ॥
आचारदिनकर में गदा और वज्रयुक्त दो हाथवाली माना है । आठवीं महाकालीदेवी का स्वरूप
महाकाली देवीं तमालवर्णा पुरुषवाहनां चतुर्भुजां अचसूत्रवान्वितदक्षिणकरामभयघण्टालंकृतवामहस्तां चेति ॥ ८ ॥
'महाकाली' नामकी विद्यादेवी तमाखू के जैसी वर्णवाली, पुरुष की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी भुजाओं में अक्षमाला और वज्र तथा बाँयीं भुजाओं में अभय और घंटा को धारण करनेवाली है ॥ ८ ॥
___ आचारदिनकर में सफेद वर्णवाली, दाहिनी भुजाओं में माला और फल तथा बायीं भुजाओं में वज्र और घंटा को धारण करनेवाली माना है। किन्तु शोभनमुनिकृत जिनचतुर्विशति का में 'धृतपविफलाक्षालीघण्टैः करैः' अर्थात् वज्र, फल, माला और घंटा को धारण करनेवाली माना है। नववीं गौरीदेवी का स्वरूप
__गौरी देवी कनकगौरी गोधावाहनां चतुर्भुजां वरदमुसलयुतदक्षिणकरामक्षमालाकुवलयालंकृतवामहस्तां चेति ॥८॥
'गौरी' नामकी विद्यादेवी सुवर्ण वर्णवाली, गोह ( विषखपरा ) की सवारी करनेवाली, चार भुज बाली, दाहिनी भुजाओं में वरदान और मुसल तथा बाँयीं भुजाओं में माला और कमल को धारण करनेवाली है ।।।।
आचारदिनकर में सफेद वर्णवाली और कमल को धारण करनेवाली माना है। दसवीं गांधारीदेवी का स्वरूप
गांधारीदेवी नीलवर्णा कमलासनां चतुर्भुजां वरदमुसलयुतदक्षिणकरां अभयकुलिशयुतवामहस्तां चेति ॥ १० ॥
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वास्तुसारे 'गांधारी' नामकी दशवीं विद्यादेवी नील (आकाश ) वर्णवाली, कमल के आसनवाली, चार भुनावाली, दाहिनी भुजाओं में वरदान और मुसल तथा बाँयीं भुजाओं में अभय और वज्र को धारण करनेवाली हैं ॥ १० ॥
__ आचारदिनकर में कृष्ण वर्णवाली तथा मुसल और वज्र को धारण करनेवाली माना है। ग्यारहवीं महाज्वालादेवी का स्वरूप
सर्वास्त्रमहाज्वाला धवलवर्णा वराहवाहनां असंख्यपहरणयुतहस्तां चेति ॥ ११॥
सर्वास्त्रादेवी नामान्तरे 'महाज्वाला नामकी ग्यारहवीं विद्यादेवी सफेद वर्णवाली, सुअर की सवारी करनेवाली और असंख्य शस्त्र युक्त हाथवाली है ॥ ११॥
___ आचारदिनकर में विलाव की सवारी करनेवाली और ज्वालायुक्त दो हाथवाली माना है । शोभनमुनिकृत जिनचतुर्विंशतिका में वरालक का वाहन माना है। बारहवीं मानवीदेवी का स्वरूप
मानवीं श्यामवर्णा कमलासनां चतुर्भुजां वरदपाशालंकृतदक्षिणकरां अचसूत्रविटपालंकृतवामहस्तां चेति ॥ १२॥
'मानवी' नामकी बारहवीं विद्यादेवी कृष्ण वर्णवाली, कमल के आसनवाली, चार भुजावाली, दाहिनी भुजा वरदान और पाश तथा बाँयीं भुजा माला और वृक्षयुक्त सुशोभित है ॥ १२॥
आचारदिनकर में नील वर्णवाली, नीलकमल के आसनवाली मौर वृनयुक्त हाथवाली माना है।
तेरहवीं वैरोट्यादेवी का स्वरूप
- वैरोव्यां श्यामवर्णा अजगरवाहनां चतुर्भुजा खगोरगालंकृतदक्षिण करां खेटकाहियुतवामकरां चेति ॥ १३ ॥
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सोलह विद्यादेवी का स्वरूप
(१६७) ___ 'वैरोठ्या' नामकी तेरहवीं विद्यादेवी कृष्ण वर्णवाली, अजगर की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी भुजाओं में तलवार और साँप तथा बॉयीं भुजाओं में ढाल और साँप को धारण करनेवाली माना है ॥ १३ ॥
आचारदिनकर में गौरवर्णवाली, सिंह की सवारी करनेवाली, दाहिना एक हाथ तलवारयुक्त और दूसरा हाथ ऊंचा, बाँयां एक हाथ साँपयुक्त और दूसरा वरदानयुक्त माना है। चौदहवीं अच्छुप्तादेवी का स्वरूप
अच्छुप्ता तडिवर्णां तुरगवाहनां चतुर्भुजां खड्गवाणयुतदक्षिणकरां खेटकाहि युतवामकरां चेति ॥ १४ ॥
'अच्छुप्ता' नामकी चौदहवीं विद्यादेवी बीजली के जैसी कान्तिवाली, घोड़े की सवारी करनेवाली, चार भुनावाली, दाहिनी भुजाओं में तलवार और बाण तथा बाँयीं भुजाओं में ढाल और साँप को धारण करनेवाली है ॥ १४ ॥
प्राचारदिनकर और शोभनमुनिकृत चतुर्विंशति जिनस्तुति में साँप के स्थान पर धनुष धारण करने का माना है । पंद्रहवीं मानसीदेवी का स्वरूप
मानसी धवलवर्णा हंसवाहनां चतुर्भुजां वरदवज्रालंकृतदक्षिणकरां अक्षवलयाशनियुक्तवामकरां चेति ॥ १५॥
'मानसी' नामकी पंद्रहवीं विद्यादेवी सफेद वर्णवाली, हंस की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी भुजा वरदान और वज्र तथा बाँयीं भुजा माला और वज्र से अलंकृत है ॥ १५ ॥ ____आचारदिनकर में सुवर्ण वर्णवाली तथा वज्र और वरदानयुक्त हाथवाली माना है।
१ यह पाठ अशुद्ध मालूम होता है, यहां धनुष का पाठ होना चाहिये, क्योंकि बाण के साथ धनुष का संबंध रहता है।
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( १६८)
वास्तुसारे सोलहवीं महामानसीदेवी का स्वरूप
महामानसीं देवीं धवलवर्णा सिंहवाहनां चतुर्भुजां वरदासियुक्तदक्षिणकरां कुण्डिकाफलकयुतवामहस्तां चेति ॥ १६ ॥
'महामानसी' नामकी सोलहवीं विद्यादेवी सफेद वर्णवाली, सिंह की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिनी भुजाओं में वरदान और तलवार तथा बाँयीं भुजाओं में कुंडिका और ढाल को धारण करनेवाली माना है ॥ १६ ॥
___ आचारदिनकर में तलवार और वरदानयुक्त दो हाथ तथा मगर की सवारी माना है।
जय विजयादि चार महा प्रतिहारी देवी का स्वरूप । "हारेषु पूर्वविधिनैव सुवर्णवप्रे,
पाशांकुशाऽभयमुद्गरपाणयोऽमूः । देव्यो जयापि विजयाप्यजिताऽपराजिताख्ये च चक्रुरखिलं प्रतिहारकर्म ॥ १॥"
पद्मानंतमहाकाव्ये सर्ग १४ श्लो• ४६ समवसरण के सुवर्णगढ़ के पूर्वादि द्वारों में पाश. अंकुश, अभय और मुद्गर को धारण करनेवाली जया, विजया, अजिता और अपराजिता नामकी चार देवी द्वारपाल का कार्य करती हैं।
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दश दिक्पालों का स्वरूप। १ इंद्र का स्वरूप
ॐ नमः इन्द्राय तप्तकाश्चनवर्णय पीताम्बराय ऐरावणवाहनाय वज्रहस्ताय पूर्वदिगधीशाय च।
तपे हुए सुवर्ण के वर्ण जैसे. पीले वस्त्रवाले, ऐरावण हाथी की सवारी करनेवाले और हाथ में वज्र को धारण करनेवाले और पूर्व दिशा के स्वामी ऐसे इंद्र को नमस्कार । २ अग्निदेव का स्वरूप
ॐ नमः अग्नये भाग्नेय दिगधीश्वराय कपिलवर्णाय छागवाहनाय नीलाम्बराय धनुर्षाणहस्ताय च ।
अग्नि दिशा के स्वामी, कपिला के वर्ण जैसे ( अग्नि वर्णवाले ), बकरे की सवारी करने वाले, नील वर्ण के वस्त्रवाले, 'हाथ में धनुष और बाण को धारण करनेवाले ऐसे अग्निदेव को नमस्कार । ३ यमदेव का स्वरूप
ॐ नमो यमाय दक्षिणदिगधीशाय कृष्णवर्णाय चर्मावरणाय महिषवाहनाय दण्डहस्ताय च ।
दक्षिण दिशा के स्वामी, कृष्ण वर्णवाले, चर्म के वस्त्रवाले, भैंसे की सवारी करनेवाले और हाथ में दंड को धारण करनेवाले यमराज को नमस्कार । ४ निर्ऋतिदेव का स्वरूप
ॐ नमो निर्ऋतये नैऋत्यदिगधीशाय धूम्रवर्णाय व्याघ्रचर्मवृताय मुद्गरहस्ताय प्रेतवाहनाय च ।
निर्वाणकनिका में-शक्रि को धारण करना माना है।
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वास्तुसारे नैर्ऋत्यकोण के स्वामी, 'धूम्र के वर्णवाले, व्याघ्रचर्म को पहिरनेवाले, हाथ में 'मुद्गर को धारण करनेवाले और प्रेत (शच) की सवारी करनेवाले ऐसे निऋति देव को नमस्कार । ___५ वरुणदेव का स्वरूप
ॐ नमो वरुणाय पश्चिम दिगधीश्वराय मेघवर्णाय पीताम्बराय पाशहस्ताय मत्स्यवाहनाय च ।
पश्चिम दिशा के स्वामी, मेघ के जैसे वर्णवाले, पीले वस्त्रवाले हाथ में पाश ( फांसी) को धारण करनेवाले और मछली की सवारी करनेवाले ऐसे वरुणदेव को नमस्कार । ६ "वायुदेव का स्वरूप
नमो वायवे वायव्यदिगधीशाय धूसराङ्गाय रक्ताम्बराय हरिणवाहनाय ध्वजप्रहरणाय च ।
वायुकोण के स्वामी, धूसर (हलका पीला रंग ) वर्णवाले, लाल वस्त्रवाले, हरिण की सवारी करने वाले और हाथ में ध्वजा को धारण करनेवाले ऐसे वायुदेव को नमस्कार । ७ “कुबेरदेव का स्वरूप
ॐ नमो धनदाय उत्तरदिगधीशाय शक्रकोशाध्यक्षाय कनकाङ्गाय श्वेतवस्त्राय नरवाहनाय रत्नहस्ताय च ।
उत्तर दिशा के स्वामी, इंद्र के खजानची, सुवर्ण वर्णवाले, सफेद वस्त्रवाले, मनुष्य की सवारी करनेवाले और हाथ में रत्न को धारण करनेवाले ऐसे धनद (कुबेर) देव को नमस्कार । निर्वाणकलिका में इस प्रकार मतान्तर है
१ हरित् । हग ) वर्णवाले और २ खड्ग को धारण करनेवाले माना है । ३ वरुण देव सफेद वर्णवाले और मगर की सवारी करनेवाले माना है। ४ वायुदेव भी सफेद वर्ण का माना है।
५ कुबेरदेव नवनिधि पर बैठे हुए, अनेक वर्णवाले, बड़े पेटवाले, हाथ में निचुलक ( जल में होनेवाला बेत )और गदा को धारण करनेवाले माना है ।
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दश दिक्पालों का स्वरूप
( १७१ ) ८ 'ईशानदेव का स्वरूप
ॐ नमः ईशानाय ईशान दिगधीशाय श्वेतवर्णाय गजाजिनवृताय वृषभवाहनाय पिनाकशूलधराय च ।
ईशान दिशा के स्वामी, सफेद वर्णवाले, गजचर्म को धारण करनेवाले. बैल की सवारीवाले, हाथ में शिवधनु और त्रिशून को धारण करनेवाले ऐसे ईशानदेव को नमस्कार ।
९ नागदेव का स्वरूप- ॐ नमो नागाय पातालाघोश्वराय कृष्णवर्णाय पद्मवाहनाय उरगहस्ताय च ।
पाताललोक के स्वामी, कृष्ण वर्णवाले, कमल के वाहनवाले और हाथ में सर्प को धारण करनेवाले ऐसे नागदेव को नमस्कार । १. ब्रह्मदेव का स्वरूप
ॐ नमो ब्रह्मणे ऊर्ध्वलोकाधीश्वराय काञ्चनवर्णाय चतुर्मुखाय श्वेतवस्त्राय हंसवाहनाय कमलसंस्थाय पुस्तककमल हस्ताय च ।
ऊर्धलोक के स्वामी, सुवर्ण वर्णवाले, चार मुख गले, सफेद वस्त्रवाले, हंस की सवारी करने वाले, कमल पर रहनेवाले हाथ में पुस्तक पौर कमल को धारण करनेवाले ऐसे ब्रह्मदेव को नमस्कार ।
निर्वाण कलिका के मत से इस प्रकार मतान्तर है
१ईशानदेव को तीन नेत्रवाला माना है। २ ब्रह्मदेव सफेद वर्णवाले और हाथ में कमंडलु धारण करनेवाले माना है।
