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( १०२)
वास्तुसारे
चौवीस जिन, नवग्रह, चौंसठ योगिनी, पावन वीर, चौवीस यक्ष, चौवीस यक्षिणी, दश दिक्पाल, सोलह विद्यादेवी, नव नाथ, चौरासी सिद्ध, विष्णु, महादेव, ब्रह्मा, इन्द्र और दानव इत्यादिक देवों के वर्ण, चिह्न, नाम और आयुध आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन अन्य * ग्रंथों से जानना चाहिये ॥ ५३॥ ५४॥
अथ प्रासाद-प्रकरणं तृतीयम् ।
भणियं गिहलक्खणाइ-विंबपरिक्खाइ-सयलगुणदोसं । संपइ पासायविही संखेवणं णिसामेह ॥ १॥
समस्त गुण और दोष युक्त घर के लक्षण और प्रतिमा के लक्षण मैंने पहले कहा है । अब प्रासाद (मंदिर ) बनाने की विधि को संक्षेप से कहता हूँ, इसको सुनो ॥ १ ॥
पढमं गड्डाविवरं' जलंतं यह ककरतं कुणह। कुम्मनिवेसं यह खुरस्सिला तयणु सुत्तविही ॥ २ ॥
प्रासाद करने की भूमि में इतना गहरा खात खोदना कि जल पाजाय या कंकरवाली कठिन भूमि आ जाय । पीछे उस गहरे खोदे हुए खात में प्रथम मध्य में कूर्मशिला स्थापित करना, पीछे आठों दिशा में आठ खुरशिला स्थापित करना । इसके बाद सूत्रविधि करना चाहिये ॥ २ ॥
* उपरोक्त देवों में से २४ जिन, ६ ग्रह, २४ यक्ष. २४ यक्षिणी, १६ विद्यादेवी और १० दिग्पाल का स्वरूप इसी ग्रन्थ के परिशिष्ट में दे दिया है, बाकी के देवों का स्वरूप मेरा अनुवादित 'रूपमंडन' ग्रन्थ जो अब छपनेबाला है उसमें देखो।
, 'गड्डावरयं' । २ 'भारियध्वं' 'नायव्वं' इति पाठान्तरे ।
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