________________
(१२४ )
: घास्तुसारे ..
-
-
-
ध्वजा का मान
णिप्पन्ने वरसिहरे धयहीणसुरालयम्मि असुरठिई। तेण धयं धुव कीरई दंडसमा मुक्खसुक्खकरा ॥३५॥
सम्पूर्ण बने हुए देवमन्दिर के अच्छे शिखर पर ध्वजा न हो तो उस देव मन्दिर में असुरों का निवास होता है । इसलिये मोक्ष के सुख को करनेवाली दंड के बराबर लम्बी ध्वजा अवश्य करना चाहिये ॥३॥ प्रासादमण्डन में कहा है कि
जा दण्डप्रमाणेन दैाऽष्टांशेन विस्तरा ।
नानावर्णा विचित्राद्या त्रिपञ्चाग्रा शिखोत्तमा ॥" ध्वजा के वस्त्र दंड की लम्बाई जितना लम्बा और दंड का आठवां भाग जितना चौड़ा.अनेक प्रकार के वर्षों से सुशोभित करना, तथा ध्वजा के अंतिम भाग में तीन या पांच शिखा करना, यह उत्तम ध्वजा मानी गई है। द्वार मान
'पासायस्स दुवारं 'हत्थंपइ सोलसंमुलं उदए। , 'जा हत्थ चउक्का हुँति तिगदुग वुड्ढि कमाडपन्नासं ॥३६॥
प्रासाद के द्वार का उदय प्रत्येक हाथ सोलह अंगुल का करना, यह घृद्धि चार हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद तक समझना अर्थात् चार हाथ के विस्तार वाले प्रासाद के द्वार का उदय चौंसठ अंगुल समझना। पीछे क्रमशः तीन २ और दो २ अंगुल की वृद्धि पचास हाथ तक करना चाहिये ॥३६॥ प्रासादमंडन में नागरादि प्रासाद द्वार का मान इसी प्रकार कहा है
"एकहस्ते तु प्रासादे द्वारं स्यात् षोडशांगुलम् । षोडशांगुलिका वृद्धि-यावद्धस्तचतुष्टयम् ॥
..पासायाभोः । २. 'हत्थापइः। ३.'नवपंचम विस्थारे अहवा,पिहुलाउ दूणुदये' । इति प्राङ्गास्सरे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org