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(१८)
वास्तुसारे
प्रकारान्तर से दृष्टि का प्रमाण
भागह भणंतेगे सत्तमसत्तंसि दिष्ठि 'अरिहंता । गिहदेवालु पुणेवं कीरइ जह होइ वुड्ढिकरं ॥ ४४ ॥
कितनेक प्राचार्यों का मत है कि मंदिर के मुख्य द्वार के देहली और उत्तरंग के मध्य भाग का आठ भाग करना । उनमें भी ऊपर का जो सातवाँ माग, उसका फिर आठ भाग करके, इसी के सातवें मांग (गजांश ) पर अरिहंत की दृष्टि रखना चाहिये । अर्थात् द्वार के ६४ भाग करके, ५५ वें भाग पर वीतरागदेव की दृष्टि रखना चाहिये । इसी प्रकार गृहमंदिर में भी करना चाहिये कि जिससे लक्ष्मी आदि की वृद्धि हो ॥४४॥
प्रासादमण्डन में भी कहा है कि
"प्रायभागे भजेद द्वार-मष्टममतस्त्यजेत । सप्तमसप्तमे दृष्टि-वृषे सिंहे ध्वजे शुभा ॥"
द्वार की ऊंचाई का आठ भाग करके ऊपर का माठवाँ भाग छोड़ देना, पीछे मात भाग का फिर आठ भाग करके, इसीका जो सातवाँ भाग गजाय, उसमें दृष्टि रखना चाहिये । या सातवें भाग के जो आठ भाग किये हैं, उनमें से वृष, सिंह या ध्वज आय में अर्थात् पांचवां, तीसरा या पहला भाग में भी दृष्टि रख सकते हैं । दि० वसुनंदिकृत प्रतिष्ठासार में कहा है कि
"विभज्य नवधा द्वारं तत् षड्भागानधस्त्यजेत् ।। ___ ऊर्ध्वद्वौ सप्तमं तद्वद् विभज्य स्थापयेद् दृशाम् ॥"
द्वार का नव भाग करके नीचे के छः भाग और ऊपर के दो भाग को छोड़ दो, बाकी जो सातवा भाग रहा, उसका भी नव भाग करके इसी के सातवें भाग पर प्रतिमा की दृष्टि रखना चाहिये ।
'भरहता' इति पाठान्तरे ।
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