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प्रासाद प्रकरणम्
(१०३)
कुशिला का प्रमाण प्रासादमण्डन में कहा है कि
"अर्धाङ्गलो भवेत् कूर्म एकहस्ते सुरालये । अर्धाङ्गलात् ततो वृद्धिः कार्या तिथिकरावधिः ॥ एकत्रिंशत्करान्तं च तदर्द्धा वृद्धिरिष्यते । ततोछुपि शतान्तिं कुर्यादङ्गुलमानतः ॥ चतोंशाधिका ज्येष्ठा कनिष्ठा हीनयोगतः । सौवर्णरौप्यजा वापि स्थाप्या पञ्चामृतेन सा ॥"
एक हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में आधा अंगुल की कूर्मशिला स्थापित करना । क्रमशः पंद्रह हाथ तक के विस्तारवाले प्रासाद में प्रत्येक हाथ आधे २ अंगुल की वृद्धि करना। अर्थात् दो हाथ के प्रासाद में एक अंगुल, तीन हाथ के प्रासाद में डेढ अंगुल, इसी प्रकार प्रत्येक हाथ आधा २ अंगुल बढाते हुए पंद्रह हाथ के प्रासाद में साढे सात अंगुल की कूर्म-शिला स्थापित करें। आगे सोलह हाथ से इकतीस हाथ तक पाव २ अंगुल बढाना, अर्थात् सोलह हाथ के प्रासाद में पौंणे
आठ अंगुल, सत्रह हाथ के प्रासाद में आठ अंगुल, अठारह हाथ के प्रासाद में सवा आठ अंगुल, इसी प्रकार प्रत्येक हाथ पाव २ अंगुल मढ़ावें तो इकतीस हाथ के प्रासाद में साढे ग्यारह अंगुल की कूर्मशिला स्थापित करें।
आगे बत्तीस हाथ से पचास हाथ तक के प्रासाद में प्रत्येक हाथ आध २ पाव अंगुल अर्थात् एक २ जब की कू मशिला बढाना । अर्थात् बत्तीस हाथ के प्रासाद में साढ़े ग्यारह अंगुल और एक जव, तेत्तीस हाथ के प्रासाद में पौंणे बारह अंगुल, इसी प्रकार पचास हाथ के विस्तारवाले प्रासाद में पौणे चौदह अंगुल और एक जब की बड़ी कूर्मशिला स्थापित करें। जिस मान की कूर्मशिला आवे उसमें अपना चौथा भाग जितना अधिक बढावे तो ज्येष्ठमान की और अपना चौथा भाग जितना घटादे तो कनिष्ठ मान की कूर्मशिला होती है। यह कूर्मशिला सुवर्ण या चांदी की बनाकर पंचामृत से स्नान करवाकर स्थापित करना चाहिये ।
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