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नव ग्रहों का स्वरूप । १ सूर्य का स्वरूप
ॐ नमः सूर्याय सहस्रकिरणाय पूर्वदिगधीशाय रक्तवस्त्राय कमल हस्ताय सप्ताश्वरथवाहनाय च ।
हजार किरणोंवाले पूर्व दिशा के स्वामी लाल वस्त्रवाले हाथ में कमल को धारण करनेवाले और सात घोड़े के रथ की सवारी करनेवाले सूर्य को नमस्कार । २ चंद्रमा का स्वरूप
ॐ नमश्चन्द्राय तारागणाधीशाय वायव्यदिगधीशाय श्वेतवस्त्राय श्वे. तदशवाजिवाहनाय सुधाकुम्भहस्ताय च ।
ताराओं के स्वामी, वायव्य दिशा के स्वामी, सफेद वस्त्रवाले, सफेद दम घोड़े के रथ की सवारी करनेवाले और हाथ में अमृत के कुंभ को धारण करनेवाले चंद्रमा को नमस्कार । ३ मंगल का स्वरूप
ॐ नमो मङ्गलाय दक्षिणदिगधीशाय विद्रुमवर्णाय रक्ताम्बराय भूमिस्थिताय कुद्दालहस्ताय च ।
दक्षिण दिशा के स्वामी. मुंगा के वर्णवाले, लाल वस्त्रवाले, भूमि पर बैठे हुए और हाथ में कुदाल को धारण करनेवाले मंगल को नमस्कार । ४ बुध का स्वरूप
ॐ नमो बुधाय उत्तरदिगधीशाय हरितवस्त्राय कलहंसवाहनाय पुस्तकहस्ताय च । निर्वाणकलिका के मत से इस प्रकार मतान्तर है
१ सूर्य को लाल हिंगलो के वर्णवाला माना है । २ चंद्रमा के दाहिने हाथ में अक्षसूत्र ( माला) और बायें हाथ में कुंडी धारण करनेवाला माना है। ३ मंगल के दाहिने हाथ में प्रक्षसूत्र ( माला ) और बायें हाथ में कुंडी धारण करना माना है। v बुध पीले वर्णवाले, हाथों में भक्षसूत्र और कुण्डिका माना है।
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नव ग्रहों का स्वरूप
(१७३ ) उत्तर दिशा के स्वामी, हरे वर्णवाले, राजहंस की सवारी करनेवाले और पुस्तक हाथ में रखनेवाले बुध को नमस्कार ।
५ गुरु का स्वरूप___ ॐ नमो बृहस्पतये ईशानदिगधीशाय सर्वदेवाचार्याय कांचनवर्णाय पीतवस्त्राय पुस्तकहस्ताय हंसवाहनाय च ।
ईशान दिशा के स्वामी, सब देवों का आचार्य, सुवर्ण वर्णवाले, पीले वस्त्रवाले, हाथ में पुस्तक धारण करनेवाले और हंस की सवारी करनेवाले गुरु को नमस्कार । ६ शुक्र का स्वरूप
ॐ नमः शुक्राय दैत्याचार्याय माग्नेयदिगधीशाय स्फटिकोज्ज्वलाय श्वेतवस्त्राय कुम्भहस्ताय तुरगवाहनाय च ।
दैत्य के प्राचार्य, आग्नेयकोण का स्वामी, स्फटिक जैसे सफेद वर्णवाले, सफेद वस्नवाले, हाथ में घड़े को धारण करनेवाले और घोड़े की सवारी करनेवाले शुक्र को नमस्कार । ७ शनि का स्वरूप
ॐ नमः शनैश्चराय पश्चिमदिगधोशाय नीलदेहाय नीलाम्बराय परशुहस्ताय कमठवाहनाय च ।
पश्चिम दिशा के स्वामी नील वर्णवाले, नीले वस्त्रकाले, हाथ में फरसा को धारण करनेवाले और कछुए की सवारी करनेवाले शनैश्वर को नमस्कार । निर्वाणकलिका के मत से इस प्रकार मतान्तर है
५ गुरु के हाथ में अक्षसूत्र और कुण्डिका माना है। ६ शुक्र के हाथ में अक्षसूत्र और कमण्डलु माना है ।
७ शनैश्वर थोडे पृष्ण वर्णवाले, लम्बे पीले बाज वाले, हाथ में अक्ष सूत्र और कमण्डलु को धारण करनेवाले माना है।
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(१७४)
वास्तुसारे ८ राहु का स्वरूप
ॐ नमो राहवे नैऋतदिगधीशाय कजलश्यामलाय श्यामवस्त्राय परशुहस्ताय सिंहवाहनाय च ।
नैर्ऋत्य दिशा के स्वामी, काजल जैसे श्याम वर्णले, श्याम वनवाले, हाथ में फरसा को धारण करनेवाले और सिंह की सवारी करनेवाले राहु को नमस्कार । - ९ केतु का स्वरूप
ॐ नमः केतवे राहुप्रतिच्छन्दाय श्यामानाय श्यामवस्त्राय पन्नगवाहनाय पन्नगहस्ताय च ।
राहु का प्रतिरूप श्याम वर्णवाले, श्याम वस्त्रगले, साँप की सबारीवाले और साँप को धारण करनेवाले केतु को नमस्कार ।
श्राचारदिनकर के मत से क्षेत्रपाल का स्वरूप ।
ॐ नमः क्षेत्रपालाय कृष्णगौरकाश्चन धूसरकपिलवर्णाय विंशतिभूजदण्डाय बबरकेशाय जटाजूटमण्डिताय वासुकोकृतजिनोपवीताय तत्तककृतमेखलाय शेषकृतहाराय नानायुधहस्ताय सिंहचर्मावरणाय प्रेतासनाय कुक्कुरवाहनाय त्रिलोचनाय च ।
कृष्ण, गौर, सुवर्ण, पांडु और भरे वर्णवाले, बीस भुजावाले, बर्बर केशवाले, बड़ी जटावाले, वासुकी नाग की जनेऊवाले, तक्षकनाग की मेखल्लावाले, शेषनाग के हारवाले, अनेक प्रकार के शस्त्र को हाथ में धारण करनेवाले, सिंह के चर्म को धारण करनेवाले, प्रेत के आसनवाले, कुत्ते की सवारीवाले और तीन नेत्रवाले ऐसे क्षेत्रपाल को नमस्कार ।
निर्वाणकलिका के मत से इस प्रकार मतान्तर है
राहु अर्द्धकाय से रहित और दोनों हाथ अर्घ मुदावाने माना है। केतु हाथ में अक्षसूत्र और कुंडिका धारण करनेवाले माना है ।
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क्षत्रपाल का स्वरूप
निर्वाणकलिका के मत से क्षेत्रपाल का स्वरूप ---
क्षेत्रपालं क्षेत्रानुरूपनामानं श्यामवर्ण वर्षरकेश मावृत्तपिङ्गनयनं विकृ तदंष्ट्रं पादुकाधिरूढं नग्नं कामचारिणं षड्भुजं मुद्गरपाशडमरुकान्वितदक्षिणपाणिं श्वान | ङ्कुश गेडिकायुतवामपाणिं श्रीमद्भगवतो दक्षिणपार्श्वे ईशानाश्रितं दक्षिणाशामुखमेव प्रतिष्ठाप्यम् ।
( १७५)
अपने २ क्षेत्र के नामवाले, श्याम वर्णवाले, बर्बर केशवाले, गोल पीले नेत्रवाले, विरूप बड़े २ दांत वाले, पादुका पर बैठे हुए, नग्न, छः भुजावाले, मुद्गर, फाँसी और डमरू को दाहिने हाथ में और कुत्ता अंकुश और गेडिका ( लाठी ) को बाँयें हाथ में रखनेवाले, भगवान् की दाहिनी और ईशान तरफ दक्षिणाभिमुख स्थापन करना चाहिये ।
माणिभद्र क्षेत्रपाल का स्वरूप
ढक्काशूल सुदामपाशाङ्कुशखः । स्वस्करषट्कं युक्तं भात्यायुधवगैः ॥
●
माणिभद्रदेव कृष्ण वर्णवाले, ऐरावण हाथी की सवारी करनेवाले, वराह के मुखवाले, दांत पर जिन मंदिर धारण करनेवाले छः भुजावाले, दाहिनी भुजाओं में ढाल, त्रिशूल और माला; बाँयीं भुजाओं में नागपाश, अंकुश और तलवार को धारण करनेवाले हैं । ऐसा तपागच्छीय श्री अमृतरत्नसूरि कृत माणिभद्र की भारती में कहा है ।
सरस्वती देवी का स्वरूप
श्रुतदेवतां शुक्लवर्णी हंसवाहनां चतुर्भुजां वरदकमलान्वितदक्षिण करां पुस्तकाक्षमालान्वितवामकरां चेति ।
सरस्वती देवी सफेद वर्णवाली, हंस की सवारी करनेवाली, चार भुजावाली, दाहिने हाथों में वरदान और कमल, बाँयें हाथों में पुस्तक और माला को धारण करनेवाली है ।
१ श्राचारदिनकर और सरस्वती के तंत्रों में दाहिने हाथों में माला और कमल, बाँयें हाथों में वीणा और पुस्तक को धारण करनेवाली माना है ।
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त । आरंभसिद्धि, दिनशुद्धि, लनशुद्धि. मुहूर्त चिन्तामणि, मुहूर्त मार्तण्ड, ज्योतिषरत्नमाला और ज्योतिष हीर इत्यादि ग्रंथों के आधार से नीचे के सब मुहूर्त लिखे गये हैं। संवत्सरादिक की शुद्धि
संवत्सरस्य मासस्य दिनस्यक्षस्य सर्वथा ।
कुजवारोज्झिता शुद्धिः प्रतिष्ठायां विवाहवत् ॥१॥ सिंहस्थ गुरु के वर्ष को छोड़कर वर्ष, मास, दिन, नक्षत्र और मंगलवार को छोड़कर दूसरे वार, इन सब की शुद्धि जैसे विवाह कार्य में देखते हैं, उसी प्रकार प्रतिष्ठा कार्य में भी देखना चाहिये ॥१॥ अयन शुद्धि
गृहप्रवेशत्रिदशप्रतिष्ठा-विवाहचूडाव्रतवन्धपूर्वम् ।
सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्गर्हितं तस्खलु दक्षिणे च ॥ २॥
गृह प्रवेश, देव की प्रतिष्ठा, विवाह, मुंडन संस्कार और यज्ञोपवितादि व्रत इत्यादि शुभकार्य उत्तरायण में सूर्य हो तप करना शुभ माना है और दक्षिण में सूर्य हो तब ये शुभ कार्य करना अशुभ माना है ॥ २ ॥ मास शुद्धि
मिग्गसिराइ मासट्ठ चित्तपोसाहिए वि मुत्तु सुहा ।
जइ न मुरु सुको वा बालो वुडो अ अस्थमित्रो ॥ ३ ।
चैत्र, पौष और अधिक मास को छोड़कर मार्गशिर आदि आठ मास ( मार्गशिर, माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ ) शुभ हैं । परन्तु गुरु या शुक्र बाल, वृद्ध और अस्त नहीं होने चाहिये ॥ ३ ॥
मकर आदि छः राशि तक सूर्य उत्तरायण और कर्क प्रादि छः राशि तक सूर्य दक्षिणायन माना है।
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प्रतिष्ठाविक के मुहूर्त।
(१७७) गेहाकारे चेइन वजिजा माहमास अगणिभयं ।।.. सिहरजुनं जिणभुवणे विपवेसो सया भणिभो ॥४॥ भासाढे वि पइट्ठा कायव्वा केइ सूरिणो मपइ । पासायगभगेहे विपवेसो न कायव्यो ॥५॥
घरमंदिर का प्रारम्भ माघ मास में करें तो अग्नि का भय रहे, इसलिये माघ मास में घरमंदिर बनाने का प्रारम्भ करना अच्छा नहीं । परन्तु शिखरबद्ध मंदिर का प्रारम्भ और बिम्ब (प्रतिमा ) का प्रवेश कराना अच्छा है । आषाढ मास में प्रतिष्ठा करना, ऐसा कोई प्राचार्य कहते हैं, किन्तु प्रासाद के गर्भगृह ( मूलगम्भाग) में विम्व प्रवेश नहीं कराना चाहिये ।। ४ । ५॥ . तिथि शुद्धि
छट्ठी रित्तट्टमी वारसी अ अमावसा गयतिहीओ।
वुड्कृतिहि कूरदद्धा वजिज्न सुहेसु कम्मेसु ॥ ६ ॥
छ. रिक्ता (४-९-१४ ), आठम, बारस, अमावस, क्षयतिथि, वृद्धितिथि, क्रूरतिथि और दग्धातिथि ये तिथि शुभ कार्य में छोड़ना चाहिये ॥ ६॥
कर तिथि
त्रिशश्चतुर्णामपि मेषसिंह-धन्वादिकानां क्रमतश्चतस्रः ।
पूर्णाश्चतुष्कत्रितयस्य तिस्र-स्त्याज्या तिथिः फरयुतस्य राशेः ॥७॥
मेष, सिंह और धन से चार २ राशियों के तीन चतुष्क करना, उनमें प्रथम चतुष्क में प्रतिपदादि चार तिथि और पंचमी, दूसरे चतुष्क में षष्ठी प्रादि चार तिथि और दशमी. तीसरे चतुष्क में एकादशी आदि चार तिथि और पूर्णिमा इन क्रूर तिथियों में शुभ कार्य वजनीय है । उक्त राशि पर सूर्य, मंगल, शनि या राहु आदि कोई पाप ग्रह हो तब कर तिथि माना है अन्यथा नहीं ॥ ७॥
क्रूर तिथि यंत्रमेष ... ... १-५ | सिंह ... .... ६-१० । धन
... ११-१५ वृष ... ... २-५ कन्या..
... ७-१०
... १२-१५ तुला ...
