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विम्बपरीक्षा प्रकरणं द्वितीयम् ।
द्वारगाथा
इअगिहलक्खणभावं भणिय भणामित्थ बिंबपरिमाणं ।
गुणदोसलक्खणाइं सुहासुहं जेण जाणिजा' ॥१॥ -- प्रथम गृहलक्षण भाव को मैंने कहा । अब बिम्ब ( प्रतिमा) के परिमाण को तथा इसके गुणदोष आदि लक्षणों को मैं ( फेरु ) कहता हूं कि जिससे शुभाशुभ जाना जाय ॥१॥ मूर्ति के स्वरूप में वस्तु स्थिति
छत्तत्तयउत्तारं भालकवोलायो सवणनासायो। सुहयं जिणचरणग्गे नवग्गहा जक्खजक्खिणिया ॥२॥
जिनमर्चि के मस्तक, कपाल, कान और नाक के उपर बाहर निकले हुए तीन छत्र का विस्तार होता है, तथा चरण के आगे नवग्रह और यक्ष यक्षिणी होना सुखदायक है ॥२॥ मूर्ति के पत्थर में दाग और ऊंचाई का फल
बिंबपरिवारमझे सेलस्स य वराणसंकरं न सुहं । समअंगुलप्पमाणं न सुंदरं हवइ कइयावि ॥३॥
प्रतिमा का या इसके परिकर का पाषाण वर्णसंकर अर्थात् दागवाला हो तो अच्छा नहीं । इसलिये पाषाण की परीक्षा करके बिना दाग का पत्थर मूर्ति बनाने के लिये लाना चाहिये।
गइ' । २ 'कयावि' इति पाठान्तरे ।
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