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प्रासाद प्रकरणम्
(१२५) अष्टहस्तान्तकं यावद् दीर्घ वृद्धिर्गुणाङ्गला । द्वयङ्गला प्रतिहस्तं च यावद्धस्तशतार्द्धकम् ॥ यानवाहनपर्यत द्वारं प्रासादसमनाम् ।
दैयोर्द्धन पृथुत्वे स्याच्छोभनं तत्कलाधिकम् ॥" __ एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में सोलह अंगुल द्वार का उदय करना । पीछे चार हाथ तक सोलह २ अंगुल की वृद्धि, पांच से आठ हाथ तक तीन २ अंगुल की वृद्धि और आठ से पचास हाथ तक दो २ अंगुल की वृद्धि द्वार के उदय में करना चाहिये । पालकी, रथ, गाड़ी, पलंग (मांचा), मंदिर का द्वार भौर घर का द्वरि ये सब लंबाई से प्राधा चौड़ा करना, यदि चौड़ाई में बढ़ाना हो तो लंबाई का सोलहवां भाग बढाना ।
उदयद्धिवित्थरे बारे आयदोसविसुद्धए । अंगुलं सड्ढमद्धं वा 'हाणि वुड्ढी न दूसए ॥ ३७॥
उदय से आधा द्वार का विस्तार करना। द्वार में ध्वजादिक आय की शुद्धि के लिये द्वार के उदय में आधा या डेढ अंगुल न्यूनाधिक किया जाय तो दोष नहीं है ॥ ३७॥
निल्लाडि बारउत्ते बिंवं साहेहि हिहि पडिहारा। कूणेहिं अदिसिवइ जंघापडिरहइ पिक्खणयं ॥ ३८ ॥ .
दरवाजे के ललाट भाग की ऊंचाई में बिंब ( मूर्ति ) को, द्वारशाख में नीचे प्रतिहारी, कोने में आठ दिग्पाल और मंडोवर के जंघा के थर में तथा प्रतिरथ में नाटक करती हुई पुतलिएँ रखना चाहिये ॥ ३८॥ विम्बमान
पासायतुरियभागप्पमाणबिंब स उत्तमं भणियं । रावट्टरयणविद्दम-धाउमय जहिच्छमाणवरं ॥ ३१ ॥ , 'कुज्झा हिणं तहाहिय' । इति पाठान्तरे।
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