कुंभ ... ४-५ वृश्चिक ... ९-१० मीन
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मकर
.... १३-१५
-
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मेष-कर्क
,
(१७)
वास्तुसार सूर्यदग्धा तिथि
छग चउ भट्ठमि षट्ठी दसममि बार दसमि बीमा छ ।
बारसि घस्थि बीमा मेसाइसु सूरददिणा ॥८॥
मेष आदि बारह राशियों में सूर्य हो तब क्रम से छठ, चौथ, आठम, छठ, दसम, आठम, बारस, दसम, दूज, बारस, चौथ और दूज ये सूर्यदग्धा तिथि कही जाती हैं ॥ ८॥ सूर्यदग्धा तिथि यंत्रधनु-मीन सक्रांति में
मिथुन-कन्या सक्रांति में ८ वृष-कुंभ ,
सिंह- वृश्चिक , १०
तुला- मकर , १२ चन्द्रदग्धा तिथि
कुंभधणे अजमिहुणे तुलसीहे मयरमीण विसकके ।
विच्छियकन्नासु कमा बीआई समतिही उ ससिदड्डा ॥६॥
कुंभ और धन का चंद्रमा हो तब दज, मेष और मिथुन का चंद्र हो तब चौथ, तुला और सिंह का चंद्र हो तब छट्ट, मकर और मीन का चंद्रमा हो तब आठम, वृष
और कर्क का चंद्र हो तब दसम, वृश्चिक और कन्या का चंद्र हो तब बारस, इत्यादिक क्रम से द्वितीयादि सम तिथि चंद्रदग्धा तिथि कही जाती है ॥ ४॥ चन्द्रदग्धा तिथि यंत्रकुंभ-धन के चंद्र में २
मकर-मीन के चंद्र में मेष-मिथुन ,
वृष- कर्क , तुला-सिंह ,
वृश्चिक-कन्या , प्रतिष्ठा तिथी
सियपक्खे पडिवय वीस पंचमी दसमि तेरसी पुण्णा । कसिणे पडिवय बीमा पंचमि मुहया पट्टाए ॥ १० ॥
-
१२
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त।
( १७६ )
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शुक्लपक्ष की एकम, दूज, पांचम, दसम,तेरस और पूनम तथा कृष्णपक्ष की एकम, दूज और पंचमी ये तिथि प्रतिष्ठा कार्य में शुभदायक मानी है ॥१०॥ वार शुद्धि
भाइच बुह बिहप्फह सणिवारा सुंदरा वयग्गहणे । विंबपइट्टाइ पुणो बिहफा सोम बुह मुक्का ॥ ११ ॥
रवि, बुध, बृहस्पति, और शनिवार ये व्रत ग्रहण करने में शुम माने हैं तथा बिम्ब प्रतिष्ठा में बृहस्पति, सोम, बुध और शुक्र वार शुभ माने हैं ॥११॥ रत्नमाला में कहा है कि
तेजस्विनी क्षेमकृदग्निदाह-विधायिनी स्यावरदा दृढा च ।
आनंदकृस्कल्पनिवासिनी च, सूर्यादिवारेषु भवेत् प्रतिष्ठा ॥ १२॥
रविवार को प्रतिष्ठा करने से प्रतिमा तेजस्वी अर्थात् प्रभावशाली होती है । सोमवार को प्रतिष्ठा करने से कुशल-मंगल करनेवाली, मंगलवार को अग्निदाह, बुधवार को मन वाञ्छित देनेवाली, गुरुवार को दृढ (स्थिर ), शुक्रवार को आनंद करनेवाली
और शनिवार को की हुई प्रतिष्ठा कल्प पर्यन्त अर्थात् चंद्र सूर्ये रहे वहां तक स्थिर रहने वाली होती है ।। १२॥ प्रहों का उच्चबल
अजवृषमृगाङ्गनाकुलीरा झषवणिजौ च दिवाकरादितुङ्गाः । दशशिखिमनुयुक् तिथीन्द्रियांशै स्त्रिनवकविंशतिभिश्च तेऽस्तनिषाः ॥१३॥
मेषराशि के प्रथम दश अंश रवि का परम उच्च स्थान, वृषराशि के प्रथम वीन अंश चन्द्रमा का परम उच्च स्थान, मकर के प्रथम अट्ठाईस अंश मंगल का, कन्या के पंद्रह अंश बुध का, कर्क के पांच अंश गुरु का, मीन के सत्ताईस अंश शुक्र का और तुला के प्रथम बीस अंश शनि का परम उच्च स्थान है। उक्त राशियों में कहे हुए ग्रह उच्च हैं और उक्त अंशों में परम उच्च हैं । ये ग्रह अपनी उच्च राशि से सातवीं राशि पर हों तो नीच राशि के माने जाते हैं । अर्थात् सूर्य मेषराशि का उच्च है इससे सातवीं राशि तुला का सूर्य हो तो नीच का माना जाता है । इसमें भी दस अंश तक परम नीच है। इसी प्रकार सब ग्रहों को समझिये ॥१३॥
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( १८०)
वास्तुसारे • ग्रहों का स्वाभाविक मित्रबल
शत्रू मन्दसितौ समश्च शशिजो मित्राणि शेषा रवे..
स्तीक्ष्णांशुर्हिमरश्मिजश्च सुहृदौ शेषाः समाः शीतगोः । जीवेन्दूषणकराः कुजस्य सुहृदो ज्ञोऽरिः सितार्की समो,
मित्रे सूर्यसितो बुधस्य हिमगुः शत्रः समाश्चापरे ॥१४॥ सूरेः सौम्यसितावरी रविसुतो मध्योऽपरे स्वन्यथा,
सौम्यार्की सुहृदो समौ कुजगुरू शुक्रस्य शेषावरी । शुक्रज्ञौ सुहृदौ समः सुरगुरुः सौरस्य चान्येऽरयो, ___ ये प्रोक्ताः स्वत्रिकोणभादिषु पुनस्तेऽमी मया कीर्तिताः ॥१५॥
सूर्य के शनि और शुक्र शत्रु हैं, बुध समान है और चन्द्रमा, मंगल व बृहस्पति ये मित्र हैं । चन्द्रमा के सूर्य और बुध मित्र हैं तथा मंगल, बृहस्पति, शुक्र और शनि ये समान हैं, शत्रु ग्रह कोई नहीं है। मंगल के सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति ये मित्र हैं, बुध शत्रु है और शुक्र व शनि समान हैं । बुध के सूर्य और शुक्र मित्र हैं, चन्द्रमा शत्रु है और मंगल, वृहस्पति व शनि ये समान स्वभाव वाले हैं। गुरु के बुध और शुक्र शत्रु हैं, शनि मध्यम है और सूर्य, चंद्रमा व मंगल मित्र हैं। शुक्र के बुध और शनि मित्र हैं, मंगल और गुरु समान और सूर्य व चंद्रमा शत्रु हैं। शनि के शुक्र और बुध मित्र हैं, बृहस्पति समान और सूर्य, चंद्रमा व मंगल शत्रु हैं। इत्यादिक जो अपने त्रिकोण भवन दि स्थान में कहे हैं, वे मैंने यहां उदाहरण रूप में बतलाये हैं ॥ १४॥१५॥
प्रह मैत्री चक्र
ग्रहा ।
। रवि
सोम
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
सू-चं.
मित्र वं मं० वृह सूर्य बुध
| सूर्य शुकः सू० चं० मं० बुध शनि
बुध शुक्र
बृह
सम
।
तुम
मं वृ० शु० श.
शुक्र शनि
म० बु० शनि
शनि मंगल बृह० बृहस्पति
शत्रु | शुक्र शनि
वुध
__चंद्र
बुध शुक्र | सूर्य चंद्र
सू००म०
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ग्रहों का दृष्टिबल
प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त्त ।
पश्यन्ति पादतो वृद्धया भ्रातृव्योम्नी त्रित्रिकोणके । चतुरस्रे स्त्रियं स्त्रीवन्मतेनायादिमावपि ।। १६ ।।
सब ग्रह अपने २ स्थान से तीसरे और दसवें स्थान को एक पाद दृष्टि से, नव और पांचवें स्थान को दो पाद दृष्टि से, चौथे और आठवें स्थान को तीन पाद दृष्टि से और सातवें स्थान को चार पाद की पूर्ण दृष्टि से देखते हैं । कोई आचार्य का ऐसा मत है कि - पहले और ग्यारहवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। बाकी के दूसरे, छट्ठे और बारहवें स्थान को कोई ग्रह नहीं देखते ॥ १६ ॥
( १८१ )
क्या फक्त सातवें स्थान को ही पूर्ण दृष्टि से देखते हैं या कोई अन्य स्थान को भी पूर्ण दृष्टि से देखते हैं ? इस विषय में विशेष रूप से कहते हैंपश्येत् पूर्ण शनिर्भातृव्योम्नी धर्मधियोर्गुरुः ।
चतुरस्रे कुजोऽर्केन्दु-बुध शुक्रास्तु सप्तमम् ॥ १७ ॥
शनि तीसरे और दसवें स्थान को, गुरु नववें और पांचवें स्थान को, मंगल Date और आठवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है। रवि, सोम, बुध और शुक्र ये सातवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं ॥ १७ ॥
अर्थात् तीसरे और दसवें स्थान पर दूसरे ग्रहों की एक पाद दृष्टि है, किन्तु शनि की तो पूर्ण दृष्टि है। नववें और पांचवें, चौथे और आठवें और सातवें स्थान पर जैसे अन्य ग्रहों की दो पाद, वीन पाद और पूर्ण दृष्टि है, इसी प्रकार शनि की भी है, इसलिये शनि की एक पाद दृष्टि कोई भी स्थान पर नहीं है । नववें और पांचवें स्थान पर अन्य ग्रहों की दो पाद दृष्टि है, किन्तु गुरु की तो पूर्ण दृष्टि | जैसे दूसरे ग्रहों की तीसरे और दसवें, चौथे और आठवें और सातवें स्थान पर क्रमशः एक पाद, तीन पाद और पूर्ण दृष्टि हैं, वैसे गुरु की भी है, इसलिये गुरु की दो पाद दृष्टि कोई स्थान पर नहीं है । चौथे और आठवें स्थान पर अन्य ग्रहों की तीन पाद दृष्टि है, किन्तु मंगल की तो पूर्ण दृष्टि है । जैसे दूसरे ग्रहों की तीसरे और दसवें नववें और पांचवें और सातवें स्थान पर क्रमशः एक पाद, दो पाद और पूर्ण दृष्टि है, वैसे मंगल की भी है, इसलिये मंगल की तीन पाद दृष्टि कोई भी स्थान पर नहीं है, ऐसा
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(१८२ )
वास्तुसारे सिद्ध होता है। रवि, सोम, बुध और शुक्र ये चार ग्रहों की तो सातवें स्थान पर ही पूर्ण दृष्टि होने से दूसरे कोई भी स्थान को पूर्ण दृष्टि से नहीं देखते हैं। प्रतिष्ठा के नक्षत्र
मह मिसिर हत्थुत्तर अणुराहा रेबई सवण मूलं ।
पुस्स पुणव्वसु रोहिणि साइ धपिट्ठा पट्टाए ॥ १८ ॥
मघा, मृगशीर, हस्त, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, अनुराधा, रेवती, श्रवण, मूल, पुष्य, पुनर्वसु, रोहिणी, स्वाति और धनिष्ठा ये नक्षत्र प्रतिष्ठा कार्य में शुभ हैं ॥ १८॥ शिलान्यास और सूत्रपात के नक्षत्र
चेहमसुभं धुवमिउ कर पुस्स पणि? सयभिसा साई।
पुस्स तिउत्तर रे रो कर मिग सवणे सिलनिवेसो ॥ १६ ॥
ध्रुवसंज्ञक ( उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा और रोहिणी ), मृदुसंज्ञक (मृगशीर, रेवती, चित्रा और अनुराधा), हस्त, पुष्य, धनिष्ठा, शतभिषा और स्वाति इन नक्षत्रों में चैत्य ( मन्दिर) का सूत्रपात करना अच्छा है। तथा पुष्य, तीनों उत्तरानक्षत्र, रेवती, रोहिणी, हस्त, मृगशीर और श्रवण इन नक्षत्रों में शिला का स्थापन करना अच्छा है ॥ १६ ॥ प्रतिष्ठाकारक के अशुभ नक्षत्र
कारावयस्स जन्मरिक्खं दस सोलसं तह द्वारं ।
तेवीसं पंचवीसं विपाटाइ वजिजा ॥ २० ॥
बिम्ब प्रतिष्ठा करनेवाले को अपना जन्मनक्षत्र, दसवाँ, सोलहवाँ, अठारहवा, तेवीसवाँ और पचीसवाँ ये नक्षत्र बिम्ब प्रतिष्ठा में छोड़ना चाहिये ॥ २० ॥ बिम्ब प्रवेश नक्षत्र
सयभिसपुस्स पणिहा मिगसिर धुवमिउ भएहिं सुहवारे । ससि गुरुसिए उहए गिहे पवेसिन परिमामो ॥ २१ ॥
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त्त ।
( १८३ )
शतभिषा, पुष्य, धनिष्ठा, मृगशीर, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी, चित्रा, अनुराधा और रेवती इन नक्षत्रों में, शुभवारों में, चन्द्रमा, गुरु और शुक्र के उदय में प्रतिमा का प्रवेश कराना अच्छा है ।। २१
जिनबिम्ब करानेवाले धनिक के अनुकूल प्रतिमा स्थापन करते समय नक्षत्र, योनि आदि देखे जाते हैं । कहा है कि
योनिगणराशिभेदा लभ्यं वर्गश्च नाडीवेधश्च । नूतन बिंबविधाने षड्विधमेतद् विलोक्यं ज्ञेः ॥ २२ योनि, गण, राशिभेद, लेनदेन, वर्ग और नाडिवेध ये छ: प्रकार के बल पंडितों को नवीन जिनबिम्ब करवाते समय देखने चाहिये ॥ २२ ॥
नक्षत्रों की योनि
उडूनां योन्योऽश्व-द्विप-पशु-भुजङ्गा-हि-शुनकौस्व-जा-माजरा खुइय-वृष-मह- व्याघ्र - महिषाः । तथा व्याघ्रे णै ण-श्व-कपि-नकुल इन्द्र-कपयो,
हरिर्वाजी दन्तावलरिपु - रज:- कुञ्जर इति ॥ २३ ॥
अश्विनी नक्षत्र की योनि अश्व, भरणी की हाथी, कृत्तिका की पशु (बकरा ) रोहिणी की सर्प, मृगशीर्ष की सर्प, आर्द्रा की श्वान, पुनर्वसु की बिलाव, पुष्य की बकरा, आश्लेषा की बिलाव, मघा की उंदर, पुर्वाफाल्गुनी की उंदुर, उत्तराफाल्गुनी की गौ, हस्त की महिष, चित्रा की बाघ, स्वाति की महिष, विशाखा की बाघ, अनुराधा की मृग, ज्येष्ठा की मृग, मूल की श्वान, पूर्वाषाढा की बानर, उत्तराषाढा की नकुल, अभिजित् की नकुल, श्रवण की वानर, धनिष्ठा की सिंह, शतभिषा की अश्व, पूर्वाभाद्रपदा की सिंह, उत्तराभाद्रपदा की बकरा और रेवती नक्षत्र की योनि हाथी है || २३ ||
