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गृह प्रकरणम्
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मुख्य, भल्लाट, कुबेर और शैल) देवों को, दाहिने हाथ पर सावित्र और सविता को, बांये हाथ पर रुद्र और रुद्रदास को, जंघा के ऊपर मृत्यु और मैत्र देव को, नाभि के पृष्ठ भाग पर ब्रह्मा को, गुह्येन्द्रिय स्थान पर इंद्र और जय को, दोनों घुटनों पर क्रम से अग्नि और रोग देव को, दाहिने पग की नली पर पूषादि सात ( पूषा, वितथ, गृहक्षत, यम, गंधर्व, भृंग और मृग ) देवों को, बांये पग की नली पर नंदी आदि सात ( नंदी, सुग्रीव, पुष्पदंत, वरुण असुर, शेष और पापयदमा ) देवों और पर पितृदेव को स्थापित करना चाहिये ।
इस वास्तु पुरुष के मुख, हृदय, नाभि, मस्तक, स्तन इत्यादि मर्मस्थान के ऊपर दीवार स्तंभ या द्वार आदि नहीं बनाना चाहिये । यदि बनाया जाय तो घर के स्वामी की हानि करनेवाला होता है ।
वास्तुपद के ४५ देवों के नाम और उनके स्थान -
"ईशस्तु पर्जन्यजयेन्द्रसूर्याः, सत्यो भृशाकाशक एव पूर्वे । वह्निश्च पूषा वितथाभिधानो, गृहक्षतः प्रेतपतिः क्रमेण ॥ गन्धर्वभृङ्गौ मृगपितृसंज्ञौ, द्वारस्य सुग्रविक पुष्पदन्ताः । जलाधिनाथोप्यसुरश्च शेषः सपापयक्ष्मापि च रोगनागौ ॥ मुख्यश्च भल्लाटकुबेरशैला - स्तथैव बाह्ये ह्यदितिर्दितिश्च । द्वात्रिंशदेवं क्रमतोऽचनीया - स्त्रयोदशैव त्रिदशाश्च मध्ये || "
ईशान कोने में ईश देव को, पूर्व दिशा के कोठे में क्रमशः पर्जन्य, जय, इन्द्र, सूर्य, सत्य, भृश और आकाश इन सात देवों को; अग्निकोण में अग्निदेव को, दक्षिण दिशा के कोठे में क्रमशः पूषा, वितथ, गृहक्षत, यम, गंधर्व, भृंगराज और मृग इन सात देवों को; नैऋत्य कोण में पितृदेव को; पश्चिम दिशा के कोठे में क्रमशः नंदी, सुग्रीव, पुष्पदंत, वरुण, असुर, शेष और पापयक्ष्मा इन सात देवों को; वायुकोण में रोगदेव को; उत्तर दिशा के कोठे में अनुक्रम से नाग, मुख्य, भल्लाट, कुबेर, शैल, अदिति और दिति इन सात देवों को स्थापन करना चाहिये । इस
* नाभि के पृष्ठ भाग पर, इसका मतलब यह है कि वास्तुपुरुष की प्राकृति, आँधे सोबे हुए पुरुष की आकृति के समान है।
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