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- वास्तुसारे
प्रकार बत्तीस देव ऊपर के कोठे में पूजना चाहिये । और मध्य के कोठे में तेरह देव पूजना चाहिये।
"प्रागर्यमा दक्षिणतो विवस्वान्, मैत्रोऽपरे सौम्यदिशो विभागे । .
पृथ्वीधरोऽय॑स्त्वथ मध्यतोऽपि, ब्रह्मार्चनीयः सकलेषु नूनम् ॥"
ऊपर के कोठे के नीचे पूर्व दिशा के कोठे में अर्यमा, दक्षिण दिशा के कोठे में विवस्वान्, पश्चिम दिशा के कोठे में मैत्र और उत्तर दिशा के कोठे में पृथ्वीधर देव को स्थापित कर पूजन करना चाहिये और सब कोठे के मध्य में ब्रह्मा को स्थापित कर पूजन करना चाहिये।
"आपापवत्सौ शिवकोणमध्ये, सावित्रकोऽनौ सविता तथैव । कोणे महेन्द्रोऽथ जयस्तृतीये, रुद्रोऽनिलेऽर्योऽप्यथ रुद्रदासः॥"
ऊपर के कोने के कोठे के नीचे ईशान कोण में आप और आपवत्स को, अग्नि कोण में सावित्र और सविता को, नैऋत्य कोण में इन्द्र और जय को, वायु कोण में रुद्र और रुद्रदास को स्थापन करके पूजन करना चाहिये।
"ईशानबाह्ये चरकी द्वितीये, विदारिका पूतनिका तृतीये ।
पापाभिधा मारुतकोणके तु, पूज्याः सुरा उक्तविधानकैस्तु ॥"
वास्तुमंडल के बाहर ईशान कोण में चरकी, अग्निकोण में विदारिका, नैऋत्य कोण में पूतना और वायुकोण में पापा इन चार राक्षसनियों की पूजन करना चाहिये। ...प्रासाद मंडन में वास्तुमंडल के बाहर कोणे में आठ प्रकार के देव बतलाये हैं। जैसे
"ऐशान्ये चरकी बाह्ये पीलीपीछा च पूर्ववत् । विदारिकानौ कोणे च जंभा याम्यदिशाश्रिता॥ नैर्ऋत्ये पूतना स्कन्दा पश्चिमे वायुकोणके ।
पापा राक्षसिका सौम्येऽयमैवं सर्वतोऽचयेत् ॥" _ईशान कोने के बाहर उत्तर में चरकी और पूर्व में पीली पीछा, अनि कोण के बाहर पूर्व में विदारिका और दक्षिण में जंभा, नैऋत्य कोण के बाहर दक्षिण में पूतना और पश्चिम में स्कंदा, वायु कोण के बाहर पश्चिम में पापा और उत्तर में अर्यमा की पूजन करना चाहिये ।
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