१ अन्य ग्रंथों में गौ योनि लिखा है।
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(१८४)
वास्तुसारे योनि वैरश्वेणं हरीभमहिष पशुप्लवंगं, गोव्याघ्रमश्वमहमोतुकमूषिकं च । लोकात्तथाऽन्यदपि दम्पतिभर्तृभृत्य-योगेषु वैरमिह वय॑मुदाहरन्ति ॥२४ ।
श्वान और मृग को, सिंह और हाथी को, सर्प और नकुल को, बकरा और वानर को, गौ और बाघ को, घोड़ा और भैंसा को, बिलाव और उदुर को परस्पर वैर है । इस प्रकार लोक में प्रचलित दूसरे वैर भी देखे जाते हैं । यह वैर पति पत्नी, स्वामी सेवक और गुरु शिष्य आदि के सम्बन्ध में छोड़ना चाहिये ।। २४ ।। नक्षत्रों के गणदिव्यो गपः किल पुनर्वसुपुष्यहस्त
स्वात्यश्विनीश्रवणपोष्णमृगानुराधाः । स्यान्मानुषस्तु भरणी कमलासनः
पूर्वोत्तरात्रितयशंकरदेवतानि । २५ ।। रदोगणः पितृभराक्षसवासवेन्द्र
चित्राद्विदैववरुणाग्निभुजङ्गभानि । प्रीतिः स्वयोरति नरामरयोस्तु मध्या,
वैरं पलादसुरयोतिरन्स्ययोस्तु ॥ २६ ॥ पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, स्वाति, अश्विनी, श्रवण, रेवती, मृगशीर्ष और अनुराधा ये नव नक्षत्र देवगणवाले हैं। भरणी, रोहिणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा और आर्द्रा ये नव नक्षत्र मनुष्य गण वाले हैं । मघा, मूल, धनिष्ठा ज्येष्ठा, चित्रा, विशाखा, शतभिषा, कृत्तिका
और आश्लेषा ये नव नक्षत्र राक्षसगण वाले हैं। उनमें एक ही वर्ग में अत्यन्त प्रीति रहे एक का मनुष्य गण हो और दूसरे का देवगण हो तो मध्यम प्रीति रहे, एक का देवगण हो और दूसरे का राक्षसगण हो तो परस्पर वैर रहे तथा एक का मनुप्यगण हो और दूसरे का राक्षसगण हो तो मृत्यु कारक है ॥ २५ ॥ २६ ॥
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त।
(१५) राशिकूट
विसमा भट्टमे पीई समाउ महमे रिज। सत्तु बट्टमं नामरासिहि परिवजए॥ बीयवारसम्मि बजे नवपंचमगं तहा।
सेसेसु पीई निहिट्ठा जइ दुचागहमुत्तमा ॥ २७ ॥
विषम राशि (१-३-५-७-६-११) से आठवीं राशि के साथ मित्रता है, और समराशि (२-४-६-८-१०-१२) से आठवीं राशि के साथ शत्रुता है । एवं विषम राशि से छट्टी राशि के साथ शत्रुता है और समराशि से छही राशि मित्र है। इस प्रकार दूजी और बारावीं तथा नववीं और पांचवीं राशियों के स्वामी के साथ वापस में मित्रता न हो तो उनको भी अवश्य छोड़ना चाहिये । पाकी सप्तम से सप्तम राशि, तीसरी से ग्यारहवीं राशि और दशम चतुर्थ राशि शुभ है ॥ २७ ॥
कितनेक प्राचार्य गशिकूट का परिहार इस प्रकार बतलाते हैं
नाडी योनिर्गणास्तारा चतुष्कं शुभदं यदि ।।
तदौदास्येऽपि नाथानां भकूटं शुभदं मतम् ॥ २८ ॥ यदि नाडी, योनि, गण और तारा ये चारों ही शुभ हों तो राशियों के स्वामी का मध्यस्थपन होने पर भी राशिकूट शुभदायक माना ॥ २८ ॥ राशियों के स्वामी
मेषादीशाः कुजः शुक्रो बुधश्चन्द्रो रविवुधः ।
शुक्रः कुजो गुरुर्मन्दो मन्दो जीव इति क्रमात् ॥ २६ ॥
मेषराशि का स्वामी मंगल, वृष का शुक्र, मिथुन का बुध, कर्क का चंद्रमा, सिंह का रवि, कन्या का बुध, तुला का शुक्र, वृश्चिक का मंगल, धन का गुरु, मकर का शनि, कुंभ का शनि और मिथुन का स्वामी गुरु है । इस प्रकार क्रम से बारह राशियों के स्वामी हैं ॥ २६ ॥
२४
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(१८६)
पास्तुलारे
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नाडी कूटज्येष्ठार्यम्णेशनीराधिपभयुगयुगं दास्रभं चैकनाडी,
पुष्येन्दुस्वाष्ट्रमित्रान्तकवसुजलभं योनिबुध्न्ये च मध्या। वाय्वग्निव्यालविश्वोडुयुगयुगमथो पोष्णभं चापरा स्याद्,
दम्पस्योरेकनाड्यां परिणयनमसन्मध्यनाड्यां हिमस्युः ॥३०॥ ज्येष्ठा, मूल, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, मार्दा, पुनर्वसु, शततारका, पूर्वाभाद्रपद और अश्विनी ये नव नक्षत्रों की आद्य नाडी है । पुष्य, मृगशिर, चित्रा, अनुराधा, भरणी, धनिष्ठा, पूर्वाषाढा, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराभाद्रपद ये नव नक्षत्रों की मध्य नाडी है । स्वाति, विशाखा, कृत्तिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, उत्तराषाढा, श्रवण और रेवती ये नव नक्षत्रों की अन्त्य नाडी है। वर वधू का एक नाडी में विवाह होना अशुभ है और मध्य की एक नाडी में विवाह हो तो मृत्युकारक है ॥ ३० ॥ नाडी फल
सुभमुहिसेवयसिस्सा घरपुरदेस मुह एगनाडीमा । कन्ना पुण परिणीधा हणइ पई ससुरं सासुं च ॥ ३१ ॥ एकनाडीस्थिता यत्र गुरुमन्त्रश्च देवताः । तत्र द्वेषं रुजं मृत्यु क्रमेण फलमादिशेत् । ३२ ॥
पुत्र, मित्र, सेवक, शिष्य, घर, पुर और देश ये एक नाडी में हों तो शुभ है। परन्तु कन्या का एक नाडी में विवाह किया जाय तो पति, श्वसुर और सासु का नाशकारक है। गुरु, मंत्र और देवता ये एक नाडी में हो तो शत्रुता, रोग और मृत्यु कारक हैं ॥ ३१ ॥ ३२॥ सारा बल
जनिभान्नवकेषु त्रिषु जनिकर्माधानसञ्जिताः प्रथमाः ।
ताभ्यस्त्रिपञ्चसप्तमताराः स्युन हि शभाः क्वचन ॥ ३३ ॥
जन्म नक्षत्र या नाम नक्षत्र से आरम्भ करके नव २ की तीन लाइन करनी । इन तीनों में प्रथम २ ताराओं के नाम क्रम से जन्मतारा, कर्मतारा और आधानतारा
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त्त ।
( १८७ )
जानना | इन तीनों नवकों में तीसरी, पांचवीं और सातवीं तारा कभी भी शुभ
नहीं है ॥ ३३ ॥
तारा यंत्र
जन्म १
कर्म १०
आधान १६
संपत् २ विपत् ३
35
११
,, २०
"
१२
२१
क्षेम ४
"
د.
१३
२२
यम ५ साधन ६ निधन ७
" १४
93
२३
:
"3
१५
,, २४
"
23
१६
२५
मंत्री
35
35
१७
२६
परम मैत्री
39
37
१८
इन ताराओं में प्रथम,
दूसरी और आठवीं तारा मध्यम फलदायक हैं । तीसरी, पांचवीं और सातवीं तारा प्रथम हैं तथा चौथी, छट्ठी और नववीं तारा श्रेष्ठ हैं । कहा है कि
२७
ऋक्षं न्यूनं तिथिर्न्यना क्षपानाथोऽपि चाष्टमः । तत्सर्वं शमयेत्तारा षट्चतुर्थनवस्थिताः ॥ ३४ ॥
नक्षत्र अशुभ हों, तिथि अशुभ हों और चंद्रमा भी आठवाँ अशुभ हो तो भी इन सब को छडी, चौथी और नववीं तारा हो तो दबा देती है || ३४ यात्रायुद्धविवाहेषु जन्मतारा न शोभना ।
शुभान्यशुभकार्येषु प्रवेशे च विशेषतः ॥ ३५ ॥
यात्रा, युद्ध और विवाह में जन्म की तारा अच्छी नहीं है, किंतु दूसरे शुभ कार्य में जन्म की तारा शुभ है और प्रवेश कार्य में तो विशेष करके शुभ है ॥ ३५ ॥
वर्ग बल
अकचटतपय वर्गाः खगेशमार्जारसिंहशूनाम् । सर्पामृगावीनां निजपञ्चमवैरिणामष्टौ || ३६ ||
वर्ग, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यवर्ग और शवर्ग ये आठ वर्ग हैं, उनके स्वामी - वर्ग का गरुड़, कवर्ग का बिलाव, चवर्ग का सिंह, टवर्ग का
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(१८)
वास्तुसारे श्वान, तवर्ग का सर्प, पवर्ग का उदुर, यवर्ग का हरिण और शवर्ग का मांढा (बकरा) है। इन वर्गों में अन्योऽन्य पांचवाँ वर्ग शत्रु होता है ॥ ३६ ॥
लेन देन का विचारनामादिवर्गाङ्कमथैकवर्ग, वर्णाङ्कमेव क्रमतोस्क्रमाच्च । न्यस्योभयोरष्टहृतावशिष्टे-ऽर्द्धिते विथोपाः प्रथमेन देयाः ॥ ३७॥
दोनों के नाम के आद्य अक्षरवाले वर्गों के अंकों को क्रम से समीप रख कर पीछे इसको आठ से भाग देना, जो शेष रहे उसका आधा करना, जो बचे उतने विश्वा प्रथम अंक के वर्गवाला दुसरे वर्ग वाले का करजदार है, ऐसा समझना । इस प्रकार वर्ग के अंकों को उत्क्रम से अर्थात् दूसरे वर्ग के अंक को पहला लिखकर पूर्ववत् क्रिया करना, दोनों में से जिनके विश्वा अधिक हो वह करजदार समझना ॥ ३७ ।।
उदाहरण-महावीर स्वामी और जिनदास इन दोनों के नाम के आद्य अक्षर के वर्गों को कम से लिखा तो ६३ हुए, इनको आठ से भाग दिया तो शेष ७ पचे, इनके आधे किये तो साढे तीन विश्वा बचे इसलिये महावीरदेव जिनदास का साढे तीन विश्वा करजदार है । अय उत्क्रम से वर्गों को लिखा तो ३६ हुए, इनको आठ से भाग दिया तो शेष चार बचे, इनके आधे किये तो दो विश्वा बचे. इसलिये जिनदास महावीर देव का दो विश्वा करजदार है । बचे हुए दोनों विश्वा में से अपना लेन देन निकाल लिया तो डेढ विश्वा महावीरदेव का अधिक रहा, इसलिये महावीरदेव डेढ विश्वा जिनदास के करजदार हुए । इसी प्रकार सर्वत्र लेन देन समझना।
योनि, गण, राशि, तारा शुद्धि और नाडीवेध ये पांच तो जन्म नक्षत्र से देखना चाहिये। यदि जन्म नक्षत्र मालूम न हो तो नाम नचत्र से देखना चाहिये । किन्तु वर्ग भैत्री और लेन देन तो प्रसिद्ध नाम के नक्षत्र से ही देखना चाहिये, ऐसा आरम्मसिद्धि ग्रंथ में कहा है ।
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(१८६)
प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त। राशि, योनि, नाडी, गण आदि जानने का शतपदचक्रनक्षत्र । भक्षर | राशि वर्श | वश्य | योनि |
संख्या
राशीश
गण
नाडी
अश्विनी
चू.च. चा.
मेष
| त्रिय | चतुष्पद
मंगल
EE
भरणी
मेष
।
पत्रिय
चतुष्पद
गज
मंगल
मनुष्य
मंगल
कृत्तिका
| |
मेष ३ वृष
त्रिय ३ वैश्व
चतुष्पद
बकरा
राक्षस
अंत्य
५/
| रोहिणी
|
वैश्य
चतुष्पद
सर्प
शुक्र
मनुष्य
२शक
मृगशिर
वे बो | २ वृष २ वैश्य २ चतुष्पद
की | २मिथुन | २शूद्र । २ मनुष्य
मनुष्य
वान
|
बुध
ध
मनुष्य
पुनर्वसु
३ बुध
के को. ३ मिथुन ३ शूद हा.ही. कर्क
|ब्राह्मण
३ मनुष्य जलचर
माजोर
१चंद्र
पुष्य
ब्राझए
जलचर
बकरा |
चंद्रमा
भाश्लेषा
ब्राह्मण
मार्जार
चंद्रमा
राक्षस
मा. मी.
मघा
पत्रिय
वनचर
चूहा
|
सूर्य
राक्षस अन्त्य
सिंह
पत्रिय
वनचर
मनुष्य
मध्य
2. टो.
१ त्रिय । वनचर ३ कन्या ३ वैश्य | ३ मनुष्य
|
सूर्य
| प्राध
का
र हस्त प.पा. कन्या | वैश्य । मनुष्य | मैंस | बुध | देव
पु.षा.
मनुष्य
प्राध
-
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________________
(११.)
वास्तुसारे ।
चित्रा
पे. पो | २ कन्या , २ वैश्य | श. री. २ तुला २ शूद
मनुष्य
वाघ
राक्षस मध्य
२ शुक्र
स्वाति
तुला
शूद्र
मनुष्य
भैंस
विशाखा
ती. तु. | ३ तुला | ३ शूद ते. तो १ वृश्चिक १ ब्राह्मण
३ मनुष्य कीडा
व्यात्र
राक्षस
१ मंगल
ना. नी.
अनुराधा
वृश्चिक
ब्राह्मण
कीडा
हीरण
मंगल
मध्य
_
वृश्चिक
ब्राह्मण
कीडा
राक्षस
_
यी. यु.
ये. यो.
मनुष्य
राक्षस
पूर्वाषाढा
धन
क्षत्रिय
मनुष्य चतुष्पद
बानर
मनुष्य | मध्य
उत्तराषाढा
भो जा जी.
धन |१क्षत्रिय ३ मकर ३ वैश्य
चतुष्पद -
न्यौला
३ शनि
श्रवण
मकर
वैश्य
चतुष्पद जलचर
वानर
शनि
धनिष्ठा
गा. गी. २ मकर | गु. गे| २ कुंभ
२ वैश्य | २ जलचर २ शूद | २ मनुष्य
सिंह
शनि
राक्षस
मध्य
गो. सा.
२५ शतभिषा
मनुष्य
घोडा
राक्षस
२५ पूर्वा भाद
से. सो.
दी.
३ कुंभ ३शूद मीन १ ब्राह्मण
३ मनुष्य जलचर
३शन ।
मनुष्य
२६ उत्तराभाद्र
मीन
ब्राह्मण
जलचर
मनुष्य | मध्य
२७/ रेवती
मीन
ब्राह्मया
जलचर
हाथी
चा. ची.
