SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना. मकान, मंदिर और मूर्ति आदि कैसे सुंदर कला पूर्ण बनाये जावें कि जिसको देखकर मन प्रफुल्लित हो जाय और खर्चा भी कम लगे। तथा उनमें रहनेवालों को क्या २ सुख दुःख का अनुभव करना पड़ेगा ? एवं किस प्रकार की मूत्ति से पुन्य पापों के फल की प्राप्ति हो सकती है ? इत्यादि जानने की अभिलाषा प्रायः करके मनुष्यों को हुआ करती है। उन सब को जानने के लिये प्राचीन महर्षियों ने अनेक शिल्प ग्रंथों की रचना करके हमारे पर महान् उपकार किया है । लेकिन उन ग्रंथों की सुलभता न होने से आजकल इसका अभ्यास बहुत कम हो गया है । जिससे हमारी शिल्पकला का ह्रास हो रहा है। सैकड़ों वर्ष पहले शिल्पशास्त्र की दृष्टि से जो इमारते बनी हुई देखने में आती हैं, वे इतनी मजबूत हैं कि हजारों वर्ष हो जाने पर भी आज कल विद्यमान हैं और इतनी सुंदर कलापूर्ण हैं कि उनको देखने के लिये हजारों कोसों से लोग आते हैं और देखकर मुग्ध हो जाते हैं। शिल्पकला का ह्रास होने का कारण मालूम होता है किमुसलमानों के राज्य में जबरदस्ती हिन्दू धर्म से भ्रष्ट करके मुसलमान बनाते थे और सुंदर कला पूर्ण मंदिर व इमारतें जो लाखों रुपये खर्च करके बनायी जाती थी उनका विध्वंस कर डालते थे और ऐसी सुंदर कला युक्त इमारते बनाने भी न देते थे एवं तोड़ डालने के भय से बनाना भी कम हो गया। इन अत्याचारों से शिल्पशास्त्र के अभ्यास की अधिक आवश्यकता न रही होगी। जिससे कितनेक ग्रंथ दीमक के आहार बन गये और जो मुसलमानों के हाथ आये वे जला दिये गये । जो कुछ गुप्त रूप से रह गये तो उनका जानकार न होने से अभी तक यथार्थ रूप से प्रकट न हो सके । जो पांच सात ग्रंथ छपे हैं, उनसे साधारण जनता को कोई लाभ नहीं पहुँच सकता। क्योंकि वे मूलमात्र होने से जो विद्वान और शिल्पी होगा वही समझ सकता है । तथा हिन्दी भाषान्तर पूर्वक जो 'विश्वकर्मा प्रकाश' आदि छपे हुए हैं। वे केवल शब्दार्थ मात्र है, भाषान्तर करनेवाले महाशय को शिल्प शास्त्र का अनुभव पूर्वक अभ्यास न होने से उनकी परिभाषा को समझ नहीं सका, जिसे शब्दार्थ मात्र लिखा है एवं नकशे भी नहीं दिये गये, तो साधारण जनता कैसे समझ सकती है ? मैंने भी तीन वर्ष पहले इस ग्रंथ का भाषान्तर शब्दार्थ मात्र किया था, उसमें मेरे को कुछ भी अनुभव न होने से समझता नहीं था । बाद विचार हुआ कि इसको अच्छी तरह समझकर एवं अनुभव करके लिखा जाय तो जनता को लाभ पहुँच सकेगा। ऐसा विचार कर तीन वर्ष तक इस विषय के कितनेक ग्रंथों का अध्ययन करके अनुभव भी किया। बाद इस ग्रंथ को सविस्तार खुलासावार लिखकर और नकशे आदि देकर आपके सामने रखने का साहस किया है। हिन्दी भाषा में इस विषय के पारिभाषिक शब्दों की सुलभता न होने से मैंने संस्कृत में ही रखे हैं, जिसे एक देशीय भाषा न होते सार्वत्रिक यही शब्दों का प्रयोग हुआ करे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002673
Book TitleVastusara Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1936
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy