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________________ प्रासाद प्रकरणम् ( १२७) प्रतिमा की दृष्टि का प्रमाण दसभाय यदुवारं" उदुंबर-उत्तरंग-मज्झेण । पढमसि सिवदिट्ठी बीए सिरसत्ति जाणेह ॥ ४०॥ मन्दिर के मुख्य द्वार के देहली और उत्तरंग के मध्य भाग का दश भाग करना । उनमें नीचे के प्रथम भाग में महादेव की दृष्टि, दूसरे भाग में शिवशक्ति (पार्वती ) की दृष्टि रखना चाहिये ॥ ४० ॥ सयणासणसुर-तईए लच्छीनारायणं चउत्थे अ। - वाराहं पंचमए छठंमे लेवचित्तस्स ॥४१॥ तृतीय भाग में शेषशायी (विष्णु ) की दृष्टि, चौथे भाग में लक्ष्मीनारायण की दृष्टि, पंचम भाग में बाराहावतार की दृष्टि, छठे भाग में लेप और चित्रमय प्रतिमा की दृष्टि रखना चाहिये ।। ४१॥ सासणसुरसत्तमए सत्तमसत्तंसि वीयरागस्स । चंडिय-भइरव-अडसे नवमिदा छत्तचमरधरा ॥ ४२ ॥ ___ सातवें भाग में शासनदेव (जिन भगवान के यन और यक्षिणी) की दृष्टि, यहीं सातवें भाग के दश भाग करके उनका जो सातवाँ भाग वहीं पर वीतरागदेव की दृष्टि, आठवें भाग में चंडीदेवी और भैरव की दृष्टि और नववे भाग में छत्र चामर करने वाले इंद्र की दृष्टि रखना चाहिये ॥ ४२ ॥ दसमे भाए सुन्नं जक्खागंधव्वरक्खसा जेण । हिट्ठाउ कमि ठविजइ सयल सुराणं च दिट्ठी अ॥ ४३ ॥ ऊपर के दशवें भाग में किसी की दृष्टि नहीं रखना चाहिये, क्योंकि वहां यक्ष, गांधर्व और राक्षसों का निवास माना है । समस्त देवों की दृष्टि द्वार के नीचे के क्रम से रखना चाहिये ॥४३॥ 'कडूवारं' इति पाठान्तरे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002673
Book TitleVastusara Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwandas Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1936
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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