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________________
प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त।
(११) प्रतिष्ठा कगनेवाले के साथ तीर्थंकरों के राशि, गण, नाडी भादि का मिलान किया जाता है, इसलिये तीर्थंकरों के राशि आदि का स्वरूप नीचे लिखा जाता है । तीर्थकरों के जन्म नक्षत्रवैश्वी-ब्राह्म-मृगाः पुनर्वसु-मघा-चित्रा-विशाखास्तथा,
राधा-मूल-जलर्भ-विष्णु-वरुणो, भाद्रपादोत्तराः । पोष्णं पुष्य-यमक्ष दाहनयुताः पौष्णाश्विनी वैष्णवा,
___ दास्री स्वाष्ट्र-विशाखिकार्यमयुता जन्मक्षमालाहताम ॥३८॥
उत्तराषाढा १, रोहिणी २, मृगशिर ३, पुनर्वसु ४, मघा ५, चित्रा ६, विशाखा ७, अनुराधा ८, मूल ६, पूर्वाषाढा १०, श्रवण ११, शतभिषा १२, उत्तराभाद्रपद १३, रेवती १४, पुष्य १५, 'भरणी १६, कृत्तिका १७, रेवती १८, अश्विनी १६, श्रवण २०, अश्विनी २१, चित्रा २२, विशाखा २३ और उत्तराफाल्गुनी २४ ये तीर्थंकरों के क्रमशः जन्म नक्षत्र हैं ॥ ३८॥ तीर्थंकरों की जन्म राशिचापो गौर्मिथुनदयं मृगपतिः कन्या तुला वृश्चिक
श्वापश्चापमृगास्यकुम्भशफरा मत्स्यः कुलीरो हुडः । गौर्मीनो हुडरेणवक्त्रहुडकाः कन्या तुला कन्यका,
विज्ञेयाः क्रमतोऽहंतां मुनिजनैः सूत्रोदिता राशयः ॥३६ । ..धन १, वृषभ २, मिथुन ३, मिथुन ४, सिंह ५, कन्या ६, तुला ७, वृश्चिक ८, धन ६, धन १०, मकर ११, कुंभ १२, मीन १३, मीन १४, कर्क १५, मेष १६, वृषभ १७, मीन १८, मेष १६, मकर २०, मेष २१, कन्या २२, तुला २३ और कन्या २४ ये तीर्थकरों की क्रमशः जन्म राशि हैं ॥ ३६॥
. . इसी प्रकार तीर्थंकरों के नक्षत्र, राशि, योनि, गण, नाड़ी और वर्ग आदि को नीचे लिखे हुए जिनेश्वर के नक्षत्र आदि के चक्र से खुलासावार समझ लेना।
छपे हुए बृहद्धारणांयंत्र में तथा दिनशुद्धि दीपिका में श्री शान्तिनाथजी का 'अश्विनी नक्षत्र लिखा है यह भूत है, सर्वत्र त्रिषष्टी आदि ग्रंथों में भरणी नक्षत्र ही लिखा हुआ है।
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-
वास्तुबारे जिनेश्वर के नक्षत्रआदि जानने का चक्र
जिन नाम
नक्षत्र
योनि |
तारा
राशि
राशीश्वर नाही | वर्ग वर्गेश्वर
ऋषभदेव
उत्तराषाढा
नकुल
मनुष्य
गुरु
अंत्य
गरुड
अजितनाथ
रोहिणी
मनुष्य
।
१ गरुड
संभवनाथ
मृगशिर
___+
अभिनंदन
पुनर्वसु
त
बुध
प्राय
१ गरुड
सुमति
रासस
सत्य
पभप्रभ
चित्रा
व्याघ्र
राचस
कन्या
बुध
मध्य
सुपार्श्व
বিষাক্কা
ध्यान
राचस
मेष
चंदप्रभ
अनुराधा
हरिण
वृश्चिक
मंगल
मध्य
३ सिंह
सुविधि
श्वान
धन
भाग
मेष
शीतल
पूर्वाषाढा
वानर
ममुष्य
मध्य
८ मेष
श्रेयांस
श्रवर
वानर
मर
अंत्य
|
मेष
१२/ वासुपूज्य
शतभिषा
प्रश्व
शनि
.हरिण
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________________
१३ बिमल
१४
अनंत
१५ धर्मनाथ
१६ शान्तिनाथ
१ कुंघुनाथ
१८ अरनाथ
| २२ नेमिनाथ
२३ पार्श्वनाथ
૨૪
उत्तराभावपद
६ मल्लिनाथ अश्विनी
महावीर
रेवती
२० मुनिसुव्रत श्रवण
पुष्य
२१ नमिनाथ अश्विनी
२८
भरणी
कृत्तिका
रेवती
चित्रा
विशाखा
उत्तररा
फाल्गुनी
गौ
हस्ति
श्रज
हस्ति
श्रज
हस्ति
श्रश्व
वानर
अश्व
व्याघ्र
प्रतिष्ठादिक के मुह
गो
मनुष्य
देव
देव
मनुष्य
देव
देव
देव
देव
राक्षस
व्याघ्र राक्षस
ह
राक्षस ३ वृषभ
मनुष्य
IS
✔
ह
-
मीन
४
| $ ! |
मीन
मेष
मेष
मकर
मेष
कन्या
मीन गुरु
तुला
कन्या
गुरु
गुरु
चंद्रमा
मंगल
शुक्र
मंगल
शनि
मंगल
बुध
शुक्र
बुध
मध्य
संस्थ
मध्य
मध्य
अंत्य
अंत्य
श्राद्य
अत्य
साध
मध्य
श्रीय
श्राद्य
( १६३ )
७ हरिण
१ गरुड
२ सर्प
शेष
२ बाल
१ गरुड
६ उंदर
५
६ उंदर
५ सर्प
६ उदर
६ उंदर
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________________
-
(११४)
वास्तुसारे तिथि, वार और नक्षत्र के योग से शुभाशुभ योग होते हैं। उनमें प्रथम रविवार को शुभ योग बतलाते हैं
भानौ भूत्यै करादित्य-पौष्णब्राह्ममृगोत्तराः । पुष्यमूलाश्विवासव्य-श्चैकाष्टनवमी तिथिः ॥ ४० ॥
रविवार को हस्त, पुनर्वसु, रेवती, मृगशीर, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा. उत्तराभाद्रपदा, पुष्य, मूल, अश्विनी और धनिष्ठा इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र तथा प्रतिपदा, अष्टमी और नवमी इन तिथियों में से कोई तिथि हो तो शुभ योग होता है। उनमें तिथि और बार या नक्षत्र और वार ऐसे दो २ का योग हो तो द्विक शुभ योग, एवं तिथि वार और नक्षत्र इन तीनों का योग हो तो त्रिक शुभ योग समझना । इसी प्रकार अशुभ योगों में भी समझना ॥ ४० ॥ रविवार को अशुभ योग
न चार्के वारुणं याम्यं विशाखात्रितयं मघा । तिथिः षट्ससरुद्रार्क-मनुसंख्या तथेष्यते ॥ ४१ ॥
रविवार को शतभिषा, भरणी, विशाखा, अनुगधा, ज्येष्ठा और मघा इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र तथा छह, सातम, ग्यारस, बारस और चौदस इन तिथियों में से कोई तिथि हो तो अशुम योग होता है ।। ४१ ॥ सोमवार को शुभ योग
सोमे सिद्धथै मृगब्राह्म-मैत्राण्यार्यमणं करः ।
श्रुतिः शतभिषक् पुष्य-स्तिथिस्तु दिनवाभिधा ॥ ४२ ॥
सोमवार को मृगशीर, रोहिणी, अनुराधा, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, श्रवण, शतभिषा और पुष्य इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र तथा दूज या नवमी तिथि हो तो शुभ योग होता है ॥ ४२ ॥ सोमवार को अशुभ योग
न चन्द्रे वासवाषाढा-त्रयाद्रोश्विविदैवतम् । सिद्ध चित्रा च सप्तम्येकादश्यादित्रयं तथा ॥ ४३॥
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________________
प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त
( १६५) ____सोमवार को धनिष्ठा, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित् , आर्द्रा, अश्विनी, विशाखा और चित्रा इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र तथा सातम, ग्यारस, बारस और तेरस इन तिथियों में से कोई तिथि हो तो अशुभ योग होता है ॥ ४३ ।। मंगलवार को शुभ योग
भौमेऽश्विपौष्णाहिर्बुध्न्य-मूलराधार्यमाग्निभम् ।
मृगः पुष्यस्तथाश्लेषा जया षष्ठो च सिद्धये ॥ ४४ ॥
मंगलवार को अश्विनी, रेवती, उत्तराभाद्रपदा, मूल, विशाखा, उत्तराफाल्गुनी, कृत्तिका, मृगशीर, पुष्य और आश्लेषा इन नक्षत्रों में से कोई नक्षत्र तथा त्रीज, आठम, तेरस और छह इन तिथियों में से कोई तिथि हो तो शुभ योग होता है ॥४४॥ मंगलवार को अशुभ योग
न भोमे चोत्तराषाढा-मघावासवत्रयम् । . प्रतिपद्दशमी रुद्-प्रमिता च मता तिथिः ॥ ४५ ॥
मंगलवार को उत्तराषाढा, मघा, प्रार्दी, धनिष्ठा, शतभिषा और पूर्वाभाद्रपदा इनमें से कोई नक्षत्र तथा पडवा, दसम और ग्यारस इनमें से कोई तिथि हो तो अशुभ योग होता है ॥ ४५ ॥ बुधवार को शुभ योग
बुधे मैत्रं श्रुति ज्येष्ठा-पुष्यहस्ताग्निभत्रयम् । पूर्वाषाढार्यमर्वे च तिथिर्भद्रा च भूतये ॥ ४६ ।।
बुधवार को अनुराधा. श्रवण, ज्येष्ठा, पुष्य, हस्त, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर, पूर्वाषाढा और उत्तराफाल्गुनी इनमें से कोई नक्षत्र तथा दूज, सातम और बारस इनमें से कोई तिथि हो तो शुभ योग होता है ॥ ४६ ।।
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( १é६ )
बुधवार को अशुभ योग
न बुधे वासवाश्लेषा रेवतीत्रयवारुणम् ।
चित्रामूलं तिथिश्चेष्टा जयकेन्द्रनवाङ्किता ॥ ४७ ॥
बुधवार को धनिष्ठा, आश्लेषा, रेवती, अश्विनी, भरणी, शतभिषा, चित्रा मूल इनमें से कोई नक्षत्र तथा तीज, आठम, तेरस, पडवा, चौदस और नवमी इनमें से कोई तिथि हो तो अशुभ योग होता है ॥ ४७ ॥
गुरुवार को शुभ योग -
गुरौ पुष्याश्विनादित्य-पूर्वाश्लेषाश्च वासवम् ।
पौष्णं स्वातित्रयं सिद्धचै पूर्णाश्चैकादशी तथा ॥ ४८ ॥
गुरुवार को पुष्य, अश्विनी, पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा, आश्लेषा, धनिष्ठा, रेवती, स्वाति, विशाखा और अनुराधा इनमें से कोई नक्षत्र तथा पांचम, दम, पूर्णिमा या एकादशी तिथि हो तो शुभ योग होता है ॥ ४८ ॥
गुरुवार को अशुभ योग
वास्तुसारे
न गुरौ वारुणाग्नेय चतुष्कार्यमणद्वयम् ।
ज्येष्ठा भूयै तथा भद्रा तुर्या षव्यष्टमी तिथिः ॥ ४६ ॥
गुरुवार को शतभिषा, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर, आर्द्रा, उत्तराफाल्गुनी,
हस्त और ज्येष्ठ। इनमें से कोई नक्षत्र तथा दूज, सातम, बारस, चौथ, छह और इनमें से कोई तिथि हो तो अशुभ योग होता है ॥ ४६ ॥
शुक्रवार को शुभयोग
शुक्रे पौष्णाश्विनाषाढा मैत्रं मार्ग श्रुतिद्वयम् । यौनादित्ये करो नन्दात्रयोदश्यौ च सिद्धये ॥ ५० ॥
शुक्रवार को रेवती, अश्विनी, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अनुराधा, मृगशीर, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाफाल्गुनी, पुनर्वसु और हस्त इन नक्षत्रों में से कोई नचत्र तथा छह, ग्यारस और तेरस इनमें से कोई तिथि हो तो शुभ योग होता है ॥ ५० ॥
एकम,
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त
( १९७) शुक्रवार को अशुभ योग
न शुक्रे भूतये ब्राम पुष्यं सापै मघाभिजित् ।
ज्येष्ठा च द्वित्रिसप्तम्यो रिक्ताख्यास्तिथयस्तथा ॥ ११ ॥
शुक्रवार को रोहिणी, पुष्य, आश्लेषा, मघा, अभिजित् और ज्येष्ठा इनमें से कोई नक्षत्र तथा दून, त्रीज, सातम, चौथ, नवमी और चौदस इनमें से कोई तिथि हो तो अशुभ योग होता है ॥ ५१॥ - शनिवार को शुभ योग
शनी ब्राह्मश्रुतिद्वन्द्वा-श्चिमरुद्गुरुमित्रभम् ।
मघा शतभिषक् सिद्धयै रिक्ताष्टम्यौ तिथी तथा ॥ ५२ ॥
शनिवार को रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा, अश्विनी, खाति, पुष्य, अनुराधा मघा और शतभिषा इनमें से कोई नक्षत्र तथा चौथ, नवमी, चौदस और अष्टमी इनमें से कोई तिथि हो तो शुभ योग होता है ॥ ५२ ॥ शनिवार को अशुभ योग
न शनौ रेवती सिद्धथै वैश्वमार्यमणत्रयम् ।
पूर्वागश्च पूर्णाख्या तिथिः षष्ठी च सप्तमी ॥ ५३॥
शनिवार को रेवती, उत्तराषाढा, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा और मृगशीर इनमें से कोई नक्षत्र तथा पांचम, दसम, पूनम, छट्ठ और सातम इनमें से कोई तिथि हो तो अशुभ योग होता है ॥ ५३ ॥
उक्त सात वारों के शुभाशुभ योगों में सिद्धि, अमृतसिद्धि आदि शुभ योगों का तथा उत्पात, मृत्यु आदि अशुभ योगों का समावेश हो गया है, उनको पृथक् २ संज्ञा पूर्वक जानने के लिये नीचे लिखे हुए यंत्र में देखो।
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(१९)
