________________
गृह प्रकरणम्
(६१)
जगह कार्य शुरू करना चाहिये। किसी जगह आय व्यय आदि के क्षेत्रफल में दोष नहीं आना चाहिये, एवं वेध तो सर्वथा छोड़ना ही चाहिये ॥११॥ ___ सात प्रकार के वेधतलवेह-कोणवेहं तालुयवेहं कवालवेहं च । तह थंभ-तुलावेहं दुवारवेहं च सत्तमयं ॥११६॥
तलवेध, कोणवेध, तालुवेध, कपालवेध, स्तंभवेध, तुलावेध और द्वारवेध, ये सात प्रकार के वेध हैं ॥११६॥ ' समविसमभूमि कुंभि अ जलपुरं परगिहस्स तलवेहो । कूणसमं जइ कूणं न हवइ ता कूणवेहो श्र ॥११७॥
घर की भूमि कहीं सम कहीं विषम हो, द्वार के सामने कुभी (तेल निकालने की घानी, पानी का अरहट या ईख पीसने का कोल्हू) हो, कूए या दूसरे के घर का रास्ता हो तो 'तलवेध' जानना चाहिये । तथा घर के कोने बराबर न हों तो 'कोणवेध' समझना । ११७॥
इक्कखणे नीचुच्चं पीढं तं मुणह तालुयावेहं । बारस्सुवरिमपट्टे गम्भे पीढं च सिरवेहं ॥११८॥
एक ही खंड में पीढे नीचे ऊंचे हों तो उसको 'तालुवेध' समझना चाहिए । द्वार के ऊपर की पटरी पर गर्भ (मध्य ) भाग में पाढा आवे तो 'शिरवेष' जानना चाहिये ॥११८॥
गेहस्स ममि भाए थंभेगं तं मुणेह उरसल्लं । अह अनलो विनलाइं हविज जा थंभवेहो सो ॥११॥
घर के मध्य भाग में एक खंभा हो अथवा अग्नि या जल का स्थान हो तो यह हृदय शल्य अर्थात् स्तंभवेध जानना चाहिये ॥११६:।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org