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________________ ( १२६) - वास्तुसारे प्रासाद के विस्तार का चौथा भाग प्रमाण जो प्रतिमा हो वह उत्तम प्रतिमा कहा है। किन्तु राजपट्ट ( स्फटिक ), रत्न, प्रवाल या सुवर्णादिक धातु की प्रतिमा का मान अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं ॥ ३९ ॥ विवेकविलास में कहा है कि "पासादतुर्येभागस्य समाना प्रतिमा मता । उत्तमायकृते सा तु कायकोनाधिकागाला ॥ अथवा स्वदशांशेन हीनस्याप्यधिकस्य वा । कार्या प्रासादपादस्य शिल्पिभिः प्रतिमा समा ॥" प्रासाद के चौथे भाग के प्रमाण की प्रतिमा करना, यह उत्तम लाभ की प्राप्ति के लिये है, परन्तु चौथे भाग में एक अंगुल न्यून या अधिक रखना चाहिये। या प्रासाद के चौथे भाग का दश भाग करना, उनमें से एक भाग चौथे भाग में हीन करके या बढ़ा करके उतने प्रमाण की प्रतिमा शिल्पकारों को बनानी चाहिये । वसुनंदिकृत प्रतिष्ठासार में कहा है कि "द्वारस्याष्टांशहीनः स्यात् सपीठः प्रतिमोच्छ्रयः । तत् त्रिभागो भवेत् पीठं द्वौ मागौ प्रतिमोच्छ्रयः ।।" द्वार का आठ भाग करना, उनमें से ऊपर के आठवें भाग को छोड़कर बाकी सात भाग प्रमाण पीठिका सहित प्रतिमा की ऊंचाई होनी चाहिये । सात भाग-का तीन भाग करना, उनमें से एक भाग की पीठिका (पवासन ) और दो भाग की प्रतिमा की 'ऊंचाई करना चाहिये। प्रासादमएडन में कहा है कि "तृतीयांशेन गर्भस्य प्रासादे प्रतिमोत्तमा । मध्यमा स्वदशांशोना पञ्चांशोना कनीयसी ॥" प्रासाद के गर्भगृह का तीसरा भाग प्रमाण प्रतिमा बनाना उत्तम है। प्रतिमा का दशवां भाग प्रतिमा में घटाकर उतने प्रमाण की प्रतिमा करें तो मध्यममान की, और पांचवां भाग न्यून प्रतिमा करें तो कनिष्ठमान की प्रतिमा समझना । यह ऊंचाई खपी मूर्ति के लिये है, यदि बैठी मूर्ति हो तो दो भाग का पवासन और एक भाग की मूर्ति रखना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002673
Book TitleVastusara Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1936
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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