पास्तुसारे
शुभाशुभ योग चक्र
योग | रवि | सोम | मंगल बुध | गुरु | शुक्र | शनि चरयोग | | भाद्री विशाखा रोहिणी शतभिषा, मघा | मूल करच योग | १२ ति "ति. | ३० ति | ति / ८ ति | ७
तिति दग्ध योग | २ ति. ति. | ५ ति | ३ ति. | ६ ति. ८ ति. | ति. विषाख्य योग । ति. | ६ ति • ति. | २ ति. | ८ ति. | ९ ति | . ति. हुताशन योग १२ ति | ६ ति | . ति | ८ ति | ति ..ति...ति | यमघट योग | मघा | विशाखा | पार्दा । मूल | कृत्तिका रोहिणी | हस्त दग्ध योग | भरणी | चित्रा | उ पा. | धनिष्ठा | इ. फा | ज्येष्ठा | रेवती उत्पात विशाखा पूर्वाषाढा| धनिष्ठा | रेवती रोहिणी | पुष्य उ० फा. मृत्यु अमुराधा उत्तराषाढा शतभिषा अश्विनी | मृगशीर | आश्लेषा | हस्त काण | ज्येष्ठा प्राभजित् पू. भा | भरणी | पार्दा | मघा | चित्रा सिद्धि | मूल. | श्रवण | उ. भा. | कृत्तिका | पुनर्वसु | पू. फा. | स्वाति
स
ह . मू. श्र. रो. | अश्विनी. रो. अन्. रे. अन | रे. अन. श्रवण
"| उत्तरा ३. मृ.अनु. उभा. ह. कृ. अश्विनी भावनी रोहिणी योग
पुष्य.अश्वि. पुष्य कृ. प्रा. मृगशिरा पुष्य. पुन पुन. श्र. | स्वाति
अमृत सिद्धि हस्त मृगशिर | अश्विनी अनुराधा पुष्य । रेवती | रोहिणी वज्रमुसल | भरणी | चित्रा | उ. पा. | धनिष्ठा | उ. फा. ज्येष्ठा | रेवती | शत्रुयोग भरणी । पुष्य | उ. पा. | मार्दा विशाखा रेवती | शतभिष
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प्रतिदिक के मुहूर्त
(११) रवियोगयोगो रवे त् कृत४ तर्क नन्द :
दिग्१० विश्व १३ विंशोडषु सर्वसिद्धचै । भाये १ न्द्रिया५ श्व७ द्विपद रुद्र ११ सारी १५
राजो१६ डुषु प्राणहरस्तु हेयः ।। ५४ ॥ सूर्य जिस नक्षत्र पर हो, उस नक्षत्र से दिन का नक्षत्र चौथा, छट्ठा, नववा, दसवाँ, तेरहवाँ या बीसवाँ हो तो रवियोग होता है, यह सब प्रकार से सिद्धिकारक हैं। परन्तु सूर्य नक्षत्र से दिन का नक्षत्र पहला, पांचवाँ, सातवाँ, आठवाँ, ग्यारहवाँ पंद्रहवाँ या सोलहवाँ हो तो यह योग प्राण का नाशकारक है ।। ५४ ॥ कुमारयोग
योगः कुमारनामा शुभः कुजज्ञेन्दुशुक्रवारेषु ।
अश्वायैवय॑न्तरिते-नन्दादशपञ्चमीतिथिषु ।। ५५ ।।
मंगल, बुध, सोम और शुक्र इनमें से कोई एक वार को अश्विनी श्रादि दो २ अंतरवाले नक्षत्र हो अर्थात् अश्विनी, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, हस्त, विशाखा, मूल, श्रवण और पूर्वाभाद्रपद इनमें से कोई एक नक्षत्र हो; तथा एकम, छह, ग्यारस, दसम और पांचम इनमें से कोई एक तिथि हो तो कुमार नाम का शुभ योग होता है। यह योग मित्रता, दीक्षा, व्रत. विघा, गृह प्रवेशादिक कार्यों में शुभ है । परन्तु मंगलवार को दसम या पूर्वाभाद्र नक्षत्र, सोमवार को ग्यारस या विशाखा नक्षत्र, बुधवार को पडवा या मूल या अश्विनी नक्षत्र, शुक्रवार को दमम या रोहिणी नक्षत्र हो तो उस दिन कुमार योग होने पर भी शुभ कारक नहीं है। क्योंकि इन दिनों में कर्क, संवर्तक, काण, यमघंट आदि अशुभ योग की उत्पति है, इसलिये रन विरुद्ध योगों को छोड़कर कुमार योग में कार्य करना चाहिये ऐसा श्रीहरिमद्रसरि कृत लमशुद्धि प्रकरण में कहा है ॥ ५५ ॥
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वास्तुलारे
राजयोग
राजयोगो भरण्यायै-बर्थन्तरै|ः शुभावहः ।
भद्रातृतीयाराकासु कुजज्ञभृगुभानुषु ॥ ५६ ॥
मंगल, बुध, शुक्र और रवि इनमें से कोई एक वार को भरणी आदि दो २ अंतरवाले नक्षत्र हो अर्थात् भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढा, धनिष्ठा और उत्तराभाद्रपदा इनमें से कोई नक्षत्र हो तथा दूज, सातम, बारस, तीज और पूनम इनमें से कोई तिथि हो तो राजयोग नाम का शुभ कारक योग होता है। इस योग को पूर्णभद्राचार्य ने तरुण योग कहा है ॥ ५६ ॥ स्थिर योग
स्थिरयोगः शुभो रोगो-च्छेदादौ शनिजीवयोः ।
त्रयोदश्यष्टरिक्तासु व्यन्तः कृत्तिकादिभिः॥ ५७ ॥
गुरुवार या शनिवार को तेरस, अष्टमी, चौथ, नवमी और चौदस इनमें से कोई तिथि हो तथा कृत्तिका आदि दो २ अंतरवाले नक्षत्र हों अर्थात् कृत्तिका, आर्द्रा,
आश्लेषा, उत्तराफाल्गुनी, स्वाति, ज्येष्ठा, उत्तराषाढा, शतभिषा और रेवती इनमें से कोई नक्षत्र हो तो रोग आदि के विच्छेद में शुभकारक ऐसा स्थिरयोग होता है। इस योग में स्थिर कार्य करना अच्छा है ॥ ५७ ॥ वज्रपात योग
वज्रपातं त्यजेद् द्वित्रिपञ्चषट्सप्तमे तिथौ। मैत्रेऽथ त्र्युत्तरे पैञ्ये ब्राले मूखकरे क्रमात् ।। ५८ ॥
दूज को अनुराधा, तीज को तीनों उत्तरा (उत्तग फाल्गुनी, उत्तराषाढा या उत्तराभाद्रपदा), पंचमी को मघा, छह को रोहिणी और सातम को मूल या हस्त नक्षत्र हो तो वज्रपात नाम का योग होता है । यह योग शुभकार्य में वर्जनीय है। नारचंद्र टिप्पन में तेरस को चित्रा या स्वाति, सातम को भरणी, नवमी को पुष्य और दसमी को आश्लेषा नक्षत्र हो तो वज्रपात योग माना है । इस वज्रपात योग में शुभ कार्य करें तो छ: मास में कार्य करनेवाले की मृत्यु होती है, ऐसा हर्षप्रकाश में कहा है ॥ ५५॥
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त
(२०१) कालमुखी योग
चउरुत्तर पंचमघा कत्तिम नवमीइ तइम अणुराहा ।
भट्ठमि रोहिणि सहिमा कालमुही जोगि मास छगि मच ॥ ५६ ।।
चौथ को तीनों उत्तरा, पंचमी को भघा, नवमी को कृत्तिका, तीज को अनुराधा और अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र हो तो काल मुखी नाम का योग होता है । इस योग में कार्य करनेवाले की छ: मास में मृत्यु होती है ॥ ५९॥ यमल और त्रिपुष्कर योग
मंगल गुरु सणि भद्दा मिगचित्त धणिट्ठिा जमलजोगो।
कित्ति पुण उ-फ विसाहा पू-भ उ-खाहिं तिपुक्करो ॥ ६०॥
मंगल, गुरु या शनिवार को भद्रा (२-७-१२) तिथि हो या मृगशिर, चित्रा या धनिष्ठा नक्षत्र हो तो यमल योग होता है । तथा उस वार को और उसी तिथि को कृत्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, पूर्वाभाद्रपदा या उत्तराषाढा नक्षत्र हो तो त्रिपुष्कर योग होता है ॥ ६० ॥ पंचक योग
पंचग धणि? अद्वा मयकियवजिज जामदिसिगमणं । एसु तिसु सुहं असुहं विहिबंदु ति पण गुणं होह ॥ ६१ ॥
धनिष्ठा नक्षत्र के उत्तरार्द्ध से रेवती नक्षत्र तक (ध-श-पू-उ-रे) पांच नक्षत्र की पंचक संज्ञा है । इस योग में मृतक कार्य और दक्षिण दिशा में गमन नहीं करना चाहिये । उक्त तीनों योगों में जो शुभ या अशुभ कार्य किया जाय तो कम से दना, तीगुना और पंचगुना होता है ॥ ६१ ॥ अबला योग
कृत्तिमपभिई चउरो सणि घुहि ससि सूर वार जुत्त कमा । पंचमि षिइ एगारसि बारसि भबला सुहे कज्जे ॥१२॥
कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिर और आर्द्रा नक्षत्र के दिन क्रमशः शनि, बुध, सोम और रविवार हो तथा पंचमी, दूज, ग्यारस और बारस तिथि हो तो अबला नाम
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वास्तुसारे का योग होता है । अर्थात् कृत्तिका नक्षत्र, शनिवार और पंचमी तिथि; गहिणी नक्षत्र, बुधवार और दूज तिथि; मृगशिर नक्षत्र, सोमवार और एकादशी तिथि; आदो नक्षत्र रविवार और बारस तिथि हो तो अबला योग होता है। यह शुभ कार्य में वर्जनीय है ॥ ६२॥ तिथि और नक्षत्र से मृत्यु योग
मूलद्दसाइचित्ता असेस सयभिसयकत्तिरेवहा । नंदाए भद्दाए भद्दवया फग्गुणी दो दो ॥ ६३ ॥ विजयाए मिगसवणा पुस्सऽस्सिणिभरणिजिट्ट रित्ताए । आसाढदुग विसाहा अणुराह पुणव्वसु महा य ।। ६४ ॥ पुन्नाइ कर धणिहा रोहिणि इअमयगऽवस्थनक्खत्ता ।
नंदिपइहापमुहे सुहकजे वजए मइमं । ६५ ॥
नंदा तिथि (१-६-११) को मूल, आर्द्रा, स्वाति चित्रा, आश्लेषा, शतभिषा, कृत्तिका या रेवती नक्षत्र हो, भर्दा तिथि ( २-७-१२) को पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो, जया तिथि ( ३-८-१३) को मृगशिर, श्रवण, पुष्य, अश्विनी, भरणी या ज्येष्ठा नक्षत्र हो, रिक्ता तिथि (४.६-१४) को पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, विशाखा, अणुराधा, पुनर्वसु या मघा नक्षत्र हो, पूर्णा तिथि (५-१०-१५ ) को हस्त, धनिष्ठा या रोहिणी नक्षत्र हो तो ये सब नक्षत्र मृतक अवस्थावाले कहे जाते हैं । इसलिये इनमें नंदी, प्रतिष्ठा आदि शुभ काय करना मतिमान् छोड़ दें ॥ ६३ से ६५ ॥ अशुभ योगों का परिहार
कुयोगास्तिथिवारोत्था स्तिथिभोत्था भवारजाः ।
हूणबंगखशेष्वेव वास्त्रितयजास्तथा ॥ ६६ ॥
तिथि और वार के योग से, तिथि और नक्षत्र के योग से, नक्षत्र और वार के योग से तथा तिथि नक्षत्र और वार इन तीनों के योग से जो अशुभ योग होते हैं, वे सब हूण ( उडीसा ), बङ्ग ( बंगाल ) और खश ( नैपाल) देश में वर्जनीय हैं। अन्य देशों में वर्जनीय नहीं हैं ॥ ६६ ॥
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त
(२०१) रविजोग राजजोगे कुमारजोगे असुद्ध दिअहे वि ।
जं सुहकजं कीरइ तं सव्वं बहुफलं होइ ॥ ६७ ॥
अशुभ योग के दिन यदि रवियोग, राजयोग या कुमारयोग हो तो उस दिन जो शुभ कार्य किये जाय वे सब बहुत फलदायक होते हैं ॥ ६७ ॥
अयोगे सुयोगोऽपि चेत् स्यात् तदानी
मयोगं निहत्यैष सिद्धिं तनोति । परे लग्नशुद्धया कुयोगादिनाशं,
दिनाङ्केत्तरं विष्टिपूर्व च शस्तम् ॥ ६८॥ अशुभ योग के दिन यदि शुभ योग हो तो वह अशुभ यांग को नाश करके सिद्धि कारक होता है। कितनेक आचार्य कहते हैं कि लगशुद्धि से कुयोगों का नाश होता है । भद्रातिथि दिना के बाद शुभ होती है ॥ ६८ ॥
कुतिहि-कुवार-कुजोगा विट्ठी वि अ जम्मरिक्ख दतिही।
मज्झएहदिणाओ परं सव्वंपि सुभं भवेवस्सं ॥६॥
दुष्टतिथि, दुष्टवार, दुष्टयोग, विष्टि (भद्रा), जन्मनक्षत्र और दग्धतिथि ये सब मध्याह्न के बाद अवश्य करके शुभ होते हैं ।। ६६ ॥
प्रयोगास्तिथिवारक्ष-जाता येऽमी प्रकीर्तिताः । लग्ने ग्रहबलोपेते प्रभवन्ति न ते क्वचित् ॥ ७० ॥ यत्र खग्नं विना कर्म क्रियते शुभसञ्ज्ञकम् । ततेषां हि योगानां प्रभावाजायते फलम् ॥ ७१ ॥
तिथि वार और नक्षत्रों से उत्पन्न होने वाले जो कुयोग कहे हुए हैं, वे सब बलवान ग्रह युक्त लग्न में कभी भी समर्थ नहीं होते हैं अर्थात् लग्नबल अच्छा हो तो कुयोगों का दोष नहीं होता। जहां लम बिना ही शुभ कार्य करने में आवे वहां ही उन योगों के प्रभाव से फल होता है ।। ७०-७१ ॥ लम विचार
लग्नं श्रेष्ठं प्रतिष्ठायां क्रमान्मध्यमथावरम् । व्यङ्गं स्थिरं च भूयोभि-गुणैराख्यं चरं तथा ॥७२॥
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( २०४ )
