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गृह प्रकरणम्
(७
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सुगिहजालो उवरिमयो खिविज्ज नियमज्झिनन्नगेहस्स । पच्छा कहवि न खिप्पइ जह भणियं पुवसत्यम्मि ॥ १५३ ॥
अपने मकान के ऊपर की मंजिल में सुन्दर खिड़की रखना अच्छा है, परन्तु दूसरे के मकान की जो खिड़की हो उसके नीचे के भाग में आजाय ऐसी नहीं रखना चाहिये। इसी प्रकार पिछली दिवाल में कभी भी गवाक्ष (खिड़की) आदि नहीं रखना चाहिये, ऐसा प्राचीन शास्त्रों में कहा है ॥ १५३ ।। शिल्पदीपक में कहा है कि
“सूचीमुखं भवेच्छिद्रं पृष्ठे यदा करोति च ।
प्रासादे न भवेत् पूजा गृहे क्रीडन्ति राक्षसाः॥" घर के पीछे की दिवाल में सूई के मुख जितना भी छिद्र नहीं रक्खे। यदि रक्खे तो प्रासाद (मंदिर) में देव की पूजा नहीं होती है और घर में राक्षस क्रीड़ा करते हैं अर्थात् मंदिर या घर के पीछे की दिवाल में नीचे के भाग में प्रकाश के लिये गवाक्ष खिड़की आदि हो तो अच्छा नहीं है ।
ईसाणाई कोणे नयरे गामे न कीरए गेहं । संतलोयाणमसुहं अंतिमजाईण विद्धिकरं ॥ १५४ ॥
नगर या गाँव के ईशान आदि कोने में घर नहीं बनाना चाहिये । यह उत्तम जनों के लिये अशुभ है, परंतु अंत्यज जातिवाले को वृद्धिकारक है ॥ १५४ ।। शयन किस तरह करना चाहिये ?---
देवगुरु-वगिह-गोधण-संमुह चरणो न कीरए सयणं । उत्तरसिरं न कुज्जा न नग्गदेहा न अल्लपया ॥ १५५ ॥
देव, गुरु अग्नि गौ और धन इनके सामने पैर रख कर, उत्तर में मस्तक रख कर, नंगे होकर और गीले पैर कभी शयन नहीं करना चाहिये ।। १५५ ।।
धुत्तामच्चासन्ने परवत्थुदले चउप्पहे न गिहं । गिहदेवलपुचिलं मूलदुवारं न चालिज्जा ॥ १५६ ॥
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