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वास्तुलारे
दरवाजे की ऊंचाई जितने अंगुल की हो उसके आधे भाग में ऊंचाई के सोलहवें भाग की संख्या को मिला देने से जो कुल नाप होती है, उतनी ही दरवाजे की चौड़ाई की जाय तो वह श्रेष्ठ है। दरवाजे की कुल ऊंचाई के तीन भाग बराबर करके उसमें से एक भाग अलग कर देना चाहिये । बाकी के दो भाग जितनी दरवाजे की चौड़ाई की जाय तो वह मध्यम द्वार कहा जाता है । यदि दरवाजे की ऊंचाई के आधे भाग जितनी चौड़ाई की जाय तो वह कनिष्ठ मानवाला द्वार जानना चाहिये । द्वार के उदय का दूसरा प्रकार
"गृहोत्सेधेन वा त्र्यंशहानेन स्यात् समुच्छ्रितिः ।
तदन तु विस्तारो द्वारस्येत्यपरो विधिः॥" घर की ऊंचाई के तीन भाग करना, उसमें से एक भाग अलग करके बाकी दो भाग जितनी द्वार की ऊंचाई करना चाहिये। और ऊंचाई से आधे द्वार का विस्तार करना चाहिये । यह द्वार के उदय और विस्तार का दूसरा प्रकार है। घर की ऊंचाई का फल
पुवुच्चं अत्थहरं दाहिण उच्चघरं धणसमिद्धं । अवरुचं विद्धिकरं उव्वसियं उत्तराउच्चं ॥११४॥
अपूर्व दिशा में घर ऊंचा हो तो लक्ष्मी का नाश, दक्षिण दिशा में घर ऊंचा हो तो धन समृद्धियों से पूर्ण, पश्चिम दिशा में घर ऊंचा हो तो धन धान्यादि की वृद्धि करने वाला और उत्तर तरफ घर ऊंचा हो तो उजाड़ (बस्ती रहित) होता है ॥११॥
घर का भारम्भ प्रथम कहाँ से करना चाहिये यह बतलाते हैंमूलाग्रो श्रारंभो कीरइ पच्छा कमे कमे कुज्जा। सव्वं गणिय-विसुद्धं वेहो सव्वत्थ वज्जिज्जा॥११५॥
सब प्रकार के भूमि आदि के दोषों को शुद्ध करके जो मुख्य शाला (घर) है, वहीं से प्रथम काम का आरम्भ करना चाहिये । पश्चात् क्रम से दूसरी दूसरी
* यहाँ पूर्वादि विशा घर के द्वार की अपेक्षा से समझना चाहिये अर्थात् घर के द्वार को पूर्व दिशा मानकर सब दिया समझ लेना चाहिये।
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