वास्तुसारे जिनदेव की प्रतिष्ठा में द्विस्वभाव लग्न श्रेष्ठ है, स्थिर लग्न मध्यम और चर लग्न कनिष्ठ है। यदि चर लग्न अत्यंत बलवान शुभ ग्रहों से युक्त हो तो ग्रहण कर सकते हैं ॥७२॥
द्विस्वभाव मिथुन ३ कन्या ६ धन ९ मीन १२ उत्तम
स्थिर
वृष २
सिंह ५ वृश्चिक ८ कुंभ ११ मध्यम
चर
मेष १ | कर्क ४ ' तुला ७ मकर १०
अधम
सिंहोदये दिनकरो घटभे विधाता,
नारायणस्तु युवतौ मिथुने महेशः । देव्यो द्विमूर्तिभवनेषु निवेशनीयाः,
क्षुद्राश्चरे स्थिरगृहे निखिलाश्च देवाः ॥ ७३ ॥ सिंह लग्न में सूर्य की, कुंभ लग्न में ब्रह्मा की, कन्या लग्न में नारायण (विष्णु) की, मिथुन लग्न में महादेव की, द्विस्वभाववाले लग्न में देवियों की, चर लग्न में क्षुद्र (व्यतर आदि ) देवों की और स्थिर लग्न में समस्त देवों की प्रतिष्ठा करनी चाहो ॥ ७३ ॥ श्रीलल्लाचार्य ने तो इस प्रकार कहा है
सौम्यैर्देवाः स्थाप्याः क्रूरैगन्धवपक्षरक्षांसि ।
गणपतिगणांश्च नियतं कुर्यात् साधारणे लग्ने ।। ७४ ॥
सौम्य ग्रहों के लग्न में देवों की स्थापना करनी और कर ग्रहों के लग्न में गन्धर्व, यक्ष और राक्षस इनकी स्थापना करनी तथा गणपति और गणों की स्थापना साधारण लग्न में करनी चाहिये ॥ ७४ ॥
____ लग्न में ग्रहों का होरा नवमांशादिक बल देखा जाता है, इसलिये प्रसंगोपात यहां लिखता हूँ। प्रारम्भसिद्धिवार्तिक में कहा है कि-तिथि आदि के बल से चंद्रमा
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त
(२०५) का बल सौ गुणा है, चंद्रमा से लग्न का बल हजार गुणा है और लग्न से होरा आदि पवर्ग का बल उत्तरोत्तर पांच २ गुणा अधिक बलवान् है। होरा और द्रेष्काण का स्वरूप
होरा राश्यर्द्धमोजऽर्केन्द्रोरिन्धर्कयोः समे ।
द्रेष्काणा भे त्रयस्तु स्व-पञ्चम-त्रित्रिकोणपाः ॥ ७५ ॥
राशि के अर्द्ध भाग को होरा कहते हैं, इसलिये प्रत्येक राशि में दो दो हारो हैं। मेष आदि विषम राशि में प्रथम होरा रवि की और दूसरी चंद्रमा की है। वृष आदि सम राशि में प्रथम होरा चंद्रमा की और दूसरी होरा सूर्य की है।
प्रत्येक राशि में तीन२ द्रेष्काण हैं, उनमें जो अपनी राशि का स्वामी है वह प्रथम द्रेष्काण का स्वामी है। अपनी राशि से पांचवी राशि का जो स्वामी है वह दूसरे द्रेष्काण का स्वामी है और अपनी राशि से नववीं राशि का जो स्वामी है वह तीसरे द्रेष्काण का स्वामी है ॥ ७५॥ नवमांश का स्वरूप
नांशाः स्युरजादीना-मजेणतुलकर्कतः । वर्गोत्तमाश्चरादौ ते प्रथमः पञ्चमोऽन्तिमः ॥ ७६ ॥
प्रत्येक राशि में नव२ नवमांश हैं। मेष राशि में प्रथम नवमांश मेष का, दसरा वृष का, तीसरा मिथुन का, चौथा कर्क का, पांचवां सिंह का, छट्ठा कन्या का, सातवां तुला का, आठवां वृश्चिक का और नवां धन का है। इसी प्रकार वृष राशि में प्रथम नवमांश मकर से, मिथुन राशि में प्रथम नवमांश तुला से, कर्कराशि में प्रथम नवमांश कर्क से गिनना । इसी प्रकार सिंह और धनराशि के नवमांश मेष की तरह, कन्या और मकर का नवमांश वृष की तरह, तुला और कुंभ का नवमांश मिथुन की तरह, वृश्चिक और मीन का नवमांश कर्क की तरह जानना।
चर राशियों में प्रथम नवमांश वर्गोत्तम, स्थिर राशियों में पांचवाँ नवमांश और द्विस्वभाव राशियों में नववा नवमांश वर्गोत्तम है । अर्थात् सब राशियों में अपनार नवमांश वर्गोत्तम है ॥ ७६ ॥
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( २०६ )
वस्तुसारे
प्रतिष्ठा विवाह आदि में नवमांश की प्राधान्यता है। कहा है कि
लग्ने शुभेऽपि यद्यंशः क्रूरः स्यान्नेष्टसिद्धिदः ।
बग्ने क्रूरेऽपि सौम्यांशः शुभदोंऽशो बस्ती यतः ॥ ७७ ॥
लग्न शुभ होने पर भी यदि नवमांश क्रूर हो तो इष्टसिद्धि नहीं करता है । और लग्न कर होने पर भी नवमांश शुभ हो तो शुभकारक है, कारण कि अंश ही
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बलवान् है । क्रूर अंश में रहा हुआ शुभ ग्रह भी क्रूर होता है और शुभ अंश में रहा हुआ क्रूर ग्रह शुभ होता है। इसलिये नवमांश की शुद्धि अवश्य देखना चाहिये ।। ७७ ।।
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प्रतिष्ठा में शुभाशुभ नवमांश
शास्तु मिथुन: कन्या धन्याद्यार्द्ध च शोभनाः ।
प्रतिष्ठायां वृषः सिंहो वणिग् मीनश्च मध्यमाः ॥ ७८ ॥
प्रतिष्ठा में मिथुन, कन्या और धन का पूर्वार्द्ध इतने अंश उत्तम हैं । तथा वृष, सिंह, तुला और मीन इतने अंश मध्यम हैं ॥ ७८ ॥
द्वादशांश और त्रिंशांश का स्वरूप
स्युर्द्वादशांशाः स्वगृहादपेशा- त्रिंशांशकेष्वोजयुजोस्तु राज्योः । क्रमोत्क्रमादर्थ-शरा-ष्ट-शैले-न्द्रियेषु भौमार्किगुरुज्ञशुक्राः ॥ ७६ ॥ प्रत्येक राशि में बारह २ द्वादशांश हैं । जिस नाम की राशि हो उसी राशि का प्रथम द्वादशांश और बाकी के ग्यारह द्वादशांश उसके पीछे की क्रमशः ग्यारह राशियों के नाम का जानना । इन द्वादशांशों के स्वामी राशियों के जो स्वामी हैं वे हीं हैं ।
प्रत्येक राशि में तीस त्रिंशांश हैं। इनमें मेष, मिथुन आदि विषम राशि के पांच, पांच, आठ, सात और पांच अंशों के स्वामी क्रम से मंगल, शनि, गुरु, बुध और शुक्र हैं । वृष आदि सम राशि के त्रिंशांश और उनके स्वामी भी उत्क्रम से जानमा, अर्थात् पांच, सात, आठ, पांच और पांच त्रिंशांशों के स्वामी क्रम से शुक्र, बुध, गुरु, शनि और मंगल हैं ॥ ७६ ॥
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राशि राशि स्वामी
मेष
वृष
कन्या
तुला
बुध
मैं मैं मैं ये
चंद्र
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वृश्चिक मंगल
शनि
गुरु
षड्वर्ग की स्थापना का यंत्र -
छोरा
रवि चंद्र मंगल रवि गुरु
रवि चंद्र बुध
चंद्र रवि शुक्र बुध शनि
चंद्र रवि
द्रेष्काणेश
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रवि चंद्र शुक्र शनि बुध
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रवि चंद्र रवि गुरु मंगल मं शु बु चं र बु शु मं गु र बु शु मं गु श श गु मं शु बु चं
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(१००)
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(२००)
: पास्तुसारे लग्न कुण्डली में चंद्रमा का बल अवश्य देखना चाहिये। कहा है कि
लग्नं देहः षट्कवर्गोऽङ्गकानि, प्राणश्चन्द्रो धातवः खेचरेन्द्राः । प्राणे नष्टे देहधात्वगनाशो, यत्नेनातश्चन्द्रवीर्य प्रकल्प्यम् ।। ८० ।।
लग्न शरीर है, षड्वर्ग ये अंग हैं, चन्द्रमा प्राण है और अन्य ग्रह सप्त धातु हैं। प्राण का विनाश हो जाने से शरीर, अंगोपांग और धातु का भी विनाश हो जाता है। इसलिये प्राणरूप चन्द्रमा का बल अवश्य लेना चाहिये ॥८॥ लग्न में सप्तम आदि स्थान की शुद्धि
रविः कुजोऽर्कजो राहुः शुक्रो वा सप्तमस्थितः ।
हन्ति स्थापककर्तारौ स्थाप्यमप्यविलम्बितम् ॥१॥
रवि, मंगल, शनि, राहु या शुक्र यदि सप्तम स्थान में रहा हो तो स्थापन करानेवाले गुरु का और करनेवाले गृहस्थ का तथा प्रतिमा का भी शीघ्र ही विनाश कारक है ॥ ८१ ॥
त्याज्या लग्नेऽब्धयो मन्दात् षष्ठे शुक्रन्दुलग्नपाः ।
रन्ध्र चन्द्रादयः पञ्च सर्वेऽस्तेऽब्जगरू समौ । ८२ ।।
लग्न में शनि, रवि, सोम या मंगल, छठे स्थान में शुक्र, चन्द्रमा या लग्न का स्वामी, आठवें स्थान में चंद्र, मंगल, बुध, गुरु या शुक्र वर्जनीय है तथा सप्तम स्थान में कोई भी ग्रह हो तो अच्छा नहीं हैं। किन्तु कितनेक आचार्यों का मत है कि चन्द्रमा या गुरु सातवें स्थान में हों तो मध्यम फलदायक है ।। ८२ ॥ प्रतिष्ठा कुण्डली में ग्रह स्थापनाप्रतिष्ठायां श्रेष्ठो रविरुपचये शीतकिरणः ,
स्वधर्मात्ये तत्र क्षितिजरविजो त्र्यायरिपुगौ। बुधस्वाचायौँ व्ययनिधनवौं भृगुसुतः ,
सुतं यावल्लग्नान्नवमदशमायेष्वपि तथा ॥८३ ।। प्रतिष्ठा के समय लग्न कुण्डली में सूर्य यदि उपचय (३-६-१०-११) स्थान में रहा हो तो श्रेष्ठ है। चन्द्रमा धन और धर्म स्थान सहित पूर्वोक्त स्थानों में
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त
( २०६ )
(२-३-६-६-१०-११) रहा ह तो श्रेष्ठ है । मंगल और शनि तीसरे, ग्यारहवें और द्वे स्थान में रहे हों तो श्रेष्ठ हैं। बुध और गुरु बारहवें और आठवें इन दोनों स्थानों को छोड़कर बाकी कोई भी स्थान में रहे हों ता अच्छे हैं, शुक्र लग्न से पांचवें स्थान तक (१-२-३-४-५ ) तथा नवम, दसम और ग्यारहवाँ इन स्थानों में रहा हो तो श्रेष्ठ है ॥ ८३ ॥
लग्नमृत्युसुतास्तेषु पापा रन्ध्रे शुभाः स्थिताः ।
त्याज्या देवप्रतिष्ठायां लग्नषष्ठाष्टगः शशी ॥ ८४ ॥
पापग्रह (रवि मंगल, शनि, राहु और केतु) यदि पहले, आठवें, पांचवें और सातवें स्थान में रह हो, शुभग्रह आठवें स्थान में रहे हों और चन्द्रमा पहले, छट्ठे या आठवें स्थान में रहा हो, इस प्रकार कुण्डली में ग्रह स्थापना हो तो वह लग्न देव की प्रतिष्ठा में त्याग करने योग्य है ।। ८४ ।।
नारचंद्र में कहा है कि
त्रिरिपा १ वासुतखे २ स्वत्रिकोणकेन्द्र ३ विरैस्मरेत्राग्न्यर्थे ५ | लाभेद क्रूर' बुधा २ चिंत३ भृग४ शशि५ सर्वे ६ क्रमेण शुभाः ॥ ८५ ।
क्रूग्रह तीसरे और छट्ठे स्थान में शुभ हैं, बुध पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पांच या दसवें स्थान में रहा हो तो शुभ है । गुरु दूसरे, पांचवें, नववें और केन्द्र ( १-२-३-४) स्थान में शुभ है। शुक्र (E-५-१-४-१० ) इन पांच स्थानों में शुभ है । चन्द्रमा दुमरे और तीसरे स्थान में शुभ और समस्त ग्रह ग्यारहवें स्थान में शुभ हैं ॥ ८५ ॥
ash: केन्द्रारिधर्मेषु शशी ज्ञोऽरिन वास्तगः ।
षष्ठेज्य स्वनिगः शुक्रो मध्यमाः स्थापना दो || ८६ ॥ नरेन्द्रर्काः सुतेऽस्तारिरिष्फे शुक्रस्त्रिगो गुरुः । विमध्यमाः शनिर्धीखे सर्वे शेषेषु निन्दिताः ॥ ८७ । दसवें स्थान में रहा हुआ सूर्य, केन्द्र (१-४-७-१०), अरि ( ६ ) और धर्म
( ६ ) स्थान में रहा हुआ चंद्र, छट्ठे, सातवें और नववें स्थान में रहा हुआ बुध, बड़े स्थान में गुरु, दूसरे व तीसरे स्थान में शुक्र हो तो प्रतिष्ठा के समय में मध्यम फलदायक है ।
२७
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(२१ )
वास्तुलारे मंगल, चंद्र और सूर्य पांचवें स्थान में, शुक्र छटे, सातवें या बारहवें स्थाने में, गुरु तीसरे स्थान में, शनि पांचवें या दसवें स्थान में हो तो विमध्यम फलदायक है। इनके सिवाय दूसरे स्थानों में सब ग्रह अधम हैं ।। ८६-८७ ।।
प्रतिष्ठा में ग्रह स्थापना यंत्र
वार
उत्तम
____ मध्यम
विमध्यम
अधम
१-२-४-७.८.६-१२
२.३-११
८ १२
