________________
[१] प्रस्तुतः ग्रंथ के कर्ता करनाल ( देहली) के रहनेवाले जैनधर्मावलम्बी श्रीधंधकुल में उत्पन्न होनेवाले कालिक सेठ के सुपुत्र ठक्कुर 'चंद्र' नामके सेठ के विद्वान् सुपुत्र ठक्कु र ‘फेरु' ने संवत् १३७२ में रचा है, ऐसा इस ग्रंथ की समाप्ति में प्रशस्ति से मालूम होता है । एवं उन्हीं का बनाया हुआ दूसरा "रत्न परीक्षा' नामक ग्रंथ 'जिसमें हीरा, पन्ना, माणक, मोती, लहसनीया, प्रवाल, पुखराज आदि रत्नों की; सोना, चांदी, पीतल, तांबा, जसत, कलइ और लोहा आदि धातुओं की तथा पारा, सिंदुर, दक्षिणावर्त्तशंख, रुद्राक्ष, शालिग्राम, कपूर, कस्तूरी, अम्बर, अगरु, चंदन, कुंकुम इत्याविक की परीक्षा का वर्णन है, उसकी प्रशस्ति में लिखा है कि
सिरिधंधकुल आसी कन्नाणपुरम्मि सिट्टिकालियो। तस्स य ठक्कुर चंदो फेरु तस्सेव अंगरहो ॥ २५ ॥ तेण य रयणपरीक्खा रइया संखेवि ढिल्लियपुरीए । कर'-मुणि-गुण -ससि'-वरिसे अलावदीपस्स रज्जम्मि ॥ २६ ॥ श्रीढिल्लीनगरे वरेण्यधिषणः फेरू इति व्यक्तधी
मूर्द्धन्यो वणिजां जिनेन्द्रवचने वेचारिकग्रामणीः । तेनेयं विहिता हिताय जगतां प्रासादविम्बक्रिया,
रत्नानां विदुषांचमस्कृतिकरी सारा परीक्षा स्फुटम् ॥ २७॥ इससे स्पष्ट मालूम होता है कि फेरू ने देहली में रहकर अलाउद्दीन बादशाह के समय में सम्वत् १३७२ में वास्तुसार और रत्नपरीक्षा ग्रंथ रचे हैं।
इस वास्तुसार प्रकरण ग्रंथ का श्राद्धविधि और आचार प्रदीप आदि प्रन्थों में प्रमाण मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि प्राचीन आचार्यों ने भी इस ग्रन्थ को प्रमाणिक माना है ।
प्रस्तुत ग्रंथ में तीन प्रकरण हैं । प्रथम गृहलक्षण प्रकरण है, उसमें भूमि परीक्षा, शल्यशोधन विधि, खात आदि के मुहूर्त, आय व्यय आदि का ज्ञान, १६ और ६४ जाति के मकानों का स्वरूप, द्वारप्रवेश, वेध जानने का प्रकार ६४, ८१, १०० और ४९ पद के वास्तु चक्र, गृह सम्बम्धी शुभाशुभ फल, मकान बनाने के लिये कैसी लकड़ी वापरना चाहिये, इत्यादि विषयों का सविस्तर वर्णन है । दूसरा बिम्बपरीक्षा नाम का प्रकरण है, उसमें पत्थर की परीक्षा तथा मूर्तियों के अंग विभाग का मान तथा उनको बनाने का प्रकार एवं उनके शुभाशुभ लक्षण हैं। तीसरा प्रासाद प्रकरण है, उसमें मंदिर के प्रत्येक अंग विभाग के मान और उनको बनाने का प्रकार दिया गया है । इन तीनों प्रकरण की कुल २८२ मूल गाथा हैं। उनका सविस्तर भाषान्तर सब सज्जनों के समझ में आ जाय इस प्रकार नकशे आदि बतलाकर स्पष्टतया किया गया है । जो
१ प्रथम पत्र नहीं है यह श्री यशोविजय जैन गुरुकुल के संस्थापक श्री चारित्रविजय जैन ज्ञानमंदिर से मुनि श्री दर्शनविजयजी महाराज द्वारा प्राप्त हुई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org