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गृह प्रकरणम्
. सम्मुख वत्स हो तो आयुष्य का नाशकारक है, पश्चिम ( पछिाड़ी) वत्स हो तो धन का क्षय करता है, बांयी ओर या दाहिनी ओर वत्स हो तो सुखकारक जानना ॥ २१ ॥
प्रथम खात करने के समय शेषनाग चक्र ( राहुचक्र ) को देखते हैं, उसको भी प्रसंगोपात लिखता हूं। इसको विश्वकर्मा ने इस प्रकार बतलाया है
"ईशानतः सर्पति कालसर्पो, विहाय सृष्टि गणयेद् विदिक्षु ।।
शेषस्य वास्तोर्मुखमध्यपुच्छ, त्रयं परित्यज्य खनेच्च तुर्यम् ।। -- प्रथम ईशान कोण से शेषनाग ( राहु ) चलता है । *सृष्टि मार्ग को छोड़ कर विपरीत विदिशा में उसका मुख, मध्य ( नाभि ) और पूंछ रहता है अर्थात् ईशान कोण में नाग का मुख, वायव्य कोण में मध्य भाग (पेट ) और नैर्ऋत्य कोण में पूंछ रहता है । इन तीनों कोण को छोड़कर चौथा अग्नि कोण जो खाली है, इसमें प्रथम खात करना चाहिये । मुख नाभि और पूंछ के स्थान पर खात करे तो हानिकारक है, दैवज्ञवल्लभ ग्रन्थ में कहा है कि
"शिरः खनेद् मातृस्तिन् निहन्यात् , खनेच्च नाभौ भयोगपीड़ाः । पुच्छ खनेत् स्त्रीशुभगोत्रहानिः स्त्रीपुत्ररत्नान्नवसनि शून्ये ॥"
* राजवल्लभ में अन्य प्रकार से कहा है
"कन्यादौ रवितस्त्रये फणमुखं पूर्वादिसृष्टिकमात् ।" अर्थात् सूर्य कन्या श्रादि तीन राशियों में हो तब शेषनाग का मुख पूर्व दिशा में रहता है। बाद सृष्टि क्रम से धन आदि तीन राशियों में दक्षिण में, मीन बाद तीन राशियों में पश्चिम में और मिथुन आदि तीन राशियों में उत्तर में नाग का मुख रहता है।
"पुर्वास्येऽनिलखातनं यममुखे खात शिवे कारयेत् ।
शीर्षे पश्चिमगे च वह्निखननं सौम्ये खनेदू नैर्यते ॥" अर्थात् नाग का मुख पूर्व दिशा में हो तब वायुकोण में खात करना, दक्षिण में मुख हो तब ईशान कोण मे खात करना, पश्चिम में मुख हो तब अग्नि कोण में खात करना और उत्तर में मुख हो तब नैर्ऋत्य कोण में खात करना।
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