१.२-३-४.५.१०.११
१-२-४-७-८-६ १०-१२
८-१२ ८.१२
१२-४-१-६-७-१०-११
१.४-५-६-१०-११
३.६-११
१.२.४.७८.१-१२
२-४-५-८६-१०-१२
जिनदेव प्रतिष्ठा मुहूर्त्त
बलवति सूर्यस्य सुते बलहीनेऽङ्गारके षुधे चैव ।
मेषवृषस्थे सूर्ये क्षपाकरे चाहती स्थाप्या ॥८॥
शनि बलवान् हो, मंगल और बुध बलहीन हों तथा मेष और वृष राशि में सूर्य और चन्द्रमा रहे हों तब अरिहंत (जिनदेव ) की प्रतिमा स्थापन करना चाहिये ॥ ८८॥ __महादेव प्रतिष्ठा मुहूर्त्त
बलहीने त्रिदशगुरौ पलवति भौमे त्रिकोणसंस्थे वा । असुरगुरौ चायस्थे महेश्वरार्चा प्रतिष्ठाप्या ॥ ८ ॥
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( २११)
प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त गुरु बलहीन हो, मंगल बलवान् हो या नवम पंचम स्थान में रहा हो, शुक्र ग्यारहवें स्थान में रहा हो ऐसे लग्न में महादेव की प्रतिष्ठा करना चाहिये ॥ ८६ ॥ ब्रह्मा प्रतिष्ठा मुहूर्त्त
बलहीने स्वसुरगुरौ बलवति चन्द्रात्मजे विलग्ने वा । त्रिदशगुरावायस्थे स्थाप्या ब्राह्मी तथा प्रतिमा ॥ ६ ॥
शुक्र बलहीन हो, बुध बलवान् हो या लग्न में रहा हो, गुरु ग्यारहवें स्थान में रहा हो ऐसे लग्न में ब्रह्मा की प्रतिमा स्थापन करना चाहिये ॥६० ॥ - देवी प्रतिष्ठा मुहूर्त
शुक्रोदये नवम्यां चलवति चन्द्रे कुजे गगनसंस्थे । त्रिदशगुरो बलयुक्त देवीनां स्थापयेदाम् ॥ ११ ॥
शुक्र के उदय में, नवमी के दिन, चन्द्रमा बलवान् हो, मंगल दसवें स्थान में रहा हो और गुरु बलवान् हो ऐसे लग्न में देवी की प्रतिमा स्थापन करना चाहिये ।। ६१॥ इंद्र, कार्तिक स्वामी, यत, चंद्र और सूर्य प्रतिष्ठा मुहूर्त
बुधलग्ने जीवे वा चतुष्टयस्थे भृगौ हिबुक संस्थे । बासनकुमारयतेन्दु-भास्कराण प्रतिष्ठा स्यात् ।। ६२ ॥
बुध लग्न में रहा हो, गुरु चतुष्टय (१-४-७-१०) स्थान में रहा हो और शुक्र चतुर्थ स्थान में रहा हो ऐसे लग्न में इन्द्र, कार्तिकेय, यक्ष, चंद्र और सूर्य की प्रतिष्ठा करना चाहिये ।। ६२॥ मह प्रतिष्ठा मुहूर्त- यस्य ग्रहस्य यो वर्गस्तेन युक्ते निशाकरे ।
प्रतिष्ठा तस्य कर्त्तव्या स्वस्ववर्गोयेऽपि वा ।। ६३ ॥
जिस ग्रह का जो वर्ग (राशि) हो, उस वर्ग से युक्त चंद्रमा हो तब याअपने २ वर्ग का उदय हो तब ग्रहों की प्रतिष्ठा करना चाहिये ॥१३॥
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( २१२)
वास्तुसारे - बलहीन ग्रहों का फल
बलहीनाः प्रतिष्ठाय रवीन्दुगुरुभार्गवाः ।
गृहेश-गृहिणी-सौख्य-स्वानि हन्युर्यथाक्रमम् ।। ६४ ।।
सूर्य बलहीन हो तो घर के स्वामी का, चंद्रमा बलहीन हो तो स्त्री का, गुरु बलहीन हो तो सुख का और शुक्र बलहीन हो तो धन का विनाश होता है ॥ ६४ ॥ प्रासाद विनाश कारक योग
तनु-बन्धु-सुत-घून-धर्मेषु तिमिरान्तकः ।।
सकर्मसु कुजार्की च संहरन्ति सुरालयम् ।। ६५ ।।
पहला, चौथा, पांचवाँ, सातवाँ या नववाँ इन पांचों में से किसी स्थान में सूर्य रहा हो तथा उक्त पांच स्थानों में या दसवें स्थान में मंगल या शनि रहा हो तो देवालय का विनाश कारक है ॥ १५ ॥ अशुभ ग्रहों का परिहार
सौम्यवाक्पतिशुक्राणां य एकोऽपि यलोस्कटः ।
रैरयुक्तः केन्द्रस्थः सद्योऽरिष्टं पिनष्टि सः । ६६ । बुध, गुरु और शुक्र इनमें से कोई एक भी बलवान हो, एवं इनके साथ कोई कर ग्रह न रहा हो और केन्द्र में रहे हों तो वे शीघ्र ही अरिष्ट योगों का नाश करते हैं ।। ६६ ॥
बलिष्ठः स्वोच्चगो दोषानशीतिं शीतरश्मिजः ।
वाक्पतिस्तु थतं हन्ति सहस्रं वा सुरार्चितः ॥ ६७ ॥
बलवान् होकर अपना उच्च स्थान में रहा हुआ बुध अस्सी दोषों का, गुरु मो दोषों का और शुक्र हजार दोषों का नाश करता ॥ ६७ ॥
बुधो विनार्केण चतुष्टयेषु, स्थितः शतं हन्ति विलग्नदोषान् ।
शुक्रः सहस्रं विमनोभवेषु, सर्वत्र गीर्वाणगुरुस्तु खक्षम् ॥६॥
सूर्य के साथ नहीं रहा हुआ बुध चार केन्द्र में से कोई केन्द्र में रहा हो तो लग्न के एक सौ दोषों का विनाश करता है । सूर्य के साथ नहीं रहा हुमा शुक्र
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प्रतिष्ठादिक के मुहूर्त
( ५) सातवें स्थान के सिवाय कोई भी केन्द्र में रहा हो तो लग्न के हजार दोषों का नाश करता है और सूर्य रहित गुरु चार में से कोई केन्द्र में रहा हो तो लग्न के लाख दोषों का विनाश करता है ॥ १८ ॥
तिथिवासरनक्षत्रयोगलग्नक्षणादिजान् ।
सवलान् हरतो दोषान् गरुशुक्रौ विलग्नगौ ॥ ६ ॥ तिथि, वार, नक्षत्र, योग, लग्न और मुहूर्त से उत्पन्न होने वाले प्रबल दोषों को लग्न में रहे हुए गुरु और शुक्र नाश करते हैं ।। ६८ ॥
लग्नजातान्नवांशोत्थान करदृष्टिकृतानपि ।
हन्याजीवस्तनौ दोषान् व्याधीन् धन्वन्तरिर्यथा ॥ १० ॥
लग्न से, नवांशक से और क्रूरदृष्टि से उत्पन्न होने वाले दोषों को लग्न में रहा. हुमा गुरु नाश करता है, जैसे शरीर में रहे हुए रोगों को धन्वंतरी नाश करता है ।। १०० ॥ शुभप्रह की दृष्टि से क्रूरग्रह का शुभपन
लग्नात् करो न दोषाय निन्द्यस्थानस्थितोऽपि सन् । दृष्टः केन्द्रत्रिकोणस्थैः सौम्यजीवसितैर्यदि ॥ १०१ ॥
क्रूरग्रह लग्न से निंदनीय स्थान में रहे हों, परन्तु केन्द्र या त्रिकोण स्थान में रहे हुए बुध, गुरु या शुक्र से देखे जाते हों अर्थात् शुभ ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो दोष नहीं है ॥ १०१॥
कूरा हवंति सोमा सोमा दुगुणं फलं पयच्छति ।
जह पासह किंठियो तिकोणपरिसंहिओ वि गुरू । १०२॥
केन्द्र में या त्रिकोण में रहा हुआ गुरु यदि क्रूरग्रह को देखता हो तो वे करग्रह शुभ हो जाते हैं और शुभ ग्रहों को देखता हो तो वे शुभग्रह दुगुना शुभ फल देनेवाले होते हैं ॥ १०२॥ सिद्धछाया लम
सिद्धच्छाया क्रमादर्का-दिषु सिद्धिप्रदा पदैः । रुद्ध-सार्द्धष्ट-नन्दाष्ट-ससभिचन्द्रवद् अयोः ॥ १०३ ॥
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( २१४ )
वास्तुसारे
जब अपने शरीर की छाया रविवार को ग्यारह, सोमवार को साढ़े आठ मंगलवार को नव, बुधवार को आठ, गुरुवार को सात, शुक्रवार को साढ़े आठ और शनिवार को भी साढे आठ पैर हो तब उसको सिद्धछाया कहते हैं, वह सब कार्य की सिद्धिदायक है ॥ १०३ ॥
प्रकारान्तर से सिद्धछाया लग्न
वीसं सोलस पनरस चउदस तेरस य बार बारेव । रविमाइसु बारंगुल संकुषायंगुला सिद्धा ॥ १०४ ॥
जब बारह अंगुल के शंकु की छाया रविवार को बीस, सोमवार को सोलह, मंगलवार को पंद्रह, बुधवार को चौदह, गुरुवार को तेरह, शुक्रवार को बारह और शनिवार को भी बारह अंगुल हो तब उसको भी सिद्धछाया कहते हैं ॥ १०४ ॥
शुभ मुहूर्त्त के अभाव में उपरोक्त सिद्धछाया लग्न से समस्त शुभ कार्य करना चाहिये | नरपतिजयचर्या में कहा है कि
नक्षत्राणि तिथिवारा-स्ताराश्चन्द्रबलं ग्रहाः ।
दुष्टान्यपि शुभं भावं भजन्ते सिद्धच्छायया ॥ १०५ ॥
नक्षत्र, तिथि, वार, ताराबल, चन्द्रबल और ग्रह ये कभी दोषवाले हों तो भी उक्त सिद्धछाया से शुभ भाव को देनेवाले होते हैं ।। १०५ ॥
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नग
। २१५) प्रथम से ग्राहक बनने वाले मुनिवरों के नाम । नाम
नग नाम १० श्रीमान् पंन्यास श्री धर्मविजयजी गणी | १ , तपस्वी श्री गुणविजयजी महाराज
महाराज
१ श्रीमान् न्याय विशारद न्यायतीर्थ मुनि१०, मुनिराज श्री धीरविजयजी महाराज
राज श्री न्यायविजयजी महाराज ५, गणाधीश श्री हरिसागरजी ,
१ , मुनिराज श्री रविविमलजी , , पंन्यास श्री हिमतविजयजी,
१ , मुनिराज श्री शीलविजयजी , मुनिराज श्री कर्पूरविजयजी ,
१ , मुनिराज श्री महेन्द्रविमलजी ,, (वीर पुत्र)
१ , मुनिराज श्री वीरविजयजी , ,, प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी , १ , मुनिराज श्री जसविजयजी , ,, पंन्यास श्री हिमतविमलजी गणी , ,, न्याय शास्त्र विशारद मुनि , मुनिराज श्री कल्याणविजयजी ,
श्रीचिन्तामणसागरजी (इतिहास रसिक)
मुनि श्री रत्नविजयजी ,, मुनिराज श्री उत्तमविजयजी , यतिवर्य पं० लब्धिसागरजी , २ , पंन्यास श्री रंगविजयजी , , , पं० देवेन्द्रसागरजी ,, २ , मुनिराज श्री अमरविजयजी,
, पं० अनूपचन्दजी , ,, पार्श्वचंद्रगच्छीय जैनाचार्य
,, पं० प्रेमसुंदरजी , श्री देवचंद्रसूरीजी
, पं० लक्ष्मीचंदजी , १ , मुनिराज श्री मानसागरजी ,
(राजवैद्य) पंन्यास श्री उमंगविजयजी ,
, पं० रामचंद्रजी पंन्यास श्री मानविजयजी
, , वाचक पं० जीवनमलजी १, मुनिराज श्री विवेकविजयजी ,
गणी महाराज प्रथम से ग्राहक बननेवाले सद्गृहस्थों के नाम । नाम
नग
नाम १२५ सेण्ड हर्ट रोड का जैन उपाश्रय हस्ते ।
१५ सेठ किसनलालजी संपतलालजी लूनाशा• मंगलदास चीमनलाल बम्बई
वत फलोदी १०० झवेरी सेठ रणछोड़भाई रायचंद १५ सेठ मेघराज भीखमचंद मुणोत फलोदी मोतीचंद
बम्बई ५ मिस्त्री भायशंकर गौरीशंकर सोमपुरा २० सेठ रायचंद गुलाबचंद अच्छारी वाले
पालीताना बम्बई | ३ सेठ आश्यभाई चतुरभाई मांडल
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नग
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________________ ( 216) नग नाम . 2 जैनागम बृहद्भाडागार रतलाम 2 जैन श्वेताम्बर सोसायटी हस्ते बाबू चांद . मलजी चौपड़ा मधुवन 1 शाह जीवराजजी भीमाजी, खीवाणदी ,, फूलचंदजी चुन्नीलालजी , ,, सहसमलजी सेनाजी , ,, उमेदमलजी ओटाजी , ,, चुन्नीलालजी कस्तूरचंदजी , ,, फोजमलजी वनेचंदजी , दलीचंदजी दोबाजी कालंदरी हुकमीचंदजी डोंगाजी , ,, भनुतमलजी मनाजी , , हेमाजी खूबाजी , ताराचंदजी भभूतमलजी , ,, जी० आर० शाह , जेठमलजी अचलाजी चडवालं , एच० जे० राठौड़ कोल्हापुर , मिलापचंदजी प्रतापचंदजी सिरोही ,, साकलचंदजी चीमनाजी जावाल 1 , भगवानजी लुंबाजी सियाणा 1 ,, ताराचंदजी वीठाजी , ताराचंदजी नरसिंहजी नग . .. नाम 1 शाह नथमलजी हेमाजी सियाणा 1. ,, कपूरचंदजी जेठमलजी .,,. 1 ,, भीखमचंदजी बनाजी खोपोली (कोलाबा) 1 , भेरांजी वृद्धिचंदजी तातेड़ लेगांव 1 ,, जुवारमलजी गुमनाजी शिवगंज 1 ,, फूलचंद खेमचंद वलाद 1 बाबू चौथमलजी चंडालिया पालीताना 1 शाह चतुरभाई पूंजाभाई , 1 मिस्त्री वृंदावन जेरामभाई सोमपुरा ,, 1 , नटवरलाल मोहनलाल सोमपुरा सिद्धपुर 1 , जदुलाल मानचंद सोमपुरा वीसनगर 1 भोजक हाथीराम काशीराम वडगांव 1 शाह न्यालचंद मोतीचन्द भटंडा 1 ,, दलीचंद छगनलाल ध्रांगध्रावाला 1 ,, छोटालाल डामरसी कोटकपुरा 1 सेठ सत्यनारायणजी देहली 1 शाह हीरालाल छगनलाल कडी 1 बाबू इंद्रचंदजी बोथरा अजीमगंज 1 सेठ मोतीलाल कन्हैयालाल हापड़